प्रफुल्ल चंद्र राय बायोग्राफी? प्रफुल्ल चंद्र राय के प्रमुख खोज?

प्रफुल्ल चंद्र राय बायोग्राफी, प्रसिद्ध रसायनिज्ञ डॉ. प्रफुल्ल चंद्र राय के नाम से भला कौन अपरिचित होगा ? उनका जन्म 2 अगस्त, 1861 ई. को रड़ौली नामक गाँव में हुआ। यह गाँव उन दिनों अपने क्षेत्र के निवासियों के कारण काफी प्रसिद्ध था। राजा सीताराम राय भी इसी गाँव के रहने वाले थे।

प्रफुल्ल चंद्र राय बायोग्राफी (Dr. Prafulla Chandra Ray Biography)

प्रफुल्ल-चंद्र-राय-बायोग्राफी

Prafulla Chandra Ray Biography in Hindi

प्रफुल्ल के पिता का नाम था ‘हरीशचंद्र राय’। वे अरबी, फारसी व अंग्रेजी भाषा में पढ़ा चुके थे। पुत्र ने पिता की ही प्रारंभिक पाठशाला में अक्षर ज्ञान प्राप्त किया। प्रारंभिक शिक्षा की समाप्ति के पश्चात् प्रफुल्ल को कलकत्ता के सुप्रसिद्ध स्कूल में भर्ती करा दिया गया।

गाँव का सीधा-साधा देहाती-सा लड़का सभी शहरी लड़कों से बेमेल-सा जान पड़ता था। कक्षा के लड़के प्रायः उसे ‘देहाती कह कर चिढ़ाते। इससे प्रफुल्ल को लाभ भी हुआ। उसने सभी से अलग-थलग रहना शुरू कर दिया और उसने इस समय का सदुपयोग करते हुए अनेक विषयों की पुस्तकें पढ़नी आरंभ कर दीं। पिता के पुस्तकालय में पुस्तकों का अभाव न था।

डॉ. प्रफुल्ल चंद्र राय के द्वारा किये गये आविष्कार एवं खोजें

S. No आविष्कार एवं खोजें
1.मरक्यूरस नाइट्रेट व अमोनिया नाइट्रेट यौगिकों पर मौलिक अनुसंधान
2.फॉसफेट ऑफ कैल्शियम’ नामक रसायनिक तत्व का निर्माण

यद्यपि प्रफुल्ल की आयु अधिक न थी किन्तु उसने विदेशी लेखकों की अनेक महान कृतियाँ पढ़ लीं। पिता के पुस्तक भण्डार में उसे जीवनी-चरित्र विशेष रूप से प्रिय थे। उसने पाया कि सभी महापुरुषों का जीवन साधारण व्यक्ति की भांति सहज न था। उन्होंने बालपन में बहुत सी मुसीबतों का सामना करने के पश्चात् ही अपने लक्ष्य को पाया था।

प्रफुल्ल के हाथ एक ऐसी पुस्तक लगी जिसमें अनेक महापुरुषों की जीवनियाँ थीं परंतु यह जान कर उसके आश्चर्य की सीमा न रही कि इतने विदेशी महापुरुषों की सूची में केवल एक ही भारतीय महापुरुष का नाम था राजा राम मोहन राय, तो क्या भारत में सभी साधारण मानुष हैं? यह विचार कई दिन तक प्रफुल्ल के मस्तिष्क में कौंधता रहा।

और इसी प्रश्न ने प्रफुल्ल को अपने जीवन में कुछ विशेष करने की प्रेरणा प्रदान की। बेंजामिन फ्रेंकलिन के जीवन चरित्र ने भी प्रफुल्ल को बहुत प्रभावित किया। वे यह जान कर आश्चर्यचकित हो उठे कि बिजली का आविष्कार करने वाले बेंजामिन के पास पुस्तक खरीदने तक को पैसे नहीं होते थे। वे एक पुस्तक विक्रेता से पुस्तकें उधार लेकर रात-रात भर पढ़ते और अगले दिन सुबह उन्हें लौटा देते।

इस जीवनी साहित्य के अध्ययन से प्रफुल्ल ने यह जान लिया कि महान व्यक्तित्व मुँह में चाँदी का चम्मच थामे जन्म नहीं लेते। परिश्रम, लगन, बुद्धि और अध्ययन के बल पर साधारण सा मनुष्य भी संसार में यश का भागी बन सकता है।

प्रफुल्ल ने मन-ही-मन संकल्प किया “मैं भी इन महान व्यक्तियों की भांति ऐसा कार्य करूँगा जिससे संसार में मेरा व मेरे देश का नाम प्रसिद्धि पाए।” संकल्प दृढ़ हो तथा परिश्रमी स्वभाव हो तो संकल्प पूर्ण अवश्य होता है। प्रफुल्ल ने भी एक दिन अपनी प्रतिज्ञा को सत्य कर दिखाया।

इन्हीं दिनों वे बुरी तरह बीमार पड़ गए। पेचिश के रोग ने उनके शरीर को जर्जर बना दिया। चिकित्सकों के परामर्शानुसार उन्हें लगभग सात माह तक आराम करना था। प्रफुल्ल ने इस सात महीनों के एक-एक क्षण का सदुपयोग किया।

उनका कक्ष विभिन्न लेखकों की पुस्तकों से अटा रहता। बंगाल में उन दिनों भांति-भांति के पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित होते थे। इन पत्रिकाओं के अध्ययन से प्रफुल्ल ने तत्कालीन समाज की जानकारी प्राप्त की और इतिहास की पुस्तकों से भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों को टटोला। बालक की जिज्ञासा दिन-ब-दिन बढ़ती ही जाती थी।

उन्होंने संस्कृत व्याकरण की सहायता से संस्कृत का प्रारंभिक ज्ञान प्राप्त कर लिया। शायद अन्य परिवारजन जानते भी नहीं थे कि प्रफुल्ल अपने अध्ययन-मनन में किस कदर खोए रहते थे। एक दिन उनके बड़े भईया किसी कबाड़ी की दुकान से लैटिन भाषा की पुस्तक खरीद लाए।

किसी उत्सुक छात्र की भांति प्रफुल्ल ने वह किताब भी हथिया ली और चोरी-चोरी लैटिन भाषा भी सीख ली। परिणामतः जब वह स्कूल में पहुँचे तो उन्हें परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ। स्कूल से हुई अनुपस्थिति में प्रफुल्ल ने दुगनी-तिगुनी पढ़ाई कर डाली थी।

ऐंट्रेंस की परीक्षा के पश्चात् प्रफुल्ल का नाम ‘मैट्रोपोलिटन इंस्टीट्यूट’ में लिखवाया, जिसे अब विद्यासागर कॉलेज के नाम से जाना जाता है। उन्होंने रसायन विज्ञान को अपने अध्ययन का विषय चुना।

रसायन विज्ञान में प्रफुल्ल की रुचि बढ़ने लगी। उन्हें कॉलेज में कराई जाने वाली पढ़ाई से संतुष्टि नहीं मिल पाती थी। अतः उन्होंने भौतिक व रसायन शास्त्र के लेक्चर सुनने के लिए प्रेसीडेंसी कॉलेज जाना आरंभ कर दिया। केवल रसायन विज्ञान ही उनके अध्ययन का प्रिय विषय नहीं था, संस्कृत साहित्य भी उनके कक्ष की शोभा बढ़ाता। खाली समय पाते ही वे संस्कृत साहित्य के संसार खो जाते।

जब प्रफुल्ल ने छात्रावास में रहना शुरू किया तो उन्होंने अपने कमरे में ही एक छोटी-सी प्रयोगशाला भी स्थापित कर ली। इस प्रयोगशाला में वे मनमाने प्रयोग करते हालांकि उनकी आर्थिक इतनी सुदृढ़ न थी पर इससे उनके उत्साह में कोई कमी नहीं आई।

उत्साही व परिश्रमी प्रफुल्ल ने भीतर ही भीतर अखिल भारतीय गिल क्राइस्ट स्कालरशिप प्रतियोगिता की तैयारी कर ली। और परीक्षा दे दी। वे तत्पश्चात् इस विषय में भूल भी गए परंतु जब एक दिन समाचारपत्र में उनकी सफलता का विवरण छपा तो वे हतप्रभ हो उठे। उन्हें उच्च शिक्षा के लिए यूरोप जाने का अवसर भी दिया जा रहा था। कहते हैं कि अवसर हाथ आए तो उसे गंवाना नहीं चाहिए। प्रफुल्ल ने भी पत्र द्वारा माता-पिता को इस विषय में सूचित किया।

पत्र पाते ही माता-पिता भी अपने होनहार पुत्र की उपलब्धि पर गर्वित हो उठे। विदेश यात्रा के लिए धन की आवश्यकता थी। पिता ने यत्र-तत्र से प्रबंध द्वारा विदेश जाने का व्यय तो जुटा दिया किन्तु प्रफुल्ल भली-भांति जानते थे कि इस कार्य में उन्हें कितनी कठिनाई हुई होगी।

उन्होंने माता-पिता को आश्वस्त किया कि वे अपनी शिक्षा पूर्ण होते ही घर की गिरती दशा को संभाल लेंगे। माता-पिता के आशीर्वाद व स्नेहीजन की शुभकामनाएँ लेकर प्रफुल्त विदेश के लिए रवाना हुए। इंग्लैंड में उन्होंने एडिनबरा विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। चोगा व अचकन पहने रसायन शास्त्र के इस छात्र ने शीघ्र ही अपने प्रोफेसरों का मन मोह लिया।

प्रफुल्ल ने अनुभव किया कि जर्मन भाषा में लिखी गई पुस्तकों के अध्ययन से उन्हें सहायता मिलेगी। अतः उन्होंने शीघ्र ही जर्मन भाषा भी सीख ली। उन्हीं दिनों उनकी भेंट जगदीश चंद्र बसु से हुई जो लंदन में अध्ययनरत वैज्ञानिक थे।

एडिनबरा विश्वविद्यालय में प्रफुल्ल ने शानदार अंकों से बी०एस०सी० की परीक्षा उत्तीर्ण की। तत्पश्चात् उन्होंने शोधकार्य भी आरंभ किया। उनके शोध का विषय था ‘कच्ची धातु का विश्लेषण’ । वैज्ञानिक प्रफुल्ल चंद्र विदेश में भी अपने देश प्रेम के भावों को छिपा नहीं पाते थे।

विदेश प्रवास के दौरान उन्होंने कभी भारत के गुणगान का अवसर हाथ से जाने नहीं दिया। उन्होंने विदेशियों को भारत की असली हालत से अवगत करवाया। एडिनबरा में उन्होंने अनेक छात्रवृत्तियाँ प्राप्त कीं। इन छात्रवृत्तियों से उन्हें अध्ययन व उच्च शिक्षा की सुविधा तो मिली ही, साथ ही सम्मान भी प्राप्त हुआ।

सन् 1888 में वे भारत लौटे। अगले ही वर्ष कलकत्ता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में उनकी नियुक्ति सहायक प्रोफेसर के पद पर हुई। इस अध्यापन कार्य के साथ-साथ वे मौलिक शोधकार्य में भी जुटे रहे। प्रफुल्ल चंद्र ने एक अध्यापक के रूप में भी सुनाम पाया। उनके छात्र उनके द्वारा पाई गई प्रेरणा के फलस्वरूप अपनी प्रतिभा का उचित आकलन कर पाते थे।

उन्होंने मरक्यूरस नाइट्रेट व अमोनिया नाइट्रेट यौगिकों पर मौलिक अनुसंधान किए। इस प्रकार उनकी खोजों ने विश्व भर में ख्याति पाई प्रफुल्ल चंद्र भारतीय रसायन विज्ञान के विषय में भी अच्छी जानकारी रखते थे। प्रफुल्ल चंद्र राय बायोग्राफी

उन्होंने भारतीय रसायनवेत्ता नागार्जुन के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘रसेंद्र-सार-संग्रह’ के विषय में एक लेख लिखा। इस लेख को विदेशी विद्वानों ने भी सराहा। सबके आग्रह व अपनी रूचि को ध्यान में रखते हुए भारतीय रसायन शास्त्र का गहन अध्ययन किया और वर्षों के परिश्रम के पश्चात् एक पुस्तक लिखी “हिन्दू रसायन शास्त्र का इतिहास” (The history of Indian – Hindu Chemistry)।

डॉ. प्रफुल्ल चंद्र ने तत्कालीन बाजार का निरीक्षण करने के पश्चात् निष्कर्ष निकाला कि अतिआवश्यक औषधियों के लिए भारत को विदेशों का मुँह ताकना पड़ता था। काफी सोच-विचार के पश्चात् उन्होंने औषध निर्माण का मन बना लिया। प्रफुल्ल चंद्र राय बायोग्राफी

उनका यह कार्य छोटी-सी प्रयोगशाला में थोड़ी-सी पूंजी के साथ आरंभ हुआ जिसके विकसित रूप को “बंगाल कैमिकल्स एंड फार्मेस्युटिकल वर्क्स” कहा गया। घर में बनी इस प्रयोगशाला में उन्होंने रसायनिक तत्व “फॉसफेट ऑफ कैल्शियम” का निर्माण किया। दिमागी ताकत बढ़ाने वाले इस तत्व को पशुओं की हड्डियाँ जला कर प्राप्त किया गया था।

अपने लक्ष्य के प्रति उनका समर्पण भाव इतना गहरा था कि इसकी प्राप्ति हेतु उन्होंने अविवाहित रहने का निश्चय किया। संभवतः उनकी लोक कल्याणकारी प्रवृत्ति निजी स्वार्थ को देशहित से नीचा मानती थी। उन्होंने अतुल धन कमाया परंतु इस धनराशि को सदैव दूसरों के लिए व्यय कर देना उनकी स्वभावगत विशेषता रही।

जब-जब समाज को उनकी आवश्यकता पड़ी, वे पूरे तन-मन-धन के साथ सेवा में जुटे । बाढ़ पीड़ितों की व्यवस्था हो अथवा अकाल का प्रकोप डॉ. प्रफुल्ल सदा आगे रहते। उन दिनों वे अपने शोधकार्य भी स्थगित कर देते थे। वे पीड़ितों के लिए सहायता शिविरों का आयोजन करते और व दीन-हीन भारतीयों के कष्टों का निवारण करने की चेष्टा करते।

अपनी आयु के साठ वर्ष पूर्ण होने पर उन्होंने अपने वेतन की राशि छात्रवृत्तियों के लिए दान कर दी। भारत के अनेक विश्वविद्यालयों ने उन्हें उपाधियों से सम्मानित किया। डॉ. प्रफुल्ल न केवल एक वैज्ञानिक अपितु एक सहृदय मनुष्य, प्रबुद्ध व्यक्तित्व व संस्कृति के प्रबल समर्थक भी थे। उन्होंने अपनी एक आत्मकथा भी लिखी।

जिसका शीर्षक था The life an Experiences of a Bengali Chemist (एक बंगाली रसायनवेत्ता का जीवन और अनुभव) डॉ. राय समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति होने के बावजूद धन का आडंबर रचने वाले सामंतवादी समाज से दूर ही रहना पसंद करते थे। आजीवन वे अपने कार्यों व वचनों द्वारा समाज के नवयुवकों को कुछ नया व कल्याणकारी करने की प्रेरणा देते रहे।

संभवतः वे एक ऐसे वैज्ञानिक थे जिनकी जीवन के अन्य पहलुओं पर भी गहरी पकड़ थी। सन् 1944 में उनका निधन हो गया। यद्यपि वे हमारे बीच नहीं रहे परंतु आज भी उन्हें आधुनिक भारतीय रसायन विज्ञान के जन्मदाता के रूप में स्मरण किया जाता है। प्रफुल्ल चंद्र राय बायोग्राफी

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