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पर्वतीय यात्रा पर निबंध? अपनी किसी यात्रा का वर्णन अपने शब्दों में कीजिए?

पर्वतीय यात्रा पर निबंध:- विद्यालय में ग्रीष्मावकाश हो चुके थे। प्रतिवर्ष के समान इस वर्ष भी मैं किसी पर्वतीय स्थान पर जाने का विचार कर रहा था, सौभाग्य से उसी समय मेरा मित्र गिरीशचन्द्र जुयाल आ गया। उसे देखते ही मैंने कहा- ‘मित्र! सोच रहा हूँ, इस बार किसी पर्वतीय स्थान की यात्रा की जाय। क्या तुम मुझे किसी स्थान का परामर्श दे सकते हो?’ वह बोला-मैं आज रात को ही गाँव जा रहा हूँ। तुम भी मेरे साथ चलो। मेरा गाँव गढ़वाल में है। वह भी तो एक पर्वतीय स्थान है। इस बार तुम वहीं क्यों नहीं चलते?’ मैंने कहा- ‘नेकी और पूछ-पूछ’ मैं गिरीश के साथ जाने को यात्रा का प्रारम्भ प्रस्तुत हो गया।

पर्वतीय यात्रा पर निबंध

पर्वतीय यात्रा पर निबंध
Parvatiya Yatra Par Nibandh

यात्रा का प्रारम्भ

मैंने यात्रा के लिए आवश्यक सामान साथ रख लिया और तैयार हो गया। दिल्ली से गढ़वाल जाने के कई मार्ग हैं। इनमें से प्रसिद्ध है-कोटद्वार का मार्ग। रात्रि को हम मंसूरी एक्सप्रेस से चले और अगले दिन प्रातः सात बजे कोटद्वार पहुँच गए। उस दिन वहीं रुककर हमने कण्वाश्रम देखने का विचार किया। प्रातः कृत्य से निवृत्त होकर और कलेवा करके हम कण्वाश्रम पहुँचे। कण्वाश्रम कण्वाश्रम कोटद्वार से कुछ मीर दूर मालिनी नदी के तट पर है।

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जहाँ एक ओर पर्वतीय (पर्वतीय यात्रा पर निबंध) उपत्यकाएँ हैं तो दूसरी ओर समतल भूमि प्रारम्भ होती है। यहीं आस-पास कभी ऋषि कण्व का आश्रम रहा होगा। इसी आश्रम में ऋषि कण्व ने ‘शकुन्तला’ का पालन-पोषण किया था, जो दुष्यन्त की पत्नी और वीर भरत की माँ थी। ‘मालिनीनदी’, ‘शकुन्तला की धार’ और ‘कण्व का डांडा’ इसका प्रमाण आज भी देते हैं। यह स्थान अत्यन्त ही रमणीय है। मालिनी का जल यहाँ कल-कल छल-छल कर बहता है। पास ही पर्वत शिखर पर आम्र-निकुंज है।

घाटी के दोनों कोने अनेकों वृक्षों और लता-पादपों में हरे-भरे हैं। अनेक प्रकार के फूल यहाँ खिले हुए है। यहीं पर ‘कण्वाश्रम-समिति’ ने एक स्मारक बनवाया है और सुन्दर वाटिका लगवाई है। यहाँ ऋषि कण्व और राजा दुष्यन्त ही प्रस्तर निर्मित सुन्दर प्रतिमाएं स्थापित हैं। पास ही पर्वत की गोद से झर-झर करता हुआ एक निर्झर बहता है, और उसके साथ ही केले के पौधे तथा अन्य अनेक प्रकार के पुष्पों के पादप मन को मोहित करते हैं। आश्रम के पास ही मीलों फैला मालिनी वन जन्तु विहार’ है जो अत्यन्त सुन्दर है। यहाँ अनेक प्रकार के वन्य पशु-पक्षी देखे जा सकते हैं। मध्याह्न तक हम वहाँ से लौट आए। अगले दिन हम गिरीश के गाँव पहुँच गए।

गढ़वाल के ग्राम

मेरे मित्र का गाँव द्वारीखाल से आगे चेलूसैंण नामक स्थान के समीप ही है। यहाँ पत्थरों से बने मकान हैं, छतें उनकी तिरछी हैं, ताकि वे वर्षा के पानी को नीचे गिराती रहें। पानी यहाँ प्रायः स्रोतों से या नदियों से कूल (नहर) निकालकर अथवा स्रोतों के पास ही डिग्गी बनाबर प्राप्त किया जाता है। पहाड़ी स्थान होने से यहाँ के खेत सीढ़ीनुमा हैं, लम्बाई-चौड़ाई भी उनकी एक-सी नहीं, तो भी पहाड़ी बैल इन आराम से हल चला लेते हैं। नदियाँ होते हुए भी उनका जल बहुत नीचे होने से खेतों की सिंचाई नहीं हो पाती, अतः सिचाई के लिए वर्षा पर ही निर्भर रहना पड़ता है।

यहाँ के लोग बहुत ही मिलनसार, अतिथि-प्रेमी, परिश्रमी व ईमानदार हैं। यहाँ पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं अधिक काम करती हैं। कूटना, पीसना, खेती की गोडाई व निराई करना, जंगल से घास व लकड़ी लाना, भोजन बनाना और गोशाला की देख-रेख वे ही करती हैं। उनके कठोर परिश्रमी जीवन को देखकर मस्तक अपने आप ही श्रद्धा से उनके सामने नत हो जाता है।

चेलूसैंण

एक दिन गिरीश मुझे ‘चेलूसँण’ नामक स्थान पर ले गया। यह स्थान समुद्र तल से लगभग साढ़े तीन हजार फुट की ऊँचाई पर है। यहाँ थोड़ी-सी दुकानें हैं, साथ ही एक प्राथमिक और उच्च विद्यालय भी है। एक सरकारी अस्पताल और डाकघर भी यहाँ है। यह स्थान अब मोटर मार्ग द्वारा कोटद्वार से जुड़ गया है। एक कृषक सहकारी बैंक भी यहाँ खुल चुका है। दुकानों से आस-पास के गाँवों के लोग अपनी आवश्यकता की वस्तुओं को खरीदते हैं।

प्राकृतिक दृष्टि और स्वास्थ्य लाभ की दृष्टि से यह स्थान अत्यन्त रमणीक ओर श्रेष्ठ है। पूर्व की ओर द्वारीखाल तक, पश्चिम की ओर नागदेव के डांडा तक ओर उत्तर की ओर सिलोगी तक का वातावरण अत्यन्त ही सुन्दर व शान्त है। दूर-दूर तक यहाँ चीड़, बांज, बुरांश और काफल के पेड़ हैं, चारों ओर हरी-भरी घास पर्वत शिखरों की शोभा को बढ़ाती है।

यहाँ विभिन्न प्रकार के पक्षियों का कलरव, तथा रंग-रूप मन को मोह लेते हैं। दिन के समय जब चरवाहे अपने पशुओं को चराते हुए बंशी या अलगोजे पर मधुर तान आलापते हैं, तो उस स्वर को सुनकर हृदय आनन्द-सागर में मग्न हो जाता है। सायं समय घर को लौटते हुए पशुओं-गाय, बैल, भेड़-बकरियों का दृश्य भी मन को मोहित कर लेता है।

बरसात में जब बादल घिर आते हैं तो वातावरण अधिक सुन्दर हो जाता है। यहाँ की जलवायु भी अति उत्तम और स्वास्थ्यवर्द्धक है। यहाँ से पर्वतराज हिमालय के हिममंडित शिखर सूर्य की किरणों से चमकते दिखाई देते हैं। चेलूसँण के चारों ओर प्रकृति के अखंड साम्राज्य के दर्शन से मैं तो विभोर हो गया। यह स्थल पर्यटन केन्द्र बनने के लिए अति ही उपयुक्त है।

उपसंहार

वापिस लौटते समय हमने ‘जयहरी खाल’ और ‘लैन्सडौन’ नामक स्थान भी देखे। जयहरीखाल भी एक सुन्दर स्थान है। यहाँ चारों ओर बॉज, बुरांश व चीड़ के पेड़ हैं। वातावरण शांत है। यहाँ एक कॉलेज और प्रशिक्षण विद्यालय भी है। लैन्सडौन गढ़वाल की छवनी तथा तहसील का मुख्यालय है। ये दोनों स्थान ठंडे हैं, पर पानी की दोनों जगह कुछ कमी है।

लगभग एक मास गढ़वाद के प्रवास के बाद हम दिल्ली आ गए। आज भी उस अविस्मरणीय यात्रा की सुखद स्मृति और वहाँ की प्रकृति की सुन्दर छटा मेरे हृदय में अंकित है। जो बार-बार मन को प्रफुल्लित करती रहती है।

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