पंचायती राज व्यवस्था पर निबंध (Panchayati Raj Vyavastha Par Nibandh), प्राचीन भारत में छोटे-छोटे राज्य जन या जनपद कहलाते थे। प्रत्येक जनपद में अनेक ‘विश्’ होते थे, जिनके मुखिया ‘विशपति’ कहे जाते थे। गांव सबसे छोटी इकाई थी और प्रत्येक ‘विश्’ में अनेक गांव होते थे तथा इनका मुखिया ‘ग्रामणी’ कहा जाता था। ग्राम पंचायत के कार्य? ग्रामणी गांव के श्रेष्ठ और वयोवृद्ध लोगों की सलाह से अपना काम करता था। यही ग्राम पंचायत का आदिम रूप था। उस समय कृषि और पशुपालन प्रधान उद्यम थे, अतः गांवों का नगरों की अपेक्षा अधिक महत्त्व था और यातायात की कठिनाई के कारण प्रत्येक गांव स्वावलंबी होता था।
पंचायती राज व्यवस्था पर निबंध

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Panchayati Raj Vyavastha Par Nibandh
भूमि का बंटवारा, सिंचाई साधनों का प्रबंध चरागाहों की देख-भाल, मेले-उत्सवों का आयोजन, आपसी झगड़ों का फैसला आदि सभी कार्य गांव के लोग ही कर लेते थे। यह व्यवस्था बहुत समय तक चलती रही। किंतु जब विदेशी आक्रमण होने लगे, तब पंचायतों का महत्त्व घटने लगा। मुसलिम शासकों ने भी पंचायतों पर ध्यान नहीं दिया। पंचायती राज व्यवस्था पर निबंध
शांति व्यवस्था और कर वसूलने का कार्य राज्य कर्मचारियों को सौंप दिया गया और आपसी झगड़े निपटाने का काम भी सरकारी अदालतों के जिम्मे कर दिया गया। ग्राम पंचायतों का कोई लोकतंत्रीय आधार नहीं रह गया। विभिन्न जातियों की अलग-अलग पंचायतें भी संगठित होने लगीं, जिनका काम जातिगत रीति-रिवाज की रक्षा करना रह गया। ब्रिटिश शासन काल में ग्राम पंचायतों का अस्तित्व समाप्त हो गया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् सरकार का ध्यान गांवों की ओर गया और स्थानीय स्वशासन को सक्रिय करने का प्रयास शुरू हुआ। अतः देश के संविधान के नीति-निदेशक भाग के अनुच्छेद 40 में स्वीकार किया गया कि राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए अग्रसर होगा तथा उनको ऐसी शक्तियां और अधिकार प्रदान करेगा।
जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में काम करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हैं।’ इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रथम पंचवर्षीय योजना में एक लाख से अधिक ग्राम पंचायतों का गठन किया गया। दूसरी योजना में प्रायः पूरे देश में ग्राम पंचायतें अस्तित्व में आ गई। किंतु इससे पंचायतों के काम में गुणवत्ता नहीं आई। योजना-जांच-समिति की रिपोर्ट में कहा गया था कि 10% से अधिक पंचायतों का काम पूर्णरूप से संतोषजनक नहीं है।
सन् 1957 ई. में सरकार द्वारा नियुक्त ‘बलवंत राय मेहता समिति ने अपनी रिपोर्ट में स्थानीय स्वशासन की एक नई योजना प्रस्तुत की, जिसको लोकतंत्रीय विकेन्द्रीकरण अथवा पंचायतीराज नाम दिया गया था। इस योजना में त्रिस्तरीय स्वशासन की व्यवस्था थी।
सबसे नीचे ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत (पंचायती राज व्यवस्था पर निबंध), उसके ऊपर प्रखंड स्तर पर पंचायत समिति और उसके ऊपर जिलास्तर पर जिला परिषद्। इस पंचायतीराज योजना को सर्वप्रथम गांधी जयंती 2 अक्टूबर 1959 को राजस्थान में लागू किया गया।
सन् 1966 तक इस योजना को कुछ राज्यों को छोड़कर पूरे देश में लागू कर दिया गया। ग्राम, प्रखंड और जिला स्तर पर तीन संस्थाएं सभी राज्यों में हैं, किंतु इनके नाम, परस्पर संबंध और संगठन में थोड़ा-बहुत अंतर है।
उदाहरणार्थ जहां अन्य राज्यों में पंचायत समिति मुख्य संस्था है, वहीं महाराष्ट्र में जिला परिषद् को महत्त्व दिया गया है। संस्थाओं और अधिकारियों के पदनामों में भी अंतर है। राजस्थान में पंचायत समिति के अध्यक्ष को प्रधान और उत्तर प्रदेश में प्रमुख कहा जाता है। इस भ्रम से बचने के लिए जहां तक संभव हो, सभी राज्यों में एक रूप में नाम का प्रयोग उचित होगा। विभिन्न राज्यों में स्थानीय परिस्थिति के अनुसार पंचायती राज संस्थाओं के संगठन और कार्यों में अंतर होने पर भी निम्नलिखित पांच तत्त्व समान रूप से स्वीकृत हैं-
- ग्राम के जिले तक पंचायती राज का संगठन त्रिस्तरीय रहेगा और सब संस्थाओं के बीच आंगिक संबंध स्थापित रहेगा।
- अधिकार और दायित्व का वास्तविक हस्तांतरण होना चाहिए।
- नई संस्थाओं के पास पर्याप्त साधन होने चाहिए, ताकि वे अपना दायित्व निभा सकें।
- प्रत्येक स्तर का विकास कार्यक्रम उसी स्तर की संस्था द्वारा होना चाहिए।
- संपूर्ण व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि भविष्य में अधिक दायित्व और अधिकार सहज ही इन संस्थाओं को सौंपे जा सकें।
उत्तर प्रदेश में पंचायती राज के अंतर्गत निम्नलिखित तीन संस्थाएं हैं-
- ग्राम पंचायत
- क्षेत्र समिति
- जिला परिषद्
ग्राम पंचायत के अंतर्गत तीन संस्थाएं हैं –
- ग्राम सभा
- ग्राम पंचायत
- न्याय पंचायत
ग्राम सभा
एक निश्चित जनसंख्या वाला गांव अथवा कई गांवों के समूह से ग्राम सभा का संगठन होता है। इस क्षेत्र में रहने वाले वयस्क नागरिक इसके सदस्य होते हैं। ग्राम सभा का एक प्रधान और एक उपप्रधान होता है। ग्राम प्रधान का चुनाव पांच वर्ष के लिए ग्राम सभा के सदस्यों द्वारा किया जाता है।
ग्राम प्रधान का चुनाव एक वर्ष के लिए ग्राम पंचायत के सदस्यों द्वारा किया जाता है। ग्राम-उपसभा का मुख्य कार्य अपने क्षेत्र के विकास के लिए योजनाएं बनाना, ग्राम पंचायत और न्याय पंचायत के सदस्यों को चुनना है। वर्ष में इसकी दो बैठकें होती हैं और उनमें अगले वर्ष के बजट तथा पिछले वर्ष के अन्य व्यय पर विचार किया जाता है।
ग्राम पंचायत
यह ग्राम सभा की कार्यकारिणी समिति है। इसके सदस्यों का चुनाव पांच वर्ष के लिए होता है। ग्राम सभा के प्रधान और उप प्रधान ही ग्राम पंचायत के भी अधिकारी होते हैं। ग्राम पंचायत का कार्य ग्राम सभा के विकास के लिए योजनाएं बनाना और उन्हें लागू करना है।
किसानों को अच्छे बीज, खाद की व्यवस्था करना, सड़क निर्माण, कुओं की सफाई करवाना, पीने के पानी की व्यवस्था करना, गलियों में खड़ंजा लगवाना, गांव की जन्म-मृत्यु का हिसाब रखना, सार्वजनिक चरागाहों और तालाबों की देखभाल करना आदि भी ग्राम पंचायत के कार्य हैं। इस सब कार्यों के लिए धन बाजारों, हाटों, मेलों पर टैक्स, नदियों के घाटों और पुलों से यातायात पर कर तथा अन्य वैध टैक्स से प्राप्त किया जाता है। इसके अतिरिक्त राज्य सरकार भी आवश्यक अनुदान देती है।
न्याय पंचायत
गांव के छोटे-मोटे झगड़ों को निपटाने के लिए न्याय पंचायत की व्यवस्था की गई है। सन् 1954 ई. में संशोधित पंचायत राज अधिनियम के अनुसार साधारणतः 9 ग्राम सभाओं को मिलाकर एक न्याय पंचायत का गठन किया जाता है।
इसका कार्यकाल 5 वर्ष होता है। प्रत्येक ग्राम सभा ग्राम पंचायत के लिए पंचों का निर्वाचन करते समय न्याय पंचायत के सदस्यों का भी चुनाव करती है। न्याय पंचायत के सदस्य अपने में से एक सरपंच तथा एक सहायक सरपंच का चुनाव करते हैं। इस पद पर केवल वे ही लोग चुने जाते हैं, जिनमें पंचायत की कार्रवाई लिखने की योग्यता होती है।
कोई भी मुकदमा पांच पंचों के एक बेंच के सामने रखा जाता है और पूरी छानबीन के बाद बेंच अपना निर्णय देता है। न्याय पंचायत को दीवानी, फौजदारी और माल के मुकदमे सुनने का अधिकार है। वह 100 रु. मूल्य के दीवानी मुकदमे देख सकती है। फौजदारी के मुकदमों में वह 100 रु. तक जुर्माना कर सकती है।
यदि न्याय पंचायत को यह आशंका हो कि कोई व्यक्ति शांति भंग कर सकता है, तो वह उससे 15 दिन के लिए 100 रुपये का मुचलका ले सकती है। न्याय पंचायत के फैसले की अपील नहीं होती, किंतु अन्याय की स्थिति में मुसिफ या सब डिवीजनल ऑफिसर के यहां निगरानी में पुनर्विचार हो सकता है।
क्षेत्रीय समितियां
सन् 1961 ई. में उत्तर प्रदेश सरकार ने उत्तर प्रदेश क्षेत्र समिति तथा जिला परिषद् अधिनियम’ पारित किया, जिसके अनुसार प्रत्येक जिले में एक जिला परिषद् तथा प्रत्येक विकास खंड में एक क्षेत्र समिति की स्थापना की गई। क्षेत्र समिति में क्षेत्र के सभी प्रधान और अन्य सदस्य क्षेत्र समिति के प्रमुख का चुनाव करते हैं।
इसके अतिरिक्त क्षेत्र समिति अपने में से एक ज्येष्ठ उप प्रमुख और एक कनिष्ठ उपप्रमुख का चुनाव करती है। इनका कार्यकाल 5 वर्ष का होता है किंतु इससे पहले भी क्षेत्र समिति के सदस्य अविश्वास प्रस्ताव पारित कर इन्हें पद से हटा सकते हैं। क्षेत्रीय विकास अधिकारी क्षेत्र समिति का मुख्य सरकारी अधिकारी होता है, जो प्रमुख के अधीन कार्य करता है।
क्षेत्र समिति का मुख्य कार्य अपने क्षेत्र का विकास करना है। कृषि के विकास के लिए खाद और उन्नतशील बीज का प्रबंध करना, कृषि की वैज्ञानिक विधियों का प्रचार करना, सार्वजनिक सड़कों तथा इमारतों का निर्माण और मरम्मत करना, ग्रामीण उद्योगों के विकास के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था और ऋण देना, खंड विकास की योजनाओं को लागू करना, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की स्थापना और उनका रख-रखाव सुनिश्चित करना आदि कार्य भी क्षेत्र समिति संपादित करती है। इन कार्यों के लिए धन की व्यवस्था के लिए क्षेत्र समिति विभिन्न प्रकार के कर लगाती है। इसके अलावा राज्य सरकार से उसे अनुदान भी प्राप्त होता है।
जिला परिषद्
उत्तर प्रदेश में प्रत्येक जिले में एक जिला परिषद् की स्थापना की गई है। इसका कार्यकाल 5 वर्ष निर्धारित है। इसकी सदस्य संख्या ‘जिला परिषद् अधिनियम सन् 1961 ई.‘ के अनुसार निर्धारित है। ये सदस्य एक अध्यक्ष और एक उपाध्यक्ष का चुनाव करते हैं। जिला परिषद् जिले के समस्त ग्रामीण क्षेत्र के विकास का कार्य संपन्न करती है। उसके निम्नलिखित मुख्य कार्य हैं-
- सार्वजनिक सड़कों, पुलों तथा निरीक्षण गृहों का निर्माण एवं मरम्मत करना
- प्रबंध के लिए जिले की सड़कों का ग्राम सड़कों, अंतग्राम सड़कों एवं जिला सड़कों में वर्गीकरण करना।
- जिन मेलों का प्रबंध राज्य सरकार नहीं करती है, उनका ग्राम पंचायत क्षेत्र समिति तथा जिला परिषद् के मेलों के रूप में वर्गीकरण करना।
- जन स्वास्थ्य के लिए महामारियों की रोकथाम करना।
- पीने के पानी की व्यवस्था करना।
- अकाल के समय उसे दूर करने के लिए निर्माण कार्य चलाना।
- क्षेत्र समिति एवं ग्राम पंचायतों के कार्यों में तालमेल स्थापित करना ।
- प्राइमरी स्तर के ऊपर की शिक्षा का प्रबंध करना।
- सड़कों के किनारे छायादार वृक्ष लगवाना।
- कांजी हाउस और पशु चिकित्सालय की व्यवस्था करना।
- जन्म-मृत्यु का हिसाब रखना
- परिवार नियोजन कार्यक्रम को लागू करना।
- ग्राम पंचायतों और क्षेत्र समितियों के कार्यों का निरीक्षण करना।
जिला परिषद् को उपर्युक्त कार्यों को संपन्न करने के लिए निम्न साधनों से धन प्राप्त होता है-
- हैसियत एवं संपत्ति कर
- विद्यालयों से प्राप्त शुल्क
- किराया
- पुलों से उतराई
- मेलों और प्रदर्शनियों से प्राप्त किराया
- राज्य सरकार से प्राप्त अनुदान
ग्राम पंचायतों, क्षेत्र समितियों और जिलापरिषद् के कार्यों और उन्हें पूरा करने के लिए वित्तीय साधनों को देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि इन संस्थाओं के पास कार्यों को पूरा करने के लिए पर्याप्त वित्तीय साधन नहीं हैं। वे सरकारी अनुदान पर आश्रित हैं।
सरकार आवश्यक अनुदान उपलब्ध नहीं कराती है। अतः ये संस्थाएं अपेक्षा के अनुसार कार्य नहीं कर पा रही हैं। दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि इन संस्थाओं में जातिवाद का प्रवेश हो गया है और इससे ग्रामीण जनता में जातिवाद का प्रभाव बढ़ रहा है।
इससे गांवों में वैमनस्य बढ़ रहा है। चुनाव में दबंग लोग विजयी हो रहे हैं और ये लोग जन कल्याण के स्थान में स्वकल्याण में लगे हुए हैं। इसके अलावा इन संस्थाओं की कारगुजारी से सामान्य जन में घृणा और आक्रोश में उत्पन्न हुआ है। निश्चय ही ये जन कल्याण की संस्थाएं अपने उद्देश्य से भटक गई हैं। इन्हें पटरी पर लाने के लिए सरकार को सक्रिय होना चाहिए।
पंचायती राज को सुव्यवस्थित करने के लिए सन् 1993 ई. में संविधान में 73वां संशोधन किया गया। इस संशोधन के अनुसार केंद्र और राज्य सरकारों के साथ ही जिला सरकार की स्थापना हुई। सबसे बड़ा परिवर्तन यह हुआ कि जिला, क्षेत्र और ग्राम पंचायत में 33 प्रतिशत स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित किए गए।
अध्यक्ष पदों में भी एक तिहाई स्थान महिलाओं के लिए हैं। यह भी प्रावधान किया गया कि लोकसभा-विधान सभाओं की तरह पंचायती संस्थाओं का कार्यकाल पांच वर्ष होगा और निश्चित समय पर इनका चुनाव कराया जाएगा।
राज्य स्तर पर इस कार्य के लिए एक निर्वाचन अधिकारी होगा। एक वित्त आयोग का गठन होगा, जो यह देखेगा कि पंचायती संस्थाओं को वित्तीय साधन उपलब्ध कराए जाते हैं। इस संविधान संशोधन के माध्यम से पंचायतों को विस्तृत अधिकर दिया गया है।
इन्हें जन-स्वास्थ्य, प्राइमरी शिक्षा, कृषि, सड़क, पशुपालन, भूमि सुधार, सिंचाई के लघु साधन, ग्रामीण विद्युतीकरण आदि का कार्य सौंपा गया है। बिहार जैसे कुछ राज्यों को छोड़कर पूरे देश के संशोधित विधान के अनुसार पंचायतों का चुनाव हो गया है।
उत्तर प्रदेश में पंचायती संस्थाओं का नाम परिवर्तित कर दिया गया है। अब ग्राम पंचायत, क्षेत्रीय पंचायत और जिला पंचायत नाम रखा गया है। उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार ने अपने राजस्व का एक बड़ा धन इन संस्थाओं को आबंटित कर दिया है। संविधान संशोधन के बाद गठित पंचायती राज व्यवस्था से अपेक्षा की जाती है कि वह ग्रामीण विकास की गति को तेज करेगी। भारत में लोकतंत्र की सफलता पंचायती राज संस्थाओं की सफलता पर ही निर्भर है। पंचायती राज व्यवस्था पर निबंध
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