पेप्टिक अल्सर किसे कहते हैं, कारण, लक्षण, डाइट, योग चिकित्सा, और पेप्टिक अल्सर के प्रकार के बारे में जानेंगे। आमाशय में लम्बे समय तक बारम्बार जलन होने पर तथा अति अम्लीयता होने पर यह (Peptic Ulcer) रोग पनपता है। यह एक ऐसे घाव का नाम है जो ईसोफ्रेगस के निचले छोर, आमाशय भित्ति अथवा पाइलोरिक कपाट के पास ग्रसनी (डयूडिनम) के ऊपरी भाग में किसी भी स्थान पर हो सकता है। इस रोग से पीड़ित व्यक्ति सामान्यत: अपचन अथवा पेट में बराबर दर्द होने की शिकायत करता है। इस रोग की पहचान करना कठिन है क्योंकि इसके भी लक्षण अपचन के लक्षणों के समान होते हैं। फिर भी, बेरियम का घोल पिलाकर फाइबर अप्टिक गैस्ट्रोस्कोप के माध्यम से इसे पहचाना जा सकता है।
पेप्टिक अल्सर किसे कहते हैं, कारण, लक्षण, डाइट, योग चिकित्सा, और पेप्टिक अल्सर के प्रकार

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पेप्टिक अल्सर के प्रकार
चिकित्सा विज्ञान के अनुसार पेप्टिक अल्सर दो प्रकार का होता है
1. गैस्ट्रिक अल्सर (आमाशय का घाव)
इस प्रकार के रोग में रोगी की छाती के मध्य तीव्र पीड़ा अथवा काटता हुआ-सा दर्द भोजन करने के तुरन्त बाद उठता है। पेट के ऊपरी भाग को दबाने से भी दर्द महसूस होता है। कभी-कभी घाव से रक्त बहने लगता है जिसके कारण रोगी को खून की उल्टी भी हो सकती है। भोजन से उठने वाले दर्द के कारण रोगी की भूख समाप्त हो जाती है और शरीर का वजन घटने लगता है। यह समस्या बार-बार होने वाले दीर्घकालीन गैस्ट्राइटिस के बाद उत्पन्न होती है।
गरिष्ठ मसालेदार भोजन, शराब और धूम्रपान आदि का सेवन रोग की स्थिति को और गम्भीर कर देता है। दूध, सादा एवं सुपाच्य भोजन उपवास आदि से रोगी को राहत महसूस होती है। आमाशय में घाव (गैस्ट्रिक अल्सर) अधिकांशत: उन लोगों में अधिक होते हैं जिनके जीवन में उतार-चढ़ाव कुछ ज्यादा ही होते हैं जो तनावपूर्ण परिस्थितियों के कारण होते हैं। ऐसे लोगों के बर्दाश्त करने की क्षमता क्षीण हो जाती है। फलस्वरूप, घबराकर उससे बचने के लिए शराब एवं धूम्रपान का सहारा ले लेते हैं जो हानिकारक ही सिद्ध होता है। अल्सर पीड़ित व्यक्ति सफलता-असफलता, तनावयुक्त कार्यक्षेत्र, बीमारी आदि चिन्ताओं का पुतला होता है। यह चिन्ता ही उसे चिता के समान जलाती रहती है।
2. ड्यूडेनल अल्सर (ग्रसनी का घाव)
ग्रसनी (ड्यूडिनम) उसे कहते हैं, जहाँ छोटी आँत के बिल्कुल प्रारम्भिक भाग में आमाशय से सारा रस-रसायन निहित भोजन का घोल पाइलोरिक वाल्व (पेप्टिक अल्सर किसे कहते हैं) से होकर पहुँचता है उस भाग की भित्ति में घाव हो जाने से यह रोग पैदा एवं बढ़ है। उक्त घाव से उत्पन्न पीड़ा का अनुभव पेट के बीच गहराई में महसूस होता है। यह पीड़ा खाली पेट होने पर और ज्यादा महसूस होती है।
इस पीड़ा को कम करने के लिए रोगी कुछ न कुछ खाता ही रहता है अतः स्वाभाविक ही उसका वजन बढ़ जाता है। रात भर सो लेने के बाद सवेरे उठने पर उसका पेट खाली हो जाता है और उसको पीड़ा होने लगती है। प्रातः दूध पी लेने से आराम मिलता है क्योंकि दूध अम्ल को तो शान्त करता ही है, साथ ही, ग्रसनी की भित्ति पर भी शीतल प्रभाव डालता है।
अल्सर का कारण
वस्तुतः चिन्ता ही इस रोग का मूल कारण है। पेट की भीतरी त्वचा हमारी भावनात्मक परिस्थितियों के प्रति अति सम्वेदनशील होती है। जब कोई भय या खतरे की स्थिति उत्पन्न हो जाती है तो यह त्वचा पीली पड़ जाती है किन्तु जब कोई क्रोध की स्थिति होती है तो वह त्वचा लाल हो जाती है।
इस प्रकार चिन्तामय, क्रोध एवं कुण्ठा आदि से ग्रसित व्यक्ति के मस्तिष्क कि नाड़ी केन्द्र उत्तेजित होते रहते हैं। यह सब आवेग आदि आमाशय की भित्ति तक पहुँचकर उसमें अम्ल का क्षरण बढ़ाकर आमाशय की क्रियाशीलता में वृद्धि कर देते हैं जिससे उसमें ऐंठन उत्पन्न हो जाती है। पेट भरा है अथवा खाली है, इस बात का कुछ भी असर पड़े, यह प्रक्रिया दिन-रात चलती रहती है।
उक्त कारणों के अतिरिक्त धूम्रपान, मद्यपान एवं गरिष्ठ भोजन द्वारा भी Oralstimulation की को बल मिलता है जो तंत्रिकाओं में आवेग की वृद्धि करती है। फलस्वरूप, बार-बार अपचन तथा आमाशय की भित्ति में क्षोभ एवं सूजन उत्पन्न होती रहती है। जैसे ही अति तीव्र अम्लयुक्त जठर रस अर्थात् हाइड्रोक्लोरिक अम्ल तथा पेप्सिन इस सूजी एवं रुग्ण पेट की त्वचा के सम्पर्क में आता है तो संक्षारक प्रक्रिया से छाले बन जाते हैं तब पीड़ा एवं जलन अनुभव होने लगती है। अंत में अम्ल की तीव्र संक्षारण-प्रक्रिया एवं पेट के अन्दर की रुग्ण भित्ति की घटी प्रतिरोधक क्षमता दोनों मिलकर भित्ति के माँस और त्वचा को गलाकर घाव उत्पन्न कर देते हैं।
एक बार अल्सर हो जाने पर अम्ल की क्षारक प्रक्रिया से घाव बार-बार हरा होता रहता है अतः ठीक नहीं हो पाता। रोगी अपने अनसुलझे मानसिक द्वन्द्वों, भावनात्मक, तनाव एवं उत्तेजना को व अर्थहीन लतों (शराब, धूम्रपान आदि) एवं भोजन की गलत आदतों में बदलाव न लाकर अपने पेट के अम्ल से अपने ही पेट को स्वयं गलाये रहता है। रोगी वस्तुतः स्वयं अपने आप को खाता रहता है।
अल्सर के दर्द का कारण
आमाशय की भित्ति में पेप्टिक अल्सर (पेप्टिक अल्सर किसे कहते हैं) का घाव एक छोटे से गड्ढे की तरह होता है। इसके तल में त्वचा से ढकी सम्वेदी तंत्रिकाऐं खुले तारों की तरह बिछी होती हैं। जब उनके ऊपर की त्वचा का आवरण क्षीण हो जाता है। अत: जब अम्ल उसे अम्ल रस के गड्ढे में पहुँचकर उन सम्वेदी तंत्रिकाओं को छूता है, तब उनमें दर्द एवं जलन की अनुभूति होती है।
अल्सर की घातक सम्भावित जटिलताऐं
इस रोग के फैलते जाने के कारण दो जटिलताऐं मुख्य रूप से उत्पन्न हो सकती है-
- पेट का फटना (Perforation) – जब घाव का गड्ढा गहरा होते-होते आमाशय की भित्ति के पार तक हो जाता है तब पेट का अम्ल एवं भोज्य पदार्थ पेरिटोनियल गुहा में प्रवेश कर फैल जाते हैं, तब पेट के फटने की सम्भावना उत्पन्न हो जाती है।
- रक्तस्राव (Haemorhage ) – यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब अल्सर का घाव किसी बड़ी रक्तवाहिनी में छेद कर देता है तो फलस्वरूप थोड़ी देर में उस फटी हुई रक्तनलिका से रक्त की काफी मात्रा निकल जाती है।
अल्सर का उपचार
यह एक वास्तविकता है कि ऐंटीसिड प्रधान ऐलोपैथी की दवाऐं इस रोग में क्षणिक लाभ ही देती है। पुरानी जीवनचर्या में वापस लौटते ही रोग पुनः जकड़ लेता है। इसी कारण से अनेक चिकित्सकों को अल्सर शल्य क्रिया द्वारा आमाशय की रोग ग्रस्त भाग निकालकर फेंकना ही पड़ता है। इस प्रक्रिया में शल्य चिकित्सा पैरासिम्पेथिक तंत्रिकाओं को और आमाशय के रोगग्रस्त भाग को काटकर बाहर निकाल देता है मगर फिर भी कई बार अल्सर पुनः हो जाता है।
अल्सर का यौगिक उपचार
आजकल जो चिकित्सक योग को अपनी चिकित्सा का एक अंग मानने लगे हैं उनका कहना है कि औषधियों के साथ योगाभ्यास अल्सर के घाव को पूर्णतः स्वस्थ करने का सर्वोत्तम उपाय है। क्योंकि यह अकर्मण्य बना देने वाली चिन्ताओं एवं समस्याओं को आसानी से सुलझा सकता है, पुराने व्यसनों से मुक्ति दिला सकता है, आजकल के दबावों एवं रोगों के बीच रहकर भी अधिक सन्तुलित जीवन यापन का मार्ग प्रशस्त कर सकती है।
अब यह धारणा अधिकांश प्रबुद्ध वर्ग के व्यक्तियों की बुद्धि में बैठती जा रही है कि औषधि चिकित्सा के साथ योगाभ्यास का समन्वय अल्सर पीड़ित व्यक्तियों के जीवन में अनुकूल एवं वांछित परिवर्तन ला सकता है जो रोग को जड़ से समाप्त कर उसके पुनः होने की अथवा शल्य क्रिया की आवश्यकता की संभावना को समूल नष्ट कर सकता है । पूर्णरूपेण विश्राम एवं वातावरण परिवर्तन एवं अपनी बुरी आदतों में यौगिक उपचार की मूलभूत आवश्यकता है।
आसन
औषधीय चिकित्सा के लगभग दो सप्ताह बाद जब घाव भर जाये और दर्द बन्द हो जाये तो सरलता से किये जा सकने वाले योगासनों का अभ्यास आनन्दपूर्वक ढंग से शुरू करना चाहिये।
- शिथिलीकरण शवासन
- पवन मुक्तासन भाग-1 एवं 2-प्रतिदिन दो हफ्ते तक
- सूर्य नमस्कार – अपनी क्षमतानुसार अगले दो हफ्ते तक
प्राणायाम
- भ्रामरी प्राणायाम
- नाड़ीशोधन प्राणायाम इन प्राणायामों को प्रतिदिन बिना जोर लगायें करें। इससे शक्ति प्राप्त होगी
भोजन / आहार
किसी भी रोग के निवारण में भोजन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अतः इस रोग से पीड़ित व्यक्ति को प्रारम्भ में फल एवं ठण्डे दूध का सेवन सर्वोत्तम माना जाता है, इसके सेवन से घाव शीघ्र भर जाते हैं। उबली सब्जियों का सूप तथा खिचड़ी तथा अन्य हल्के एवं सात्विक पदार्थों का सेवन उपयोगी होगा।
इस बात को अनिवार्य रूप से ध्यान में रखा जाना चाहिये कि किसी भी कीमत पर तले, मसालेदार गरिष्ठ भोजन, धूम्रपान एवं शराब आदि नशीले पदार्थों का सेवन भूलकर भी न किया जाये। अन्यथा, यह स्वयं ही अपनी चिता बनाने के समान होगा। उपर्युक्त सभी आदेशों-निर्देशों का पालन दैनिक जीवन में करने से रोगी को लाभ अवश्य ही प्राप्त होगा। निरन्तरता भी उपचार की प्रथम एवं अनिवार्य शर्त है।
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