शिक्षा का निजीकरण पर निबंध:- सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से जुड़े विभिन्न क्षेत्रों में आई निजीकरण (Privatization of Education Essay in Hindi) की बाढ़ से शिक्षा का क्षेत्र भी अछूता नहीं रह गया है। अन्य क्षेत्रों में निजीकरण के प्रभाव को देखते हुए यह माना जा रहा है कि इस प्रयोग से शिक्षा के क्षेत्र में गुणवत्ता में वृद्धि होगी और उच्च शिक्षा के लिए अन्य देशों की ओर भारतीयों के पलायन पर रोक लगेगी।
शिक्षा का निजीकरण पर निबंध

रूपरेखा
- निजीकरण के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए उसकी आवश्यकताओं को इंगित करना है।
- शिक्षा जैसे क्षेत्र में निजीकरण की आवश्यकता क्यों पड़ी। क्या राज्य अपनी दायित्व पूर्ति में असफल रहे या फिर इच्छाशक्ति की कमी रही, विस्तारपूर्वक वर्णन।
- निजीकरण के लाभ और उससे होने वाली हानियों का वर्णन /निजी क्षेत्र के शिक्षा में व्यापार प्रसार के पीछे उनके क्या स्वार्थ हैं और उससे समाज के किस वर्ग को लाभ मिल रहा है, विशद विवेचन।
- यदि निजीकरण करना ही है, तो उसकी क्या सीमा होनी चाहिए?
- उच्च शिक्षा में निजीकरण की जरूरत और उसके लाभ-हानि पर अलग से विचार करना अपेक्षित है।
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स्वतंत्रता के बाद शिक्षा के विकास एवं विस्तार का भार राज्य पर बढ़ा है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 41 के अनुसार, सरकार अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार जनता के शिक्षा संबंधी अधिकारों को पुष्ट करेगी। सामाजिक विकास एवं आर्थिक क्षमता में लगातार वृद्धि के मद्देनजर सरकार के लिए 14 वर्ष से कम आयु के बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए पर्याप्त धनराशि उपलब्ध कराना अपरिहार्य हो जाता है।
साथ ही नागरिकों की उच्च शिक्षा के लिए भी उसे व्यवस्था करनी पड़ती है, जिससे वे एक सम्मानजनक जीवनयापन कर सकें। इन सबके साथ, एक और बात महत्वपूर्ण है कि सरकार को सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से पिछड़े लोगों को शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध कराने के लिए विशेष रूप से सचेष्ट रहना पड़ता है।
सरकार ने ग्रामीण क्षेत्रों में साक्षरता- विद्यालय खोले हैं, प्राथमिक, माध्यमिक एवं उच्चतर विद्यालयों का संचालन उसके द्वारा होता है और महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालय के द्वारा उच्च शिक्षा का प्रबंध भी वही करती है। परन्तु धीरे-धीरे इन संस्थाओं के वित्त पोषण में अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ पैदा हो रही है।
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1966 में राष्ट्रीय शिक्षा आयोग ने 1986 तक सकल राष्ट्रीय आय का 6 प्रतिशत प्रतिवर्ष शिक्षा पर व्यय करने की सिफारिश की थी। परन्तु, सकल राष्ट्रीय आय में वास्तविक विकास दर 1965-66 से 1985-86 तक मात्र 3.97 प्रतिशत प्रतिवर्ष की सीमा ही छू सकी। संसाधनों की ऐसी किल्लत में विभिन्न क्षेत्रों में राशि आवंटन ने अच्छी-खासी प्रतियोगिता जैसी स्थिति उत्पन्न कर दी और उसमें शिक्षा प्राथमिकता सूची में अत्यंत नीचे आ गई।
सरकार अब बहुत लम्बे समय तक इस ‘बोझ’ को दो पाने में अपने को असमर्थ महसूस करने लगी, इसलिए अब शिक्षा का निजीकरण ही इसका एकमात्र निदान बताया व समझा जा रहा है। पूरी दुनिया में ज्ञान का विस्तार बहुत तेजी से हो रहा है और इसका संग्रह विकास की प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण अंग बन गया है। आज की परिस्थिति में शिक्षा अब स्वयं एक उत्पाद बन गई है, जो कि मानव संसाधन विकास के लिए अनिवार्य है।
निजी क्षेत्र, जिसका ज्ञान का महत्वपूर्ण योगदान है, भी शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय भूमिका निभा सकता है। विशेषकर तकनीकी क्रांति के बाद इसकी संभावनाएं और भी बढ़ गयी है। संचार इलेक्ट्रॉनिक कम्प्यूटर आदि क्षेत्रों में हुए तकनीकी विकास के लिए एक सुशिक्षित एवं प्रभावी रूप से प्रशिक्षित मानव संसाधन की आवश्यकता है, जिसकी आपूर्ति मात्र सार्वजनिक क्षेत्र की शिक्षण संस्थाओं से संभव नहीं।
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निजीकरण की आवश्यकता इसलिए भी महसूस की जा रही हैं कि वर्षों से राज्य प्रायोजित शिक्षा ने इस क्षेत्र को लगभग ‘जनसेवा’ में तब्दील कर दिया है और विशेषकर इसके प्रत्यक्ष लाभान्वितों (छात्रों) ने इसके महत्व को बहुत वरीयता नहीं दी है। अतः यदि शिक्षा देने के बदले उसकी सम्पूर्ण कीमत या आशिक कीमत. शिक्षा शुल्क आदि के रूप में वसूल की जाती है, तो एक तो छात्र इसके महत्व को समझेंगे, दूसरे इसे गंभीरता से लेंगे, जिससे उनकी और शिक्षा दोनों की गुणवत्ता बढ़ेगी। शिक्षा का निजीकरण पर निबंध
निजीकरण का लक्ष्य ऐसे विद्यालयों, महाविद्यालयों पॉलिटेक्निक एवं व्यवसायिक संस्थाओं की स्थापना है, जो शिक्षा की कुल लागत वसूल करेंगे। इससे जहाँ एक ओर सरकार के अनुदानों में कमी आएगी और सरकार का घाटे का बोझ कम होगा, वहीं दूसरी ओर ऐसी संस्थाओं को पर्याप्त छूट होगी कि वे योग्य शिक्षकों को बेहतर वेतनमान पर भर्ती कर सकें। निजीकरण की इस प्रक्रिया में उन कॉरपोरेट क्षेत्रों से भी अधिक सहयोग की अपेक्षा की जा सकती है. जो इस प्रकार की संस्थाओं से शिक्षा प्राप्त लोगों की सेवाएं प्राप्त करते हैं।
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विद्यालय एवं महाविद्यालय स्तर की शिक्षा में सरकार की व्यापक गतिविधियों के बावजूद निजीकरण मुख्यतः विद्यालय स्तर पर ही हो रहा है। निजी विद्यालय जो निजी क्षेत्रों द्वारा पूर्णतः व्यावसायिक आधार पर चलाए जाते हैं. बड़े विडंबनापूर्ण ढंग से पब्लिक स्कूल’ कहे जाते हैं और इनमें संपूर्ण शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से दी जाती है।
निजी क्षेत्र की इन गतिविधियों में धार्मिक संस्थाएं एवं न्यास भी संलग्न हैं, जिन्हें किसी प्रकार का सरकारी अनुदान नहीं मिलता, जैसे- डी.ए.वी. प्रबंधन, सनातन धर्म फाउण्डेशन आदि। परन्तु उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कई संस्थाएं निजी क्षेत्रों द्वारा स्थापित हैं, किन्तु उन्हें पर्याप्त सरकारी एवं गैर-सरकारी अनुदान मिलते हैं। वर्ष 1991 में देश में उदारीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ होने से उच्च शिक्षा पर इसका सीधा प्रभाव परिलक्षित होने लगा।
विश्व बैंक के सुझावों के अनुरूप विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा उच्च शिक्षा के बजट में 35 प्रतिशत कटौती कर दी गयी और विश्वविद्यालयों को निर्देश जारी कर दिये गये कि वे अपने पैरों पर खड़े हों और अपने संसाधन स्वयं जुटायें। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री के. पुनैया की अध्यक्षता में गठित समिति से भारतीय विश्वविद्यालयों के आर्थिक संकट के हल और वैकल्पिक संसाधनों की उगाही के सम्बन्ध में सुझाव देने के लिए कहा गया।
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सन् 1993 में दी गयी अपनी रिपोर्ट में इस समिति ने स्पष्ट रूप से उच्च शिक्षा के निजीकरण का मत व्यक्त किया और कहा कि कोई भी समाज जो गरीबी और गैर बराबरी से जूझ रहा हो. वह विश्वविद्यालयों में हो रही फिजूलखर्ची की आर्थिक सहायता का समर्थन नहीं कर सकता अथवा सम्पन्न तबकों को उच्च शिक्षा पर हो रहे खर्च के भुगतान से बचे रहने की अनुमति नहीं दे सकता है। इसलिए उच्च शिक्षा पर हो रहे वास्तविक व्यय का बड़ा भाग उनसे वसूला जाना चाहिए। शिक्षा का निजीकरण पर निबंध
‘उच्च शिक्षा पर विश्व बैंक की रिपोर्ट’ में, भारतीय उच्च शिक्षा के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि विकासशील देशों में, जिन्होंने अब तक प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में पर्याप्त गुणवत्ता, समानता और अपेक्षित उपलब्धता प्राप्त नहीं की है, वहाँ उपलब्ध सार्वजनिक संसाधनों पर उच्च शिक्षा को प्राथमिकता का दावा नहीं करना चाहिए। ऐसा इसलिए कि साधारणतया प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में किये जाने वाले निवेश का सामाजिक लाभ, उच्च शिक्षा में किये जाने वाले निवेश से कहीं अधिक होता है।
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जहाँ तक उच्च शिक्षा के निजीकरण का सम्बन्ध है, तो इस बारे में 1990 के दशक में लिये गये नीतिगत परिवर्तन के फैसलों के पीछे सबसे बड़ा कारण विश्व व्यापार संगठन के सदस्य देशों द्वारा सेवा क्षेत्र में व्यापार के लिए आम सहमति – पत्र (गैट्स) पर हस्ताक्षर करना था। निःसंदेह शिक्षा एक विशाल सेवा उद्योग है और इसके आकार प्रकार में निरन्तर वृद्धि हो रही है।
विश्व व्यापार संगठन के एक आकलन के अनुसार इस समय विश्व में शिक्षा पर 47 लाख करोड़ की राशि व्यय की जाती है। शिक्षा उन बारह प्रमुख सेवा क्षेत्रों में से एक है जिन्हें गैट्स के सदस्य देशों ने स्वीकार किया है। इसके क्रियान्वयन के साथ ही शिक्षा के क्षेत्र का निजीकरण और साथ ही, विदेशी विश्वविद्यालयों का भारत में प्रवेश और स्थानीय विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों के साथ उनकी प्रतिस्पर्धा में वृद्धि हो रही है।
इस परिदृश्य को सबसे बड़ी चुनौती ही यह होगी कि तमाम आधुनिकतम साधनों से सम्पन्न और सबसे नूतन तकने को से सुसज्जित विदेशी विश्वविद्यालयों व शिक्षा संस्थानों से देश की शिक्षा संस्थाओं को एक गैर-बराबरी वाला मुकाबला करना होगा। इसलिए यह आवश्यक है कि यदि देश की शिक्षा संस्थाओं को अपनी विशिष्ट पहचान और उपयोगिता कायम रखनी है और इस प्रतिस्पर्धा में सफल होकर निकलना है, तो उन्हें स्वयं को शिक्षा प्रबन्धन का ऐसा वातावरण तैयार करना होगा जिसमें वे छात्रों को परम्परा और कौशल के साथ व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करने में भी सामर्थ्यवान बनी रहे।
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उच्च शिक्षा के निजीकरण के सन्दर्भ में शिक्षकों के लिए गठित पाँचवें वेतन आयोग की संस्तुतियों ने भी बड़ी भूमिका अदा की है। इनके माध्यम से शिक्षकों के वेतनमानों और अनुलाभों में इतनी अधिक वृद्धि कर दी गयी कि मानव संसाधन विकास मन्त्रालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के लिए उस आर्थिक बोझ को उठाना असंभव हो गया। राज्य सरकारों की वित्तीय स्थिति पहले से ही खराब चल रही है। ऐसे में सवा तीन लाख से अधिक शिक्षकों के वेतन और उनके द्वारा किये जा रहे अनुपयोगी व्यय का भार कमर तोड़ देने वाला सिद्ध हो रहा है।
दूसरी और उच्च शिक्षा संस्थानों में पंजीकृत छात्रों की संख्या में 24 प्रतिशत की दर से वृद्धि हो रही थी। इसी को देखते हुए शिक्षा के क्षेत्र में निजी पूँजी निवेश के दरवाजे खोले गये। मैनेजमेन्ट पाठ्यक्रम में तो वृद्धि दर 35 से 40 प्रतिशत वार्षिक है। इसी प्रकार सूचना प्रौद्योगिकी के शिक्षण और प्रशिक्षण के क्षेत्र में भी छात्रों की वार्षिक वृद्धि दर 25 प्रतिशत आंकी गयी है। निजी क्षेत्र के सहयोग से ही इन छात्रों की जरूरतों पूरी हो सकती हैं। शिक्षा का निजीकरण पर निबंध
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सरकार ने उच्च शिक्षा के लिए निजी क्षेत्र को आमंत्रित तो किया है, लेकिन प्रबन्धन की अक्षमता और मनमानी पर अंकुश नहीं लगाया है। महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश और आन्ध्र प्रदेश जैसे राज्यों के निजी क्षेत्र के मेडिकल कॉलेजों की जाँच करने पर पाया गया कि वहाँ सी.टी. स्कैन, ऑक्सीजन, वेन्टीलेटर, कॉर्डियक मॉनीटर जैसे आधारभूत उपकरण तक नहीं हैं।
कई मेडिकल कालेजों में केवल कागजों पर ही प्रोफेसर तैनात पाये गये। वस्तुतः उच्च शिक्षा प्रदान करने के लिए निजी विश्वविद्यालयों या महाविद्यालयों को स्वीकृति देने के समय केन्द्र और राज्य सरकारें, अपने राजनीतिक स्वार्थी और दलीय हितो को प्राथमिकता देने की प्रवृत्ति से निजात नहीं पा सकी हैं।
इस प्रकार राजनीतिक अभयदान मिल जाने के बाद निजी विश्वविद्यालयों या महाविद्यालयों को संचालित करने वाले सभी निर्धारित नियमों, उपनियमों, मानदण्डों और शर्तों की अनदेखी करके निर्द्वन्द्व होकर व्यक्तिगत हित साधन में लग जाते हैं। निजी कालेज छात्रों से मनमानी फीस और अवैध धन वसूलने से बाज नहीं आते। वास्तविकता यह है कि एक ओर जहाँ उच्चस्तरीय शिक्षा का दायित्व उठाना सरकार ने अपने बूते के बाहर की बात मान ली है।
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वहीं शिक्षा संस्थानों की कमी को पूरा करने के नाम पर कुकुरमुत्तों की तरह उग आये संस्थानों से देश की उच्च स्तरीय शिक्षा के समूचे ढाँचे पर प्रश्न चिन्ह लग गये हैं। कैपिटेशन फीस के नाम पर इन संस्थाओं में प्रवेश के लिए छात्रों से लाखो रुपये वसूल किये जाते हैं और फिर भी उन्हें मिलती है आधी-अधूरी योग्यता प्रदान करने वाली शिक्षा, जिसके बल पर वे किसी भी प्रतिस्पर्धा में शामिल होने लायक नहीं बन पाते हैं। निजीकरण के कारण उच्च शिक्षा पर धन अधिक व्यय करना पड़ रहा है, किन्तु गुणवत्ता में वृद्धि का उद्देश्य पूरा नहीं हो पा रहा है। शिक्षा का निजीकरण पर निबंध
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बावजूद इसके निजी क्षेत्र के कुछ शिक्षा संस्थान, सरकारी क्षेत्र के शिक्षा संस्थानों की अपेक्षा अधिक गुणवत्ता वाली शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। अतः निजी क्षेत्र की भूमिका को समाप्त करने की जरूरत नहीं है। गुणवत्ता बनाये रखने के लिए केन्द्र व राज्य सरकारों को मुकदर्शक की अपनी मुद्रा छोड़कर एक सक्रिय पर्यवेक्षक की भूमिका में आना होगा, अन्यथा निजी हाथों में उच्च शिक्षा कुछ मुट्ठी भर पूँजीपतियों की तिजोरियों को भरने और देश के युवकों के भविष्य को निराशा के अंधेरे में झोंकने का जरिया बनकर रह जायेगी।
इन संस्थानों को मान्यता देते समय ख्याति प्राप्त संस्थाओं को ही प्राथमिकता देनी चाहिए। इन संस्थानों में शिक्षक-शिक्षार्थी अनुपात सुनिश्चित करने के लिए कड़े नियम निर्धारित किये जाने चाहिए। साथ ही, निजी क्षेत्र के शिक्षा संस्थानों की गुणवत्ता और उनके उत्पाद की प्रभावशीलता की जाँच के लिए भी संस्थागत प्राधिकरण का प्रावधान होना चाहिए जो नियमित जाँच सुनिश्चित करे।
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शिक्षा का सारा व्यय भार अब सरकार वहन नहीं कर सकती। सरकार पर सारी निर्भरता का अर्थ होगा शिक्षा पर सब्सिडी के रूप में सरकार का भारी व्यय, जो राजकोषीय स्थिति को बुरी तरह प्रभावित करेगा। कुल सरकारी सब्सिडी का 74 प्रतिशत प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों को दिया जाता है और 19 प्रतिशत उच्च शिक्षा को चिंताजनक रूप से बमुश्किल प्रति छात्र कुल व्यय का 5 प्रतिशत शिक्षा शुल्क के माध्यम से वसूल हो पाता है।
फिर पिछले कई वर्षों से सरकारी संस्थानों में शिक्षा शुल्क में बिल्कुल ही वृद्धि नहीं हुई है, जबकि व्ययभार कई गुना बढ़ गया है, इसलिए स्थिति और भी शोचनीय है। यह तो जाहिर ही है कि यदि सरकार पर व्यय भार बढ़ेगा, तो इसका असर शिक्षा की गुणवत्ता पर अवश्य पड़ेगा।
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इस पूरे संदर्भ में एक और तथ्य है कि सिर्फ निजी क्षेत्र ही शिक्षा की सारी आवश्यकताएं पूरी नहीं कर सकता। सबसे पहली बात तो यह कि ये निजी क्षेत्र, शिक्षा देने के बदले जिस शुल्क की अपेक्षा रखते हैं, उसे दे पाने में हमारे देश का बहुसंख्य निर्धन वर्ग असमर्थ है। उदाहरण के तौर पर निजी क्षेत्र की तकनीकी संस्थाओं द्वारा ली जाने वाली ‘कैपिटेशन फी’ को देखा जा सकता है।
इस दृष्टि से पूर्णतः निजीकरण की व्यवस्था शिक्षा को घिनौने व्यवसाय में परिवर्तित कर देगी। अपने संचालन के लिए स्वतंत्र निजी प्रबंधन, बाजार एवं समय के व्यावसायिक रुख के अनुरूप पाठ्यक्रम शुरू या बंद करेंगे और तद्नुरूप शिक्षकों की बहाली एवं उन्मुक्ति भी कर देंगे। इसके कई तरह के दुष्परिणाम होंगे, जिनमें शिक्षकों के शोषण की सर्वाधिक संभावना है।
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जैसे, इसका एक सकारात्मक पहलू भी है कि सरकारी क्षेत्रों में नौकरी की सुरक्षा ने शिक्षकों को लापरवाह बना दिया है और सर्वाधिक प्रोन्नति ने अध्ययन एवं शोध की प्रक्रिया को बुरी तरह कुप्रभावित कर दिया है। सामाजिक एवं भौतिक विज्ञान, प्राचीन भारतीय भाषाओं का अध्ययन (जैसे- संस्कृत) आदि जिनकी वर्तमान संदर्भ में बाजारू मांग बहुत ज्यादा नहीं है, निजीकरण के द्वारा हो रहे शिक्षा के व्यवसायीकरण में पूर्णतः उपेक्षित हो सकते हैं, परन्तु रचनात्मक कला एवं संस्कृति के संदर्भ में इनका संरक्षण भी तो आवश्यक है। अतः निजी क्षेत्र में भी सरकारी हस्तक्षेप की नीति सर्वाधिक सटीक नीति होगी।
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एक अनुमान के अनुसार, अगले 10 वर्षों में छात्रों से वसूले जाने वाले शुल्क से शिक्षा के क्षेत्र में कुल व्यय का 25 प्रतिशत हासिल कर लिया जाने लगेगा। इस स्तर को प्राप्त करने के लिए 1990 में राममूर्ति समिति ने उच्च शिक्षा में शुल्क वृद्धि का प्रस्ताव किया था, जिसके अनुसार अत्यंत धनी शिक्षार्थियों से कुल शिक्षा लागत का 75 प्रतिशत उसके बाद के समृद्ध शिक्षार्थियों से 50 प्रतिशत और उसके बाद के स्तर के शिक्षार्थियों से 25 प्रतिशत वसूल किया जाए और आर्थिक रूप से पिछड़े तबके के शिक्षार्थियों से कोई शुल्क नहीं वसूल किया जाए
यह विभेदकारी शुल्क-प्रणाली कहीं से भी व्यावहारिक नहीं है। एक समान शुल्क प्रणाली ही व्यावहारिक हो सकती है, जिसमें 25 प्रतिशत छात्रों को देना हो तथा जो आर्थिक दृष्टि से पिछड़े तबकों से आते हैं, उन्हें पूर्ण शुल्क मुक्ति दी जा सकती है। इससे लागत वसूली की दर भी बढ़ेगी और सरकार का व्यय भार भी कम होगा। शिक्षा का निजीकरण पर निबंध
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विश्व बैंक ने आकर्षक सुझाव दिया है कि कॉरपोरेट क्षेत्र, जो उच्च शिक्षा क्षेत्र के उत्पाद के सबसे बड़े उपभोक्ता है, पर स्नातक कर आरोपित किया जाए। राममूर्ति समिति ने ऐसे किसी प्रयास से इस आशंका के साथ असहमति जताई कि इसका असर कॉरपोरेट क्षेत्र की आर्थिक स्थिति पर पड़ेगा और रोजगार के अवसरों को भी कुप्रभावित करेगा। कई देशों के विश्वविद्यालयों में कॉरपोरेट क्षेत्र, शिक्षा के लिए पर्याप्त अनुदान देते हैं।
इसलिए, यदि इस प्रकार का कोई प्रयास भारत में भी किया जाए, तो इससे कुछ दुष्परिणामों को देखना बहुत तार्किक नहीं लगता। विश्वविद्यालयों में कॉरपोरेट क्षेत्र के लिए अनुसंधान कार्य किए जा सकते हैं और इसके लिए जो धन उस क्षेत्र से मिलेगा, उसका उपयोग शैक्षिक आवश्यकताओं के लिए किया जा सकता है। निजीकरण की इस प्रक्रिया में सरकारी हस्तक्षेप के द्वारा यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि निजी संस्थाओं में निर्धन तबकों के हितों का भी पूरा ध्यान रखा जा रहा है। इससे यह भी सुनिश्चित किया जा सकेगा कि निजीकरण का परिणाम शिक्षा का पूर्णतः व्यवसायीकरण नहीं होता।
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शिक्षा विकास की अनिवार्य शर्त है और सरकार के पास इसके लिए पर्याप्त आर्थिक संसाधन नहीं है। ऐसी स्थिति में निजीकरण ही एक उपाय है, जिसे कतिपय दिशा-निर्देशों के द्वारा लागू करना चाहिए। यह प्रक्रिया समाजोपयोगी के साथ- साथ शिक्षा को मूल्य प्रभावी भी बनाएगी। लेकिन निजी क्षेत्र में भी शिक्षा को पूर्णतः पूंजीपतियों की मनमानी पर नहीं छोड़ना चाहिए, बल्कि उस पर सरकारी निगरानी भी अत्यंत आवश्यक है। शिक्षा का निजीकरण पर निबंध
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