पाण्डुरंग खानखोजे का जीवन परिचय: पाण्डुरंग खानखोजे का जन्म जन्म 7 नवम्बर 1883 नागपुर में हुआ था। इनकी मृत्यु जनवरी 22, 1967 को हुई थी। उनका पूरा नाम पाण्डुरंग सदाशिव खानखोजे था। उनकी शिक्षा-दीक्षा नागपुर में ही हुई। जब वे 22, 23 वर्ष के हुए, तो 1907 ई० में कैलिफोर्निया चले गये और वहीं रहने लगे। खानखोजे कैलिफोर्निया के पोर्टलैण्ड नामक स्थान में रहते थे।
पाण्डुरंग खानखोजे का जीवन परिचय

Pandurang Sadashiv Khankhoje Biography in Hindi
पूरा नाम | पाण्डुरंग सदाशिव खानखोजे |
जन्म | 7 नवम्बर 1883 |
जन्म स्थान | नागपुर |
मृत्यु | 22 जनवरी, 1967 |
भारत के जिन क्रान्तिकारियों ने विदेशों में जाकर भारत की स्वतंत्रता के लिए अलख जगाया, उनमें पाण्डुरंग खानखोजे का नाम बड़े गर्व के साथ लिया जायेगा। खानखोजे महान देशभक्त थे। देश की स्वतंत्रता की वेदिका पर उन्होंने अपना सब कुछ निछावर कर दिया था।
उन्हें घर-द्वार, माता-पिता, भाई-बन्धु और पत्नी-पुत्र किसी से भी प्रेम नहीं था। प्रेम था तो देश की स्वतंत्रता से उन्होंने अपने सम्पूर्ण लौकिक प्रेमी और सम्बन्धों को देश-प्रेम पर उत्सर्ग कर दिया था। निम्नांकित पंक्तियां उनके लिए बड़ी उपयुक्त हो सकती हैं- वतन के लिए, जो वतन छोड़ता है। किसी से नहीं, वह हृदय जोड़ता है।
संस्था स्थापित की जिसका नाम हिन्दुस्तानी एसोसिएशन था संस्था का उद्देश्य था, भारत की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में प्रचार करना। पण्डित काशीराम उस संस्था के अध्यक्ष और खानखोजे उसके उपाध्यक्ष थे।
डा० खानखोजे प्रचार का कार्य करते थे। वे भारत को स्वतंत्रता के लिए पुस्तकें और नोटिस आदि इधर-उधर भेजा करते थे। 1913 ई० में कुछ क्रान्तिकारियों के सहयोग से गदर पार्टी की स्थापना हुई। खानखोजे भी गदर पार्टी में सम्मिलित होकर स्वतंत्रता के लिए कार्य करने लगे।
गदर पार्टी में ‘प्रहार’ नाम का एक विभाग था। उस विभाग के द्वारा बम बनाने और पिस्तौल चलाने आदि की शिक्षा दी जाती थी। खानखोजे को ही वह विभाग सौंपा गया था। खानखोजे बम बनाने और पिस्तौल आदि चलाने में दक्ष थे। उन्होंने ही यह सब सीख लिया था। नागपुर में
खानखोजे ने मिनीसोटा विश्वविद्यालय से डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की थी। जिन दिनों वे मिनीसोटा में थे, उन्हें गदर पार्टी के कार्यालय में बुलाया गया। उनसे कहा गया कि वे भारत जाकर विद्रोह की आग प्रज्वलित करें। 1914 ई० में विश्व का प्रथम महायुद्ध आरम्भ हो गया था। अंग्रेज उस युद्ध में फंसे हुए थे। गदर पार्टी के कार्यकर्ताओं की दृष्टि में भारत की स्वतंत्रता के लिए वह बड़ा उपयुक्त समय था।
खानखोजे शिकागो से न्यूयार्क गये और न्यूयार्क से भारत के लिए चल पड़े। वे जिस जहाज से चले थे, वह एक यूनानी जहाज था। जहाज पर उनके साथ दो और भारतीय थे, जिनमें एक का नाम विशनदास कोछा और दूसरे का नाम मुहम्मद अली था। कोछा गदर पार्टी के कार्यकर्ता थे। खानखोजे के साथ वे भी भारत जा रहे थे। मुहम्मद अली ईरान में अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से भारत से आये थे।
खानखोजे शिकागो से चल कर यूनान पहुंचे। यूनान से स्मर्ना और फिर उसके बाद कुस्तुनतुनिया गये। कुस्तुनतुनिया में खानखोजे तुर्किस्तान के शाह और प्रधानमंत्री से मिले। उन्होंने उनसे कहा कि हम गदर पार्टी के कार्यालय को बसरा में लाना चाहते हैं और तुर्की के सहयोग से भारत पर आक्रमण करके अंग्रेजों के राज्य को नष्ट कर देना चाहते हैं। तुर्की के शाह अनवर पाशा ने खानखोजे की योजना को अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी थी।
खानखोजे कुस्तुनतुनिया से अलेक्जेंड्रिया गये। वहां से चलकर बगदाद पहुंचे। कुछ दिनों तक बगदाद में रह कर बुखारा चले गये। उन्होंने बगदाद और बुखारा में भारत की स्वतंत्रता के लिए बड़ा प्रचार किया था। जगह-जगह पुस्तकों और नोटिसों का वितरण किया गया। उन नोटिसों और पुस्तकों में अंग्रेजों के अत्याचारों का वर्णन तो था ही, जोरदार शब्दों में भारत की स्वतंत्रता के पक्ष का भी प्रतिपादन किया गया था।
ईरान के दक्षिण में अंग्रेजों की सेना पड़ी हुई थी। अंग्रेजों को जब खानखोजे के प्रचार का पता चला तो उन्होंने उन्हें बन्दी बनाने का प्रयत्न किया। अतः खानखोजे बुखारा से शिराज चले गये। उन दिनों सूफी अम्बाप्रसाद वहीं रहते थे। वहीं एक विद्यालय में अध्यापन कार्य करते थे। खानखोजे ने उनसे मिल कर उन्हें गदर पार्टी का प्रतिनिधि नियुक्त किया। उन्होंने शिराज में एक दल का भी गठन किया, जिसमें भारतीय और ईरानी दोनों थे।
खानखोजे शिराज से बाम गये। उन्होंने बाम में बलूचियों का संगठन करके वहां अस्थायी सरकार की स्थापना की। उन्होंने अस्थायी सरकार की स्थापना करके एक सेना भी तैयार की, किन्तु अंग्रेजों ने रिश्वत देकर बलूचियों के अमीर को अपने साथ मिला लिया और खानखोजे की सेना पर धावा बोल दिया। सेना के सिपाही इधर-उधर भाग निकले।
स्वयं खानखोजे भी गिरफ्तारी से बचने के लिए बाम से भाग खड़े खानखोजे बाम से भागकर वस्त पहुंचे। वस्त में अंग्रेजों ने उन्हें घेर लिया। वे घायल हो गये और गिरफ्तार कर लिये गये जब अच्छे हुए तो अंग्रेजों के जाल को काट कर वहां से भी भाग निकले। वे वहां से भाग कर एक दरवेश की सहायता से नेपरिज गये।
नेपरिज में उन्हें ज्ञात हुआ कि राजधानी पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया है और उनके सभी साथी अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार किये जा चुके हैं। अतः वे नेपरिज से पुनः शिराज चले गये। शिराज में उन्हें यह जान कर बड़ा दुःख हुआ कि अंग्रेजों ने सूफी अम्बाप्रसाद की हत्या कर दी है।
1916 ई० में खानखोजे ईरानी सेना में भरती हो गये। वे 1919 तक एक ईरानी सैनिक के रूप में अंग्रेजों के साथ लड़ते रहे। उन्होंने यह सोचा था कि वे इस तरह भारत की स्वतंत्रता के लिए कुछ कर सकेंगे, किन्तु उनकी आशाएं पूर्ण नहीं हुई।
1919 ई० में ईरानी सेना ने अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। ऐसा लगा कि खानखोजे अंग्रेजों के हाथ में पड़ जायेंगे, किन्तु वे गुप्त रूप से बच निकले। वे अंग्रेजों की आंखों से बचते-बचाते किसी प्रकार बम्बई पहुंचे। उन्होंने लोकमान्य तिलक और कई दूसरे नेताओं से भेंट की। किन्तु कहीं उन्हें आश्रय नहीं मिल सका, क्योंकि अंग्रेज गुप्तचर उनके पीछे पड़े हुए थे।
खानखोजे को जब भारत में कहीं कोई आश्रय नहीं मिला, तो वे पुनः यूरोप लौट गये। उन्होंने पेरिस और बर्लिन में भारतीय क्रान्तिकारियों से भेंट की, जो उस समय बर्लिन में रहते थे। वे बर्लिन समिति के कार्यकर्ताओं से भी मिले। उन कार्यकर्ताओं में भूपेन्द्रनाथ मुख्य थे।
बर्लिन से खानखोजे रूस चले गये। भूपेन्द्रनाथ दत्त और चट्टोपाध्यायजी रूस चले गये थे। इन लोगों को आशा थी, कदाचित् रूस से कोई सहायता प्राप्त हो जाय। किन्तु रूस ने भी कोई सहायता देने में असमर्थता प्रकट की।
खानखोजे तीन महीने तक मास्को में रहकर प्रयत्न में लगे रहे। जब कोई सफलता प्राप्त नहीं हुई, तो खानखोजे पुनः बर्लिन चले गये। चट्टोपाध्याय और भूपेन्द्रनाथ दत्त भी निराश होकर बर्लिन चले गये थे। खानखोजे ने बर्लिन में एक संस्था स्थापित की, जिसका नाम भारतीय सूचना संघ था। चट्टोपाध्याय और दत्त भी उसमें सम्मिलित थे।
खानखोजे 1923 ई० तक बर्लिन में ही रहे। 1924 ई० में वे मैक्सिको चले गये। उन दिनों मैक्सिको में कई भारतीय क्रान्तिकारी रहते थे। खानखोजे मैक्सिको विश्वविद्यालय में कृषि के अध्यापक के रूप में काम करने लगे।
1928 ई० में खानखोजे के पिता अधिक बीमार हुए। उन्होंने भारत सरकार के पास प्रार्थनापत्र भेजा कि उनकी बीमारी को देखते हुए खानखोजे को भारत आने दिया जाये; किन्तु भारत सरकार ने उनके प्रार्थना पत्र को अस्वीकार कर दिया।
खानखोजे 1948 ई० तक मैक्सिको में ही रहे। 1947 ई० में जब भारत स्वतंत्र हुआ, तो स्वतंत्र भारत के प्रयत्नों से वे 1949 ई० में भारत आये, उन्होंने अपना शेष जीवन नागपुर में व्यतीत किया। 1967 ई० में वे संसार से चले गये। स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए उन्होंने जो कार्य और त्याग किये थे, उनके कारण वे सदा याद किये जायेंगे।
यह दुर्भाग्य की ही बात है कि देश की स्वतंत्रता के लिए जिन क्रान्तिकारियों ने विदेशों में अपार कष्ट सहन किये, उनके सम्बन्ध में हमारी आज की पीढ़ियां कुछ नहीं जानतीं। काश, भारत सरकार उन क्रान्तिकारियों के सम्बन्ध में लिखे गये साहित्य के प्रचार-प्रसार पर ध्यान देती। ऐसा करने से स्वतंत्रता की भावना दृढ़ तो होगी ही, एकता भी सबल होगी। इनकी मृत्यु जनवरी 22, 1967 को हुई थी।
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