पुराना किला: कृष्ण नगर का राजा था हंसदेव बड़ा ही हंसमुख और प्रजा का दुलारा। एक बार वह अकेला जंगल में शिकार खेलने गया। शाम तक नहीं लौटा, तो राजघराने में चिंता हो गई। सेनापति सैनिकों को ले राजा को खोजने निकला। सारा जंगल छान मारा। मगर राजा हंसदेव का कुछ पता न चल सका।
पुराना किला

निराश सेनापति महल में पहुंचा, तो यह बात सारे राज्य में फैल गई। हाहाकार मच गया। सारी प्रजा हंसदेव से खुश थी। उसे बहुत चाहती थी। सभी सोच रहे थे, आखिर राजा गए कहां?
हंसदेव का एक ही बेटा था- चंद्रप्रकाश वह बहुत बुद्धिमान और बहादुर था। उसने अपने पिता की खोज में जमीन-आसमान एक कर दिए। जंगल की सीमा से पार, दूसरे राज्य की सीमा में भी वह गया। किंतु वहां से भी राजा के बारे में कोई सूचना नहीं मिली।
निराश होकर वह लौट ही रहा था, अचानक रास्ते में उसने किसी घोड़े के जोर से हिनहिनाने की आवाज सुनी। वह उसी दिशा में चल दिया, जिधर से वह आवाज आ रही थी। कुछ ही दूरी पर उसे अपने पिता का घोड़ा जमीन पर गिरा दिखाई दिया। वह बुरी तरह से घायल था। घोड़े ने मुंदी-मुंदी आंखों से राजकुमार को देखा। फिर अपना सिर पूर्व दिशा की ओर घुमाकर जोर से हिनहिनाया। हिनहिनाते ही उसके प्राण पखेरू उड़ गए।
राजकुमार चंद्रप्रकाश को लगा, जैसे घोड़ा कुछ कहना चाहता था। उसने एक बार पूर्व दिशा की ओर देखा । उधर भयानक जंगल मुंह बाएं खड़ा था। चंद्रप्रकाश ने न जाने क्या सोचा, अपने घोड़े का मुंह उधर ही फेर दिया।
जंगल की वह पट्टी बड़ी सघन थी। राजकुमार बेहद सावधानी से रास्ता बनाता आगे बढ़ता रहा। कहीं भी उसे कुछ ऐसा न मिला, जिससे उसके पिता के गायब हो जाने का सूत्र मिलता। यहां तक कि जंगल समाप्त हो गया। अब वह कृष्ण नगर की सीमा के बाहर पहुंच गया था। वहां से उनके शत्रु राजा भीमदेव के राज्य अमरपुर की सीमा शुरू होती थी।
अचानक चंद्रप्रकाश की दृष्टि भूल में पड़ी किसी चमकीली वस्तु पर पड़ी उत्सुकतावश उसे उठाया, तो चौंक पड़ा। वह उसके पिता हंसदेव की राजकीय मुद्रा थी। उसे वहां पड़ा देख कुशाग्र बुद्धि राजकुमार को भांपते देर न लगी कि उसके पिता शिकार खेलते-खेलते अमरपुर की सीमा में चले गए होंगे। वहां वह दुश्मनों के हाथ पड़ गए होंगे। मन ही मन कुछ सोचकर वह वापस अपने महल में लौट आया।
अगले दिन उसने राज्य के दो श्रेष्ठ गुप्तचरों को बुलाया। उनसे अपने मन की शंका बताकर कहा–” वेश बदल कर अमरपुर जाओ। पता करो, मेरे पिता वहां पहुंचे अथवा नहीं। यदि पहुंचे हैं, तो कहां हैं?”
दोनों गुप्तचर फेरीवालों के वेश में अमरपुर जा पहुंचे। गली गली में सामान बेचने के बहाने राजा हंसदेव के बारे में पता लगाने लगे।
एक दिन वे किले के पास सामान बेच रहे थे कि उन्होंने सुना, वहां तैनात एक बूढ़ा सैनिक दूसरे से कह रहा था-“हंसदेव अपने को बड़ा वीर समझता था। मैंने उस पर जाल फेंका, तो ऐसा बन गया जैसे चूहा। अब सड़ रहा है पुराने किले की काल कोठरी में चींटी तक नहीं पहुंच सकती वहां। “
सुनते ही दोनों गुप्तचरों के कान खड़े हो गए। उसी समय अमरपुर छोड़ दिया। सीधे कृष्ण नगर पहुंचे। राजकुमार चंद्रप्रकाश को सारी बात बताई तो वह भी सोच में पड़ गया। राजा हंसदेव को शत्रु के पंजे से छुड़ा लाना टेढ़ी खीर थी।
भीमदेव अत्यंत शक्शिाली था। उसके पास काफी बड़ी सेना थी। फिर उस पर सीधे आक्रमण भी नहीं किया जा सकता था। ऐसी दशा में वह राजा हंसदेव की हत्या भी करा सकता था। बड़ी परेशानी थी। चंद्रप्रकाश कई रातों तक सोचता रहा कि इस बारे में क्या करे?
इन दिनों वह इतना परेशान रहा कि उसने किसी से भी मिलना छोड़ दिया। प्रहरियों को सख्त ताकीद कर दी, उसके पास न किसी को भेजें और न ही उसे पुकारें।
उधर अमरपुर का राजा भीमदेव बड़ा प्रसन्न था। धीरे-धीरे कृष्ण नगर पर आक्रमण करने की योजना भी बना रहा था। वह रोज पुराने किले की रक्षा व्यवस्था देखने भी जाया करता था कि कहीं राजा हंसदेव भाग न जाएं।
एक दिन वह अपने सेनापति के साथ पुराने किले की ओर जा रहा था। मार्ग में उसने एक युवा साधु को एक पेड़ के नीचे तपस्या करते देखा। पूछताछ की तो पता चला, वह साधु कुछ दिन पहले ही आया है। दिन भर पेड़ के नीचे बैठा हवन करता है। रात को अपनी कुटिया में सो जाता है। अमरपुर के निवासी सैकड़ों की संख्या में रोज उस साधु के दर्शन करने आते हैं। भेंट लाते हैं मगर साधु उसे गरीबों में बांट देता है अपने लिए कुछ नहीं रखता। यह सुनकर भीमदेव आगे बढ़ गया।
पंद्रह दिन ऐसे ही बीत गए। सोलहवें दिन सुबह होते ही जब पहरेदार सिपाहियों ने पुराने किले के तहखाने का दरवाजा खोला, तो भौचक्के रह गए। राजा हंसदेव तहखाने से गायब थे। न कोई ताला टूटा, न कोई सिपाही घायल हुआ, न कोई युद्ध हुआ। आखिर राजा हंसदेव भागे कैसे? पहरेदारों ने तुरंत राजा भीमदेव को हंसदेव के गायब होने की खबर दी।
राजा भीमदेव स्वयं तहखाने में गया। चारों तरफ देखा, कहीं दरार तक दिखाई नहीं दी। वह बेचैनी से तहखाने में इधर उधर टहलने लगा। तहखाने का फर्श कच्चा था। टहलते टहलते. अचानक एक स्थान पर राजा भीमदेव गिरते-गिरते बचा। वहां की मिट्टी पोली थी। राजा एकदम घुटनों तक नीचे धंस गया। तहखाने के फर्श पर उस जगह पोली मिट्टी से भरा गड्ढा था। गड्ढे से मिट्टी निकाली गई तो वहां एक अंधेरी सुरंग दिखाई दी।
भीमदेव अपने सैनिकों सहित सुरंग में घुसा। करीब घंटा भर चलने के बाद उन्हें रोशनी दिखाई दो। रोशनी सुरंग के दूसरे सिरे से आ रही थी। राजा और उसके सैनिक सुरंग से बाहर निकले। यह देखकर उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा; सुरंग का दूसरा सिरा उस साधु की कुटिया में निकलता था, जो कुछ दिन पहले उनके राज्य में आया था।
राजा समझ गया कि राजकुमार चंद्रप्रकाश ही साधु के वेश में आया था। सुरंग खुदवाकर अपने पिता राजा हंसदेव को तहखाने से निकाल ले गया । वह राजकुमार की बुद्धिमता और बहादुरी की बहुत सी कहानियां तो पहले ही सुन चुका था। इस बार उसने एक विचित्र निर्णय लिया।
मंत्री से बोला-” मंत्री जी, हम ऐसे बुद्धिमान पड़ोसियों को उजाड़ना नहीं चाहते। आप आज ही हंसदेव के पास संधि का प्रस्ताव भेज दें। साथ ही मेरा यह निवेदन भी भिजवा दें कि मैं अपनी इकलौती बेटी को उनकी पुत्रवधू बनाना चाहता हूं।” राजा हंसदेव ने इस प्रस्ताव को खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया।
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