पानीपत का तृतीय युद्ध कब हुआ? पानीपत तृतीय युद्ध के कारण और परिणाम?

भारत के इतिहास में पानीपत के तृतीय युद्ध का वर्णन किया गया है पानीपत का तृतीय युद्ध कब हुआ (Panipat Ka Tritiya Yudh Kab Hua) इसके बारे में जानेंगे। पानीपत का तृतीय युद्ध आधुनिक भारत के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। पानीपत का तृतीय युद्ध मराठों और अहमदशाह अब्दाली के बीच में 14 जनवरी, 1761 ई. में हुआ था।

पानीपत का तृतीय युद्ध कब हुआ

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Panipat Ka Tritiya Yudh Kab Hua

इस युद्ध में मराठों को पराजय का सामना करना पड़ा था। इस युद्ध में पराजित हो जाने के कारण मराठों की शक्ति प्रतिष्ठा को काफी गहरा धक्का लगा। इस युद्ध ने मराठों की सभी आकांक्षाओं तथा आशाओं पर पानी फेर दिया।

पानीपत के तृतीय युद्ध के कारण

  • मुगलों की दुर्बलता।
  • मराठों की विदेश नीति ।
  • भारतीय राजनीति में अहमदशाह अब्दाली का हस्तक्षेप ।
  • मुस्लिम नेताओं द्वारा अब्दाली को आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया जाना (मराठों की शक्ति को कमजोर करने हेतु ) ।
  • उत्तर भारत की अस्थिर राजनीति |
  • मराठा-पठान वैमनस्यता ।
  • मुगल-मराठा संधि ।
  • पंजाब और दिल्ली पर मराठा आक्रमण ।
  • मुगल दरबार में गुटबंदी।
  • नजीब खाँ पर मराठा आक्रमण।

पानीपत के तृतीय युद्ध की घटनाएँ

  • 14 जनवरी, 1761 में पानीपत के मैदान में अब्दाली और मराठों के बीच भीषण संग्राम।
  • मराठा सेनापति ‘भाऊ’ का मारा जाना।
  • अफगानों द्वारा तोपों का प्रयोग।
  • मराठों को भारी क्षति ।

मराठों की पराजय के कारण

  • अफगानी सैनिक मराठों से ज्यादा।
  • फुर्तिले घोड़े और घुड़सवार।
  • मराठों के पास रसद की कमी।
  • मुस्लिम शक्तियाँ अफगानों से मिल गईं।
  • भाऊ की भूलें।
  • कूटनीति का अभाव।

इस युद्ध के बाद में मराठों के साथ-साथ मुगलों की शक्ति क्षीण हो जाने के कारण ही अंग्रेज भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने में सफल रहे। पानीपत (पानीपत का तृतीय युद्ध कब हुआ) के तृतीय युद्ध के लिए कई कारण उत्तरदायी थे, जिनमें से कुछ मुख्य कारण है, जो इस युद्ध के लिए उत्तरदायी ठहराए जा सकते हैं, जो निम्नलिखित हैं-

1.मुगलों की दुर्बलता (Weakness of The Mughals)

अहमदशाह अब्दाली के भारत पर आक्रमण करने से पहले ही मुगलों की स्थिति काफी दुर्बल थी। मुगल सम्राट अयोग्य और दुर्बल थे और इनकी दुर्बलता के कारण ही मुगल साम्राज्य काफी कमजोर हो गया था और मुगल साम्राज्य का गौरव मिट्टी में मिलता जा रहा था।

मुगल सम्राट अहमदशाह सन् 1748 ई. को गद्दी पर बैठा। अहमदशाह एक विलासप्रिय, कमजोर एवं अयोग्य शासक था। अहमदशाह मुगल साम्राज्य को सही तरीके से संचालित नहीं कर पाया। अहमदशाह की दुर्बलता के कारण मुगल साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। साम्राज्य में चारों तरफ अराजकता और अशान्ति फैली हुई थी।

मुगल दरबार इस समय अमीरों के षड्यन्त्रों और कुचक्रों का मुख्य अड्डा बना हुआ था। मुगल सम्राटों की विलासप्रियता व दुर्बलता के कारण मुगल साम्राज्य को कई प्रान्तों से हाथ धोना पड़ा, जिसमें बंगाल, गुजरात, उड़ीसा, अवध तथा बिहार आदि के साथ दक्षिण के प्रान्त भी सम्मिलित थे। अब मुगलों के पास दिल्ली, पंजाब और दोआब के कुछ प्रदेश ही रह गए थे।

इन परिस्थितियों का अहमदशाह अब्दाली ने पूरा-पूरा फायदा उठाया। यह समय उसके भारत पर आक्रमण करने का उत्तम समय था, क्योंकि इस समय मुगलों की स्थिति काफी शोचनीय थी, चूँकि मराठा उस समय मुगलों के संरक्षक बने हुए थे, तो उस स्थिति में दोनों का सामना होना स्वाभाविक था।

2. मराठों की विदेश नीति (Foreign Policy of The Marathas)

मुगलों की दुर्बलता के अलावा मराठों की विदेश नीति को भी इस युद्ध के लिए काफी हद तक उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। उस समय मराठों की विदेशी नीति के तीन प्रमुख सिद्धान्त थे हिन्दू तीर्थस्थानों को मुस्लिम शासकों से मुक्त कराना, आर्थिक हितों की पूर्ति और मराठों की शक्ति में वृद्धि करना तथा मराठों की प्रभुत्ता को स्थापित करना। मराठों को अपने उपरोक्त सिद्धान्तों के कारण भी अब्दाली से दो-दो हाथ करने पड़े।

3. अहमदशाह अब्दाली का भारत की राजनीति में हस्तक्षेप (Intervention of Ahmadshah Abdali in Indian Politics)

अहमदशाह अब्दाली एक महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति था। अहमदशाह अब्दाली नादिरशाह का उत्तराधिकारी था। पंजाब तथा मुल्तान आदि प्रदेश नादिरशाह के राज्य के अंग रह चुके थे और नादिरशाह का उत्तराधिकारी होने के कारण वह इन प्रदेशों पर अधिकार करना चाहता था। इसके अलावा अब्दाली को सैनिक अभियानों के लिए भी काफी धन की आवश्यकता थी और इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए वह भारत पर आक्रमण करने के लिए उत्सुक था।

अपनी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए उसने सन् 1748 ई. को पंजाब पर आक्रमण किया और लाहौर पर अधिकार कर लिया, लेकिन ठीक इसी समय दिल्ली के कमरुद्दीन नामक वजीर की सेना ने अब्दाली को मानपुर नामक स्थान पर हरा दिया। अब्दाली अपनी हार का बदला लेना चाहता था

और सन् 1749 ई. को उसने पंजाब पर वापस हमला बोल दिया और वहाँ के सूबेदार, जिसका नाम मीर मन्नु था, को उसकी अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य कर दिया। सन् 1752 ई. को अब्दाली ने पंजाब पर पुन: आक्रमण किया तथा मन्नु को पराजित कर दिया।

अन्त में विवश होकर मुगल सम्राट ने पंजाब और मुल्तान पर अब्दाली के अधिकार को स्वीकार कर लिया। इससे मुगलों की दुर्बलता अब्दाली के सामने प्रकट हो गई। अब्दाली ने सूबेदार मीर मन्नु को पंजाब का सूबेदार नियुक्त कर दिया और वह पुनः अफगानिस्तान लौट गया।

4. अहमदशाह अब्दाली को आक्रमण के लिए आमंत्रित किया जाना (Invitation for Invasionby Ahmadshah Abdali)

अहमदशाह अब्दाली के भारत पर आक्रमण करने का एक प्रमुख कारण यह भी था कि अहमदशाह अब्दाली को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया गया था। अब्दाली को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित करने का प्रमुख कारण यह था कि मराठों की शक्ति में लगातार वृद्धि हो रही थी। मराठों का भारत में प्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा था और मराठों के बढ़ते प्रभाव के कारण मराठों की विरोधी शक्तियाँ काफी चिन्तित थीं।

अब्दाली को आक्रमण के लिए आमंत्रित करने वालों में वसीउल्लाल, नजीब खाँ तथा मुगलानी बेगम आदि प्रमुख थे। इनमें से वसीउल्लाल एक धर्मान्ध व्यक्ति था, जो कि मुस्लिम नेता था। उसने इस्लाम धर्म को खतरे में बताया और भारतीय मुसलमानों की रक्षा करने के लिए अब्दाली को युद्ध हेतु भारत में आमंत्रित किया।

इसके अतिरिक्त पंजाब के सूबेदार मीर मन्नु की विधवा बेगम, जिसका नाम गुगलानी था, मुगलों व मराठों से काफी परेशान थी। इसी प्रकार रुहेलों के नेता नजीब खाँ ने भी अब्दाली को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया। पानीपत का तृतीय युद्ध कब हुआ?

5. उत्तर भारत की अस्थिर राजनीति (Instability of the Politics in North India)

अहमदशाह अब्दाली के भारत पर आक्रमण करने के कारणों में उत्तर भारत की अस्थिर राजनीति भी है। उत्तर भारत की राजनीति काफी अस्थिर थी। इस समय यह कोई भी नहीं कह सकता था कि कौन किसका साथ देगा। मराठों ने इस युद्ध के विरुद्ध यह कहा था कि यह युद्ध विदेशी शक्ति के विरुद्ध है। इस सम्बन्ध में मराठों का यह सोचना था कि चूँकि अहमदशाह अब्दाली विदेशी है, अतः उसके खिलाफ लड़े जाने वाले युद्ध में राजपूत तथा जाट आदि शक्तियाँ अब्दाली के विरुद्ध युद्ध में उसका साथ देगी, लेकिन मराठों की यह सोच गलत साबित हुई।

पानीपत के इस तृतीय युद्ध में राजपूत तथा जाट आदि भारतीय शक्तियों ने मराठों की युद्ध में कोई सहायता नहीं की। अब्दाली एक अच्छा कूटनीतिज्ञ था और अपनी कूटनीतिज्ञता के कारण ही वह इस युद्ध में रुहेलों के नेता नजीब खाँ और अवध के नवाब शुजाउद्दौला की सहायता प्राप्त करने में सफल रहा। इन दोनों शक्तियों का सहयोग मिल जाने के कारण अब्दाली के हौंसले काफी बुलन्द हो गए और उसने सन् 1761 ई. में भारत पर आक्रमण कर दिया।

6. भारत के पठानों की मराठों के साथ दुश्मनी (Enemity between The Marathas & Indian Pathans)

रुहेलखण्ड के रुहेले और दोआब के पठान मुगलों के प्रबल शत्रु थे। वे भारत में पठानों के प्रभुत्व को स्थापित करना चाहते थे। पानीपत का तृतीय युद्ध कब हुआ? अपनी इसी महत्त्वाकांक्षा को पूरी करने के लिए उन्होंने मुगलों के साथ 1750 ई. में युद्ध किया और मुगलों को पराजित कर दिया। रुहेलों से पराजित होने के बाद मुगल वजीर सफदगंज ने मराठों से मदद करने के लिए प्रार्थना की। मराठों ने भी मुगलों की सहायता करना मंजूर कर लिया। मुगलों और मराठों के बीच सन्धि हो गई कि मराठे मुगलों की सहायता करेंगे।

मराठे मुगलों के संरक्षक बन गए, अतः मराठों ने पठानों और रुहेलों पर आक्रमण कर दिया तथा इस युद्ध में रुहेलों और पठानों को पराजय का मुख देखना पड़ा। इस युद्ध में लगभग 10 हजार रुहेले मारे गए। इस युद्ध के पश्चात् मराठों, रुहेलों व पठानों के बीच की दुश्मनी अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई। इसी दुश्मनी के कारण ही रुहेले व पठान अब हर कीमत पर मराठों की शक्ति को समाप्त करना चाहते थे और इसी कारण उन्होंने अफगानिस्तान से अहमदशाह अब्दाली को भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया।पानीपत का तृतीय युद्ध कब हुआ?

7. मुगल मराठा सन्धि के कारण अब्दाली का नाराज होना (Abdali is angaish on Mughal Maratha Treaty)

उपरोक्त कारणों के अतिरिक्त पानीपत के तृतीय युद्ध के लिए एक और अन्य कारण भी उत्तरदायी था, वह था मराठों और मुगलों के बीच में 12 अप्रैल, 1752 ई. को हुई सन्धि, जिसके अनुसार मराठे मुगलों के संरक्षक बन गए थे।

इस सन्धि के कारण अब्दाली मराठों से काफी नाराज था। अब्दाली की नाराजगी का कारण यह था कि इस सन्धि के अनुसार मराठों ने जहाँ मुगलों की आक्रमणकारियों से रक्षा करने का वचन दिया था, वहीं दूसरी तरफ मुगलों ने इसके एवज में मराठों को 50 लाख रुपये और पंजाब, सिन्ध तथा दोआब से चौथ वसूलने का अधिकार दे दिया।

सन्धि के फलस्वरूप मराठों का उत्तरी भारत में लगातार हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा था और मराठों के इस बढ़ते हस्तक्षेप के कारण जहाँ मुस्लिम शासक अपनी सत्ता को लेकर चिन्तित थे, तो दूसरी तरफ अब्दाली के अलावा राजपूत, रुहेले और पठान भी मराठों से काफी नाराज हो गए। मराठों की इस बढ़ती शक्ति को कुचलने के लिए अब्दाली ने मराठों से युद्ध करने का निश्चय कर लिया। इस प्रकार उपरोक्त बातों से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस युद्ध के लिए मराठों और मुगलों के बीच की सन्धि काफी हद तक उत्तरदायी थी। पानीपत का तृतीय युद्ध कब हुआ?

8. मराठों का पंजाब और दिल्ली पर आक्रमण करना (Invasion by Marathas on Punjab & Delhi)

मराठों और मुगलों के बीच सन्धि हो जाने के बाद मराठों का प्रभाव उत्तर भारत में लगातार बढ़ रहा था। मराठों के इस बढ़ते हुए प्रभाव को अब्दाली हर हालत में समाप्त करना चाहता था। इस स्थिति में युद्ध अनिवार्य था।

इसके अतिरिक्त दोनों के बीच बढ़ती कटुता का कारण यह था कि मराठे और अब्दाली दोनों ही हर हाल में उत्तर भारत पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहते थे और इन दोनों की इस महत्त्वाकांक्षा ने दोनों को युद्ध के कागार पर लाकर खड़ा कर दिया।

अब्दाली जब दिल्ली पर अधिकार करके अफगानिस्तान लौट गया, तो उसके अफगानिस्तान चले जाने के बाद मराठों ने सन् 1757 ई. को दिल्ली पर धावा बोल दिया। मराठे दिल्ली पर अधिकार करने में सफल भी हो गए

दिल्ली पर अधिकार कर लेने के पश्चात् मराठों ने आलमगीर द्वितीय को पुनः दिल्ली की गद्दी पर बिठा दिया गजीउद्दीन को वजीर और अहमदशाह बंगश को मीर बख्शी नियुक्त किया गया। मराठों ने नजीब खाँ को कैद कर लिया, लेकिन मल्हार राव होल्कर के इस मामले में हस्तक्षेप करने के कारण मराठों ने नजीब खाँ को छोड़ दिया और रुहेलखण्ड लौट जाने की अनुमति दे दी।

दिल्ली पर अधिकार कर लेने के बाद मराठों के इरादे काफी बुलन्द हो गए और मराठों ने मल्हार राव होल्कर के नेतृत्व में पंजाब पर धावा बोल दिया। सन् 1758 ई. को मराठे सरहिन्द और लाहौर पर अधिकार करने में सफल हो गए। मराठों ने अब्दाली के पुत्र, जिसका नाम तैमूरशाह था

और उसके सेनापति जहान खाँ को वहाँ से मार भगाया। मराठों ने अदीना बेग को पंजाब का सूबेदार नियुक्त कर दिया। इस प्रकार पंजाब पर भी अधिकार कर लेने के बाद मराठों और मल्हार राव होल्कर ने दक्षिण की ओर रुख किया। अब्दाली को जब इसका पता चला तो वह बड़ा ही क्रुद्ध हुआ।

इस प्रकार मराठों की दिल्ली और पंजाब पर विजय ने इस युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार कर दी। अब्दाली ने मराठों को दण्डित करने और उत्तर भारत में उनके प्रभाव को समाप्त करने व उन्हें वहाँ से खदेड़ने का निश्चय किया। पानीपत का तृतीय युद्ध कब हुआ?

9. मुगल दरबार में गुटबन्दी (Faction in The Mughal Court)

मुगल दरबार में गुटबन्दी भी इस युद्ध के लिए उत्तरदायी ठहराई जा सकती है। इस समय मुगल सम्राट अत्यधिक दुर्बल था। सम्राट की दुर्बलता के कारण ही मुगल दरबार में गुटबन्दी बहुत तीव्र थी। इस समय पूरा मुगल दरबार दो भागों में बँटा हुआ था। एक दल में भारतीय मुसलमान थे और दूसरे दल में विदेशी मुसलमान भारतीय मुसलमान अपनी प्रभुसत्ता स्थापित करना चाहते थे तथा वहीं दूसरी तरफ विदेशी मुसलमान भी अपनी प्रभुसत्ता स्थापित करना चाहते थे।

दोनों ही दल इस जोड़तोड़ में लगे रहते थे कि किस प्रकार मुगल सम्राट पर अपना नियन्त्रण किया जाए। इसके लिए भारतीय मुसलमानों ने जहाँ मराठों से सहयोग माँगा, वहीं दूसरी ओर विदेशी मुसलमानों ने अब्दाली से सहायता के लिए प्रार्थना की।

इस गुटबन्दी का ही यह परिणाम था कि मराठे और अब्दाली दोनों का ही दिल्ली की राजनीति में हस्तक्षेप बढ़ने लगा और मराठों और अब्दाली के बीच में कटुता भी बढ़ती गई। 1757 ई. को अब्दाली ने भारत पर हमला कर दिया तथा जब वह भारत से वापस अपने देश गया, तो उस समय नजीब खाँ को मीर बख्शी नियुक्त कर दिया,

लेकिन उसके जाने के बाद मराठों ने नजीब खाँ को हटा दिया और अहमदशाह बंगश को मीर बख्शी बना दिया गया। मराठों के इस कृत्य से अब्दाली बड़ा क्रोधित हुआ और उसने मराठों को सबक सिखाने का निश्चय किया, जिसकी परिणति युद्ध था।

10. नजीब खाँ पर मराठों का आक्रमण (Marathas Attack on Nazib Khan)

पंजाब के सूबेदार अदीना बेग की 13 अक्टूबर, 1758 ई. को मृत्यु हो गई। अदीना बेग की मृत्यु के बाद पंजाब में अशान्ति और अराजकता का साम्राज्य हो गया। मराठों के लिए पंजाब पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने का यह एक बहुत अच्छा मौका था, अतः मराठे इस सुनहरे मौके को अपने हाथ से गवाना नहीं चाहते थे, अत: उन्होंने दत्ताजी सिन्धिया को भेजा।

दत्ताजी सिन्धिया ने पंजाब की रक्षा के लिए सबाजी सिन्धिया को लाहौर में नियुक्त कर दिया। लाहौर में सबाजी सिन्धिया को नियुक्त करने के पश्चात् उसने दोआब की ओर प्रस्थान किया। दत्ताजी सिन्धिया ने नजीब खाँ को सुकरताल के दुर्ग में घेर लिया।

इस अवसर पर नजीब खाँ ने अवध के नवाब से सहायता करने के लिए प्रार्थना की और अब्दाली को जल्दी से जल्दी भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया। अपने भरसक कोशिशों के बावजूद दत्ताजी सिन्धिया नजीब खाँ का दमन करने में असफल रहा।

मराठों की हार के कारण (Causes behind the Defeat of Marathas)

मराठा एक पराक्रमी, शूरवीर व साहसी जाति थी, लेकिन फिर भी वह अब्दाली के हाथों पराजित हो गए। ऐसे कई कारण थे, जो कि मराठों की हार के लिए उत्तरदायी ठहराये जा सकते हैं, वे कारण निम्नलिखित हैं

  • मराठों की हार का सबसे बड़ा कारण यह था कि अहमदशाह अब्दाली के पास भाऊ से अधिक सेना थी। सर जदुनाथ सरकार ने समकालीन सूत्रों के आधार पर अनुपात लगाया है कि अब्दाली के पास 60,000 सैनिक थे और भाऊ के पास 45,000 ही सैनिक थे। इस स्थिति में यह तो दिखती सी बात है कि अब्दाली के पास अधिक सेना होने के कारण उसकी जीत होना अनिवार्य ही थी।
  • मराठों की हार का एक प्रमुख कारण यह भी था कि मराठों के पास उतने अच्छे शस्त्र नहीं थे, जितने कि अब्दाली के पास थे। अब्दाली के पास जहाँ बन्दूकें थीं, वहीं मराठों के पास भाले और तलवार थे। बन्दूकों का सामना तलवारें और भाले नहीं कर सके और मराठों को पराजय का मुख देखना पड़ा। इसके अतिरिक्त मराठों के पास में काफी भारी तोपें थीं, जो कि काफी शक्तिशाली भी थीं, लेकिन भारी होने के कारण इन तोपों को उचित स्थान पर लाने में बहुत समय लग जाता था लम्बी वार वाली तोपों के गोले भी अपने निर्दिष्ट स्थान से आगे निकल जाते थे। यह भी मराठों को पराजय की कगार पर ले जाने वाला कारण साबित हुआ।
  • सुरक्षित सेना, श्रेष्ठ घोड़ों और घुड़सवारों की व्यवस्था न होना भी मराठों की पराजय का कारण बनी। अब्दाली के पास सुरक्षित सेना की व्यवस्था थी, जबकि मराठों के पास सुरक्षित सेना की कोई व्यवस्था नहीं थी। अब्दाली ने 10,000 सैनिकों को सुरक्षित रखा था। जब लड़ते-लड़ते मराठे थक गए तो उसने एकदम से उन सैनिकों पर आक्रमण करने का आदेश दिया। उन फुर्तिले घुड़सवारों के सामने थके हुए मराठे टिक नहीं सके और हार गए। इसके अलावा अब्दाली के पास श्रेष्ठ घोड़े और इसके साथ-साथ श्रेष्ठ घुड़सवार भी थे। मराठों के कई घोड़े घास और दाने के अभाव में मर गए, जिसके कारण कई घुड़सवारों को पैदल ही युद्ध करना पड़ा, जिसका नतीजा था-मराठों की हार।
  • मराठा पड़ाव में लगभग अकाल पड़ा हुआ था। दिल्ली जाने वाला मार्ग कट गया था। मनुष्यों के लिए रोटी और घोड़ों के लिए चारा नहीं था। मराठा पड़ाव मरे हुए घोड़ों और सैनिकों के शवों की सड़न के कारण नरक बना हुआ था। खाने की स्थिति इतनी बिगड़ गई थी कि 13 जनवरी को सैनिक भाऊ के पास गए और उन्होंने भाऊ से कहा कि, “दो दिन से हमें अन्न का एक दाना नहीं मिला। दो रुपये सेर में भी अन्न नहीं मिलता है, हमें भूख से तो न मरने दो, शत्रु के विरुद्ध एक प्रयत्न कर लेने दो और फिर जो भाग्य में हो, वो होने दो।” भाऊ की सेना वायु पर जी रही थी। अफगानों की सेना की आपूर्ति के मार्ग पूर्णतया खुले थे। अकाल के ही कारण भाऊ के यह आक्रमण करना पड़ा।
  • भाऊ की भूलें (Follies of Bhau ): मराठों का सेनापति भाऊ था। भाऊ में बहुत से चारित्रिक दोष थे। भाऊ एक घमण्डी, अहंकारी और दुराग्रही व्यक्ति था और उसका स्वभाव अत्यन्त कठोर था। उसके स्वभाव की कठोरता के कारण और उसके मनमाने व्यवहार के कारण कई अधिकारियों और सैनिकों में भारी असन्तोष था। भाऊ सलाहकारों की सलाह पर भी ध्यान नहीं देता था सलाहकारों की सलाह की अवहेलना के कारण भाऊ के द्वारा निम्नलिखित भूलें की गई, जिसके कारण मराठों को हार का मुख देखना पड़ा
  • भाऊ ने दिल्ली से आगे बढ़कर कुंजपुरा को जीत कर अब्दाली के खाद्यान्न के विशाल भण्डार और कोष को अपने अधिकार में तो कर लिया, लेकिन उसकी सुरक्षा के लिए कोई उचित प्रबंध नहीं किया। उसने वहाँ की सुरक्षा के लिए पर्याप्त सैनिक नहीं रखे, जिससे अब्दाली ने वहाँ पर पुनः आक्रमण करके बड़ी आसानी से वहाँ पर अधिकार कर लिया, जिसके कारण मराठों को खाद्यान्न सम्बन्धी समस्याओं का सामना करना पड़ा।
  • अक्टूबर, 1760 ई. में जब मराठों की सैनिक स्थिति सुदृढ़ थी, तभी भाऊ को अब्दाली की सेना पर तत्काल आक्रमण कर उसे परास्त कर देना चाहिए था, परन्तु भाऊ लगभग ढाई महीने तक निष्क्रिय पड़ा रहा। इस अवधि में अहमदशाह अब्दाली ने अपनी सेना को व्यवस्थित और सुदृढ़ कर लिया और खाद्यान्न का भी प्रबंध कर लिया। इसके विपरीत भाऊ ने अपने शिविर में व्यर्थ में ढाई महीने नष्ट कर दिए और अन्त में भूखमरी की समस्या से विवश होकर उसने अब्दाली के विरुद्ध लड़ने का निश्चय किया।
  • युद्ध क्षेत्र में विश्वास राव के मरने के बाद भाऊ अधीर होकर एक साधारण सैनिक की भाँति युद्ध करने लगा और लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ।
  • काशी राज पंडित ने साक्षी और शान्ति वार्ता में भाग लेने के नाते इस हार के लिए भाऊ को दोषी ठहराया है। भाऊ एक दम्भी और अपनी शक्ति का दुरुपयोग करने वाला व्यक्ति था। उसने अपनी परिषद् की बैठकों में मल्हार राव जैसे अनुभवी और प्रभावशाली लोगों को सम्मिलित करना बन्द कर दिया था और स्वेच्छा से ही कार्य करना आरम्भ कर दिया था। राजा सूरजमल जाट ने भाऊ को सलाह दी थी कि, वह औरतों, बच्चों को, जो कि सैनिकों के साथ थे और भारी तोपें और अन्य ऐश्वर्य की सामग्री झाँसी या ग्वालियर छोड़ जाएं। उसने कहा, “आपकी सेना शेष भारतीय सेना से अधिक हल्की और तीव्रगामी है, परन्तु दुर्रानियों की आपसे भी अधिक।” मल्हार राव की राय भी इसी प्रकार की थी कि, तोपखाने की गाड़ियाँ तो शाही सेना के अनुरूप थीं, परन्तु मराठा युद्ध प्रणाली तो लूटमार की थी। उन्हें वही पद्धति अपनानी चाहिए थी, जिससे वे अधिक परिचित थे। भाऊ को यह भी परामर्श दिया गया था कि वह युद्ध को वर्षा तक लटकाए रखे, जब अब्दाली लौटने पर बाध्य हो जाएगा। भाऊ ने किसी की नहीं मानी जाट सरदार इसका साथ छोड़ गए। इस प्रकार एक ब्राह्मण सेनापति का दर्प और अहंकार तथा अत्यधिक आत्मविश्वास मराठों की हार का कारण था।
  • उत्तरी भारत की समस्त मुस्लिम शक्तियाँ अब्दाली से मिल गई थीं, उधर मराठों को अकेला लड़ना पड़ा। मराठों की विवेकहीन लूटमार के कारण न केवल मुस्लिम ही उनसे दुःखी थे, अपितु हिन्दू, जाट व राजपूत भी उनसे दुःखी थे और सिक्खों ने उनकी सहायता नहीं की।
  • सैनिक संगठन के अतिरिक्त अब्दाली की साज-सज्जा भी अधिक उत्तम थी। अब्दाली ने बन्दूकों का प्रयोग किया, जबकि मराठे अभी भी तलवारों और भालों से लड़े। इब्राहिम खाँ गार्दी का भारी तोपखाना इस युद्ध में उपयोगी सिद्ध नहीं हुआ, उधर अब्दाली की ऊँटों पर रखी घूमने वाली तोपों ने मराठों का सर्वनाश कर दिया।
  • मराठा सरदारों के परस्पर द्वेष ने भी उनकी शक्ति को कम कर दिया। भाऊ मल्हार राव होल्कर को एक व्यर्थ वृद्ध पुरुष समझता था और उसने उसके सैनिकों की नजरों में उसे अपमानित कर दिया था। मल्हार राव ने क्रुद्ध को यह कहा कि, “यदि शत्रु इस पूने के ब्राह्मण को नीचा नहीं दिखाएगा, तो हम से तथा अन्य मराठा सरदारों से ये लोग कपड़े धुलवाएंगे।” इस प्रकार आपसी वैमनस्य और द्वेष की भावनाओं के कारण मराठों की शक्ति समाप्त हो चुकी थी। दूसरी ओर अब्दाली का सैनिक संगठन और अनुशासन अत्यधिक उत्तम था और अफगान सेना ने एक योजनाबद्ध रूप से युद्ध किया।
  • कूटनीति का अभाव मराठों में कूटनीतिज्ञ योग्यता का अभाव था। उन्होंने अफगानों के विरुद्ध सिक्खों, जाटों और राजपूतों का सहयोग प्राप्त करने का प्रयास नहीं किया। इसके अतिरिक्त मराठों ने 1752 ई. में मुगलों से सन्धि करके अदूरदर्शिता का परिचय दिया। इस सन्धि के द्वारा उन्होंने पठानों, जाटों और राजपूतों आदि को अपना प्रबल शत्रु बना लिया।

पानीपत तृतीय युद्ध का परिणाम

युद्ध पानोपत का तृतीय युद्ध भारतीय इतिहास में अपनी एक खास जगह रखता है। इस के परिणाम निम्नलिखित हुए

  1. जन-धन की हानि ।
  2. मराठा प्रभुता को आघात।
  3. मुगल साम्राज्य का विघटन
  4. मराठा संघ की एकता और अखंडता को आघात।
  5. पेशवा बालाजी बाजीराव का निधन।
  6. रघुनाथ राव के प्रभाव में वृद्धि।
  7. पंजाब में सिक्खों का उत्कर्ष।
  8. ब्रिटिश साम्राज्य के लिये मार्ग प्रशस्त होना।

जन-धन की हानि

जन-धन की हानि हर युद्ध का सबसे बड़ा दुष्परिणाम होता है, धन और जन दोनों की ही भीषण हानि। इसमें दोनों ही पक्षों को यह हानि उठानी पड़ती है। पानीपत के तृतीय युद्ध में भी जन और धन की आपार हानि हुई।

इस युद्ध में लगभग 75,000 मराठे मारे गए। इस युद्ध में मराठों को अनेक शूरवीर, सेनापतियों को खोना पड़ा। उममें से प्रमुख सेनापति थे राव भाऊ, विश्वास राव, जसवन्त सिंह पंवार तथा इब्राहिम आदि। पानीपत का तृतीय युद्ध कब हुआ?

मराठा प्रभुता को आघात

मराठों की राजनीतिक प्रभुत्ता को गहरा आघात : इस युद्ध का एक बहुत बड़ा परिणाम यह निकला कि इस युद्ध के बाद मराठों की प्रभुत्ता को गहरा आघात पहुँचा। मराठों की प्रतिष्ठा को भी गहरा धक्का लगा। इस युद्ध के पश्चात् मराठों की शक्ति क्षीण हो गई।

मराठों को इस युद्ध से पूर्व जो शक्ति और सत्ता प्राप्त थी, वे इस युद्ध में हारने के बाद वैसी शक्ति और प्रभुसत्ता को प्राप्त नहीं कर सके।

मुगल साम्राज्य का विघटन

मराठा शक्ति की अजेयता का खण्डन पानीपत के तृतीय युद्ध का एक अन्य महत्त्वपूर्ण परिणाम यह निकला कि इस युद्ध के पश्चात् मराठों की अजेयता का खण्डन हो गया। इस युद्ध से पूर्व मराठे अजेय माने जाते थे तथा जाट, पठान तथा राजपूत आदि अपनी प्रभुसत्ता को बनाए रखने के लिए इनकी खुशामद किया करते थे तथा सहायता के लिए प्रार्थना करते थे।

उस समय अन्य जातियाँ अपनी प्रभुसत्ता को बनाए रखने के लिए मराठों पर निर्भर रहती थीं, लेकिन इस युद्ध के हारने के पश्चात् मराठों की अजेयता से सम्बन्धित ख्याति समाप्त हो गई और अब भारतीय नरेश मराठों से सैनिक सहायता प्राप्त करना व्यर्थ समझने लगे। अब वे यह सोचने लगे कि जब मराठे पानीपत के युद्ध में हार गए और उनकी सहायता नहीं कर सके, तो वे भविष्य में भी उनकी कोई सहायता नहीं कर सकते।

मुगल साम्राज्य का विघटन

मुगल साम्राज्य का विघटन पानीपत के तृतीय युद्ध के पश्चात् भारत में मुगल साम्राज्य का विघटन शुरू हो गया। इस युद्ध ने इसके विघटन और पतन के मार्ग को खोल दिया था। अब्दाली ने पंजाब, सिन्ध सीमान्त प्रदेश और कश्मीर पर अधिकार करके इन प्रदेशों को मुगल साम्राज्य से अलग कर दिया।

सिक्खों ने पंजाब में अपने अलग छोटे छोटे राज्य स्थापित कर लिए। सिक्खों के साथ-साथ राजपूत और जाट भी धीरे-धीरे मुगलों की प्रभुसत्ता से स्वतन्त्र होने लगे। इस प्रकार मुगल साम्राज्य का लगातार विघटन होता चला गया था।

मराठा संघ की एकता और अखंडता को आघात

मराठा संघ की एकता की समाप्ति पानीपत की हार के पश्चात् मराठा संघ की एकता समाप्त हो गई। इस हार के पश्चात् पेशवा की शक्ति दिन-प्रतिदिन घटती गई और मराठे अपनी एकता को बनाए रखने में असफल रहे मराठा सरकारों पर अब पेशवा का नियन्त्रण नहीं रहा और मराठा सरदार स्वेच्छाचारी होकर मनमाना व्यवहार करने लगे।

अब मराठा सरदार अपने-अपने राज्य में अपना प्रभाव बढ़ाने लगे। मराठा सरदारों ने केन्द्रीय शक्ति के नियन्त्रण से स्वतन्त्र होकर छोटे-छोटे राज्य स्थापित कर लिए। इससे मराठा संघ की एकता समाप्त हो गई।

पेशवा बालाजी बाजीराव का निधन

पेशवा बालाजी बाजीराव की मृत्यु पानीपत की इस पराजय से पेशवा बालाजी बाजीराव को काफी गहरा आघात लगा। इस युद्ध में मराठों की जो जन-धन की अपार हानि हुई, उसे पेशवा सहन नहीं कर सके और सदमे को सहन न कर पाने के कारण उनकी मृत्यु हो गई।

रघुनाथ राव के प्रभाव में वृद्धि पानीपत के तृतीय युद्ध में हुई भीषण जन धन की हानि और श्रेष्ठ सेनापतियों को खो देने के कारण पेशवा की तो सदमें में मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के बाद में रघुनाथ राव ने षड्यन्त्र रचना शुरू कर दिया तथा रघुनाथ राव को अपना प्रभाव बढ़ाने के अच्छा अवसर मिल गया था और उसने अपने प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि करना प्रारम्भ कर दिया।

पंजाब में सिक्खों का उत्कर्ष

पंजाब में सिक्खों का उत्कर्ष : पानीपत के युद्ध ने मराठों और अफगानों की शक्ति को काफी कमजोर कर दिया। इस युद्ध के बाद पंजाब में मराठों का प्रभुत्व समाप्त हो गया और मराठों ने पंजाब पर अपना प्रभाव पुनः स्थापित करने की कोशिश भी नहीं की।

सिक्खों ने इस स्थिति का पूरा-पूरा लाभ उठाया। सिक्खों ने मराठों की कमजोरी का फायदा उठाकर अपनी शक्ति को संगठित किया और पंजाब पर अधिकार करने में सिक्ख सफल हो गए। अब पंजाब पर मराठों के स्थान पर सिक्खों की प्रभुसत्ता स्थापित हो गई।

ब्रिटिश साम्राज्य के लिये मार्ग प्रशस्त होना

भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना के लिए मार्ग प्रशस्त होना: भारत पर पानीपत के तृतीय युद्ध का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम यह था इस युद्ध के पश्चात् मराठों और मुसलमानों की शक्ति समाप्त प्रायः हो गई थी। इस समय भारत में कोई भी शक्तिशाली शक्ति की प्रभुसत्ता नहीं थी।

इसका पूरा-पूरा फायदा अंग्रेजों ने उठाया तथा अंग्रेजों की सत्ता स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त हो गया। यह कहना उचित ही है कि, प्लासी के युद्ध ने अंग्रेजों की शक्ति का जहाँ बीजारोपण किया, तो वहीं पानीपत के युद्ध ने उसे जड़ जमाने और पकने का अवसर दे दिया।

पानीपत का तृतीय युद्ध कब हुआ था के बारे में सारी जानकारी।

मुख्य बिन्दु

  1. 14 जनवरी, 1761 ई. में पानीपत के मैदान में अब्दाली और मराठों के बीच भीषण संग्राम।
  2. अहमदशाह अब्दाली 1748 ई. में गद्दी पर बैठा।
  3. अब्दाली ने 1752 ई. में पुन: पंजाब पर आक्रमण किया।
  4. अधिनावेगम की 13 अक्टूबर, 1758 ई. में मोक्ष प्राप्ति।

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