राजगुरु का जीवन परिचय? जानें राजगुरु क्रांतिकारी क्यों और कैसे बने?

राजगुरु का जीवन परिचय:- राजगुरु का जन्म पूना जिले के खेड़ा नामक स्थान में सन् 1909 में हुआ था। इस क्रान्तिकारी शिशु के बचपन का नाम शिवराम हरि राजगुरु था। इनके पिता का नाम श्री हरिनारायण राजगुरु था किन्तु अधिक दिनों तक वे परिवार को व्यवस्थित भी न कर पाये थे कि अचानक उनका देहान्त हो गया। राजगुरु का इतिहास, राजगुरु पर निबंध। उस समय शिवराम हरि की उम्र केवल 6 वर्ष की थी इसलिए पालन-पोषण का भार हरिनारायण के बड़े भाई दिनकर हरि राजगुरु पर आ पड़ा था। राजगुरु का जीवन परिचय

राजगुरु का जीवन परिचय

राजगुरु का जीवन परिचय

Rajguru Biography in Hindi

नामराजगुरु
जन्म स्थानपूना जिले के खेड़ा नामक स्थान
जन्म वर्षसन् 1909
पिता का नामश्री हरिनारायण राजगुरु
मृत्यु23 मार्च, 1931
राजगुरु का जीवन परिचय (Rajguru Ka Jeevan Parichay)

राजगुरु का बचपन

बचपन से शिवराम कुशाग्र बुद्धि होने के कारण रुचि संस्कृत पढ़ने की थी किन्तु पिता के अभाव में विधवा माँ के स्नेहिल प्यार के अतिरिक्त घर में पढ़ाई की व्यवस्था अनुकूल नहीं थी। वह चाहता बहुत कुछ था किन्तु घर के सदस्यों का सचमुच प्यार भी पाने में वह वंचित रह जाता।

संस्कृत पढ़ने की लगन हृदय में इतनी बलवती हुई कि एक रात घर से भागकर 15 वर्ष की उम्र में वह बनारस आ गया। बनारस में रहकर संस्कृत अध्ययन का आकर्षण बड़ा कष्टप्रद इसलिए रहा कि उसे ठगनेवाले व्यक्तियों के सम्पर्क ने कतई निराश कर दिया था।

वह सीधा सादा व्यक्ति आसानी से सभी का विश्वास कर लेता और मात खाने के पश्चात् उसे लगता वह इस संसार के लिए उपयुक्त बुद्धि नहीं रखता। जब उसे असफलता के दर्शन होते तो वह और सजगता के साथ संघर्ष करता, भूल स्वीकार लेता मगर समर्पण करना उसने सीखा न था।

बनारस के एक म्युनिस्पिल स्कूल की ड्रिल मास्टरी बड़ी कठिनाई से मिल गयी। उसने परमात्मा को धन्यवाद दिया कि आजीविका का एक साधन उसकी रुचियों को साकार करने में सहयोग तो देगा।

स्कूल की छुट्टी के पश्चात् उसने नित्यप्रति अखाड़े में जाना प्रारम्भ किया और बलिष्ठ लड़कों को एकत्रित कर उन्हें लाठी चलाने, गदका भाँजने और स्वास्थ्य सम्बन्धी मनोरंजक योजनाओं की प्रेरणा दे अनेक सहयोगियों को एकता के सूत्र में बाँध लिया।

राजगुरु का देश भक्ति मार्ग

यह प्रयास धीमे-धीमे उसे देश-भक्ति के मार्ग में ले जाने के लिए बड़ा सहायक बना। लोगों में उसके प्रति विश्वास और स्नेह भी जाग्रत हो चुका था। वह मन-ही-मन चाहता था कि अंग्रेज की गुलामी जनता को गर्त में धकेल रही है, आपसी फूट जो देश में नजर आती है उसी के परिणामस्वरूप दुश्मन हमारी शक्तियों को क्षीण कर रहा है।

जनता शक्तिशाली है मनोबल भी ऊँचा है किन्तु एकता के रूप में संगठित होकर वे भारत की धरती से गोरी सरकार का तख्ता पलट सकते हैं। काश, उसका सम्पर्क क्रान्तिकारी संगठन से होता तो निश्चित ही अपनी प्रतिभा का वह सही उपयोग कर सकता था।

राजगुरु का क्रान्तिकारी कदम

कुछ समय के उपरान्त एक सहयोगी के द्वारा प्रसिद्ध क्रान्तिकारी शिव वर्मा से सम्पर्क हुआ जिन्हें एक साहसी युवक की तलाश थी। दल के एक सन्दिग्ध सदस्य को मौत के घाट उतारने के लिए उसकी आवश्यकता हुई। शिव वर्मा को यह कार्य करना था क्योंकि कठिन था इसलिए दूसरे विश्वासपात्र सदस्य में राजगुरु को दल का सदस्य बनाया गया।

रूप राजगुरु को मुँहमाँगी मुराद मिली थी क्योंकि उसका (राजगुरु का जीवन परिचय) निशाना अचूक है, यह राज वह प्रमाणित करने में सफल हो गया था। इस प्रकार वह क्रान्तिकारी दल का सक्रिय सदस्य बन गया और हर कार्य में वह अपना नाम प्रस्तावित कर अग्रणी ही रहना चाहता था।

दल के सदस्यों को एक सरकारी खजाने की गुप्त सूचना मिली तो राजगुरु को भगत सिंह के साथ उसकी तलाश में जाना पड़ा। उस योजना में उन्हें एक सहयोगी और मिला। तीनों एक दूकान किराये पर ले रात उसमें बिताते और दिन-भर खजाने के लिए भाग-दौड़ में जुटे रहते।

तीसरे दिन रात को वे दूकान की जमीन पर सोये थे। भगत सिंह की नींद श्वास की लम्बी आवाज सुनकर अचानक टूटी। सन्देहप्रद आँखों से टार्च जलाने पर ज्ञात हुआ एक काला साँप फन फैलाये राजगुरु के सिर के निकट फुंकार रहा था। भगत सिंह ने चुपके से राजगुरु के पैर खींच सावधान किया- ‘राजगुरु सिर के पीछे साँप बैठा है, उठ के भाग।’

‘सोने दो, मुझे तंग न करो।’ राजगुरु ने छाती से ऊपर चादर खींच सिर को ढाँपते हुए सलाह अनसुनी कर दी। साँप अपने-आप वह जगह छोड़ भाग उठा मगर राजगुरु के खर्राटे निरन्तर जारी रहे।

इसी प्रकार गोरखपुर में सफलता न मिलने पर बनारस के लिए प्रस्थान की योजना में निश्चय हुआ स्टेशन पर राजगुरु से साथी मिल लेंगे। सदस्यगण वहाँ समय पर पहुँच उसे खोजते हुए गाड़ी में बैठ गये मगर वह नहीं मिला। दूसरे दिन बनारस पहुँच साथियों से मिलकर रोषपूर्ण शब्दों का वह प्रहार करने लगा-‘टिकट व धन दिये बगैर मुझे स्टेशन पर छोड़ भाग आये? बड़े शर्म की बात है।’

प्लेटफार्म पर खड़े हर डिब्बा छाना बारीकी से मगर तुम थे कहाँ?” ‘भलेमानसो, भिखारियों के बीच दुपट्टा डाल सो रहा था, पुलिस के हत्थे न चढ़ जाऊँ। वहीं से जब आप गुजरे तो मुझे जगा तो लिया होता।’ थोड़ी नम्रता से धीमी आवाज में राजगुरु ने उत्तर दिया।

लेकिन स्टेशन तो आपको पहले पहुँचना था। अपना दोष औरों के सिर थोप अपनी झेंप मिटा रहे हो अब, सच तो यह है। सभी साथियों ने एक स्वर से व्यंग किया। अपेक्षित गद्दार को मारने का दिन जब निकट आया तो शिव वर्मा ने निश्चय किया कि एक पिस्तौल और आदमी दो इसलिए एक अन्य रिवाल्वर की व्यवस्था पहले करनी अनिवार्य है।

अस्त्र लाने वे लाहौर निकल गये। राजगुरु बेचैन। समय खोना बुद्धिमानी नहीं। जिसे मौत के घाट उतारना है, उतारना है, विलम्ब क्यों? गद्दार को अधिक जीने का अधिकार क्यों मिले? राजगुरु अँधेरी रात में ही निश्चित स्थान पर पहुँचा और छुपकर अपनी गोली का निशाना लगाकर आदमी मार गिराया।

गोली का स्वर गूँजते ही पुलिस ने पीछा किया, राजगुरु शहर की ओर जाने की अपेक्षा मथुरा की ओर रेलवे लाइन की सीध में बढ़ने लगा। पुलिस ने सर्चलाइट की सहायता से उस पर जब गोलियाँ दागीं तो वह दौड़कर धान के पानी-भरे खेत में जा लेटा।

दूर ही गिरजा घर की घड़ी ने 3 के घंटे बजाये। वह धीमे से खेत से निकला और पैदल लाइन-लाइन चल तीसरे स्टेशन पर पहुँचकर गाड़ी में बैठकर मथुरा पहुँच गया। राजगुरु का जीवन परिचय सारा शरीर ठंड से थर-थर काँपे जा रहा था किन्तु प्रसन्न था कि गद्दार को मौत के घाट उतार दल के कार्य में तो सफलता प्राप्त कर ली। मस्तक गर्व से ऊँचा उसने उठा लिया- ‘वह भी दल का एक उपयोगी सदस्य बन गया है।

विचारों की गाड़ी अचानक रुकी तो उसे मालूम हुआ कि गोली के निशाने से गद्दार नहीं, अन्य व्यक्ति जान गँवा बैठा है। मन-ही-मन वह बड़ा दुखी था। लेकिन छूटी गोली वापिस कैसे आती? गनीमत बस यही थी पुलिस की पकड़ में वह नहीं आया। जल्दबाजी तो उसने अवश्य की मगर अपराध उसने नहीं किया। स्पष्ट है, नीयत में बेईमानी एवं अविश्वसनीयता नहीं थी। वह शीघ्रता से कार्य कर पूरा श्रेय पाने की चेष्टा में विफल हो गया।

ऐसी दुःसाहसी मनोवृति पर उसे अंकुश की आवश्यकता अवश्य है। साथियों ने अपने-अपने मत व्यक्त किये किन्तु उसकी भूल पर अधिक ध्यान देना अनुचित जानकर कोई कार्यवाही नहीं की गयी। इसी के साथ उसका अचूक निशाना सराहनीय माना जाने लगा क्योंकि अपेक्षित गद्दार को गोली तो उस स्थल पर खींचकर लाने से रही।

जब पंजाब में साइमन कमीशन की चर्चा जनता की जुबान पर सुनी तो क्रान्तिकारियों की सरगर्मियाँ बढ़नी स्वाभाविक थी। उन्होंने एकजुट होकर जनता को जागरूक रहकर संघर्ष के लिए प्रेरित किया जिससे साइमन का विरोध तेज हो, उन्हें चेतावनी दे दी जाये- ‘अंग्रजों, भारत छोड़ो।’ ‘अत्याचार बन्द करो।’

कुछ साथियों ने वार्तालाप के दौरान यह भी निश्चय कर इस माँग पर विचार किया कि साइमन कमीशन के विरोध में कांग्रेस के साथ सहयोग किया जाये जिसका नेतृत्व लाला लाजपतराय करने जा रहे हैं।

राजगुरु का जीवन परिचय एक विशाल जुलूस की अगुवाई लाला जी कर रहे थे, जनता की अपार भीड़ हाथ में काले झंडे लिये उच्च स्वर से वातावरण को चीर रही थी- ‘साइमन, वापिस जाओ, अंग्रेजी, भारत छोड़ो।’ गोरी सरकार के आदेश पर भंयकर लाठीचार्ज हुआ जिसमें लालाजी आहतावस्था में जमीन पर गिरे, दूसरे दिन मृत्यु हो गयी। चिनगारी ने आग का रूप ले लिया। देश में शोक की लहर हर ओर दौड़ गयी, जनता कराह उठी, सभी के नयन सजल और दुखी थे।

‘भारत नौजवान सभा’ ने निश्चय किया कि अंग्रेज पुलिस अधिकारी का काम तमाम कर दिया जाये। खून के बदले खून से लेंगे। अंग्रेज पुलिस अधिकारी सांडर्स को, जिसकी लाठी से लाला जी की मृत्यु हुई, गोली से उड़ा दिया जाये।

भगत सिंह इस कार्य को करेंगे और राजगुरु को उनकी सहायता करनी है यह निश्चय दल की बैठक में लिया गया। योजना की सफलता के लिए पुलिस कार्यालय के इर्द-गिर्द अनेकों परीक्षण में चक्कर साथियों को काटने पड़े जिससे नियत स्थान और अंग्रेज आफिस के आने-जाने के निर्धारित समय की सही जानकारी ले ली गयी। यह कार्य जयगोपाल को सौंपा गया। तय हुआ वही समयानुकूल आवश्यक संकेत भी देता रहेगा।

निश्चित समय, राजगुरु और भगत सिंह पुलिस दफ्तर के सामने थोड़ी दूर पर एक पेड़ की आड़ में खड़े थे। डी.ए.वी. कॉलेज की चारदीवारी के पीछे चन्द्रशेखर आजाद अपनी माउजर पिस्तौल ताने चौकस थे जो राजगुरु और भगत सिंह का पीछा करनेवाले को मौत के घाट उतार सके, जब वे कार्य समाप्त कर छात्रावास की ओर बढ़ें।

आजाद का कार्य दोनों को सुरक्षित घटनास्थल से भागने में सहयोग देना था। सांडर्स अपने कार्यालय से निकल ज्यों ही अपनी मोटर साइकिल की ओर बढ़ा, उसका अरदली एक ओर पीछे हट गया। ज्यों ही सांडर्स ने अपने दाएँ पैर से मोटर साइकिल स्टार्ट करने की चेष्टा की राजगुरु ने अपने अचूक निशाने से कनपटी को लक्ष्य कर गोली दागी जो सिर को बींधती पार निकल गयी।

भगत सिंह ने भी आगे बढ़कर अपनी ओटोमैटिक पिस्तौल की आठ गोलियाँ सांडर्स के शरीर में उतार डालीं। सांडर्स के धराशायी होते ही बरामदे में खड़ा सिपाही चिल्लाने लगा। ट्रैफिक इंस्पेक्टर फर्न के दौड़ते ही अन्य सिपाहियों ने भी राजगुरु और भगत सिंह का पीछा किया जब कॉलेज छात्रावास की तरफ वे भागे।

वे दोनों दौड़ते हुए छात्रावास के अहाते में घुसे। पीछे-पीछे हवलदार चन्दन सिंह को दो सिपाहियों सहित बढ़ते देख आजाद ने अपनी पिस्तौल रायफल की तरह ऊपर उठाकर धमकाया- ‘खबरदार, आगे न बढ़ना। राजगुरु का जीवन परिचय सिपाही आवाज सुन रुके, चन्दन सिंह चेतावनी अनसुनी कर आगे बढ़ना ही चाहता था कि आजाद की एक गोली उसके पैर में लगी।

वह और आगे बढ़ा आजाद की एक अन्य गोली ने छाती में प्रवेश कर उसकी इहलीला समाप्त कर दी। इस प्रकार इस कांड में संलिप्त राजगुरु, भगत सिंह, जयगोपाल और आजाद सकुशल अंग्रेजों की आँखों में धूल झोंक निकल भागे।

सांडर्स की हत्या से गोरी सरकार की नींद हराम हो गयी। क्रान्तिकारियों ने उन्हें खुली चुनौती देकर पर्चे स्थान-स्थान पर चिपकवा दिये जिनमें स्पष्ट लिखा गया- ‘सांडर्स को मारकर हमने अपने राष्ट्रीय नेता के अपमान और हत्या का बदला ले लिया है।

दुर्गा भाभी (भगवतीचरण बोहरा की पत्नी) अपने शिशु को साथ लिये एक मेम के रूप में लाहौर के स्टेशन पर साहब भगत सिंह एंव नौकर राजगुरु सहित ट्रेन में बैठकर कलकत्ते के लिए रवाना हो गये जहाँ कांग्रेस का अधिवेशन हो रहा था।

इधर लाहौर की पुलिस राजगुरु, भगत सिंह और साथियों को पकड़ने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक करती फिर रही थी। उन्हें यह ज्ञात नहीं हो सका कि शिकार उनके हाथों से बाहर निकल भागा है। राजगुरु लखनऊ में जब ट्रेन रुकी तो दल के साथ से अलग हट गया जिससे पुलिस को सन्देह भी न हो और वे अन्य कार्य कर सकें।

एक गुप्त सूचना मिली कि कानपुर में गंगा घाट के किनारे एक बाबा जी के पास बहुमूल्य रत्नों का भंडार है। योजना बनी कि दल को धन की आवश्यकता है। जिससे बम बन सकें, अस्त्र-शस्त्रों की खरीद हो तभी दल सुचारु रूप से शक्तिशाली होकर कार्य कर सकेगा। राजगुरु के साथ तीन साथी और नियुक्त किये गये।

सर्दी की कड़कड़ाती रातों में चेलों के बीचोंबीच साधू महाराज धुनी रमाये बैठे थे। रात के नौ बजे ही सुनसान घाट आधी रात की भयानकता प्रदर्शित करने .लगा। तभी राजगुरु ने उस जमघट में बड़ी चतुराई से प्रवेश कर स्थान ग्रहण किया।

अन्य दो साथी कुछ दूर पर झाड़ियों में छुपे बैठे रहे। भक्तों की टोली में बैठे आजाद को भी राजगुरु के साथ चिलम में स्वाभाविक दम मारने का नाटक करना पड़ा। स्थान की सम्पूर्ण जानकारी लेकर झाड़ियों की ओर वे कुछ देर बाद चल पड़े और छुपे साथियों को समझाया कि ‘साधू बाबा’ से रत्न प्राप्त करने में कम-से-कम दो-चार व्यक्तियों की जानें जा सकती हैं जो दल की प्रतिष्ठा के प्रतिकूल है।

योजना रोक देनी ही बुद्धिमानी है जिससे दल बदनाम न हो जाये। इस प्रकार वह योजना विफल हो गयी और उन्होंने कानपुर छोड़ दिया। फरारी में एक दिन राजगुरु, आजाद और भगवानदास माहौर ट्रेन से झाँसी जा रहे थे।

समय का सदुपयोग करने के लिए आजाद ने माहौर से आग्रह किया कि वे एक गीत सुनायें। तन्मयता से माहीर ने गीत सुनाये, आजाद दाद देते रहे किन्तु राजगुरु की आँखें ट्रेन से बाहर तेजी से दौड़ते नदी-नाले, ऊँचे टीलों, कन्दराओं के कौतुकपूर्ण दृश्यों में उलझी तीव्र गति से साथ नाच रही थीं।

अचानक वह जोर से एक स्थान पर चिल्ला उठा-‘पंडित जी! जरा इधर देखिये, यह स्थान गुरिल्ला लड़ाई के उपयोग के लिए बेमिसाल है, क्या विचार है ? राजगुरु का जीवन परिचय

आजाद जितने अनुशासित व्यक्ति थे उतना संगीत से भी अपार प्रेम था किन्तु दल का संयम निर्वाह करना हर सदस्य का कर्तव्य था कि यात्रा के समय अनावश्यक चर्चा न की जाये। उन्होंने राजगुरु की बात अनसुनी करते हुए माहौर से कहा- ‘हाँ भई, जब कफन से लाश ने अपना चेहरा चमकाय तो क्या हुआ?

शिवाजी ने जिस स्थान को गुरिल्ला युद्ध के लिए चुना होगा, वह स्थान इस स्थान से मिलता-जुलता अवश्य होगा?” राजगुरु ने गम्भीरता से आजाद के संकेत को न समझते हुए अपनी बात को फिर महत्त्व देना चाहा।

तुम्हारी और तुम्हारे शिवाजी की ऐसी-कम-तैसी। आजाद ने क्रोधित मुद्रा में माहौर के मुँह की ओर देख पुनः नम्रता से पूछा- ‘हाँ, यार!… फिर क्या हुआ ? बन्दे ने तो सारा मजा किरकिरा कर दिया। आजाद ने मुस्कराकर बात पूरी की। राजगुरु आजाद की बात समझकर मौन हो गये जैसे भूल स्वीकार कर ली थी।

क्रान्तिकारियों का जीवन पल-पल खतरों से भरा था। मौत हथेली पर रखकर चलना बड़ा कठिन साहस है। जान सभी को प्यारी है और जिन्हें जान प्यारी हो वे दल के सदस्य कभी नहीं बन सकते। मगर राजगुरु ऐसा कर्मठ सदस्य था जो हर क्षण अपना बलिदान करने के लिए तत्पर रहता।

भगत सिंह को वह जी-जान से स्नेह करता मगर अपना प्रतिद्वन्द्वी उसी को समझता। मान-सम्मान, धन-सम्पदा की प्रतिद्वन्द्विता नहीं, देश की सेवा में आत्म-बलिदान की प्रतिद्वन्द्विता में वह अग्रणी बनकर मर-मिटने को उत्सुक था।

गम्भीर ही नहीं, वह मनमौजी-हँसमुख भी था जो हँसी-मजाक के वातावरण में भी अपनी उपस्थिति की स्पष्ट छाप से दर्शकों को आकर्षित कर डालना अपनी विशेषता समझता था । फरारी के दौरान एक दिन भगत सिंह के साथ राजगुरु दिल्ली आ रहे थे।

ट्रेन में अपार भीड़, तिल-भर रखने की जगह का अभाव। दोनों ने बलात् प्रवेश कर जगह बनाने की चेष्टा की तो एक सम्भ्रान्त पढ़े-लिखे सज्जन बुरा मानकर चहकने लगे- ‘भारतवासियों को मैनर्स तो आते ही नहीं… वे गँवार ही बने रहने के आदी हैं।’ भाषण शुरू कर रुके ही नहीं।

गाड़ी में भारी भीड़, राजगुरु भगत सिंह को खींचते, मुसाफिरों को बचाते उस सज्जन तक पहुँच टूटी-फूटी अंग्रेजी में बोले – ‘लुक्स मी ब्राद । अर्थात् ‘आपके विचार ऊँचे हैं, गाड़ी के इस डिब्बे में भूल से आ घूसे, क्षमा कीजिये आपके भाषण में रस है। अपने निकट भगत सिंह को भी बिठाते हुए आगे सज्जन से कहा- ‘आप तो मेरे बड़े भाई समान हैं।

महाशय ने प्रशंसा के स्वर में अपना भाषण क्रम आगे बढ़ाते हुए कहा-‘सभी भगवान के बेटे हैं, उसी ने सबको बनाया है। आप ही क्यों प्रत्येक मनुष्य मेरा भाई है और प्रत्येक स्त्री मेरी बहिन है। ‘और…भाभी जी भी…?” राजगुरु ने भोलेपन से महाशय से प्रश्न किया। अन्य यात्रियों ने उसकी रोचक व्यंगपूर्ण वाणी का भरपूर आनन्द ले ठहाका लगाया। महाशय जी अपनी सज्जनता से गर्वोन्नत ललाट उठाकर कहने लगे- ‘मेरा मतलब यह है कि हम सबको भगवान ने ही बनाया है। राजगुरु उछलकर बोले- ‘आपकी राय से मैं सहमत नहीं हूँ। मैं नहीं मानता।’

‘क्या मतलब? आपको कोई सन्देह है?’ महाशय ने प्रश्न किया। ‘मतलब यह कि कम-से-कम मुझे और आपको भगवान ने नहीं बनाया।’ महाशय की तेज नजर गड़ गयी राजगुरु पर तब वह भगत सिंह की ओर संकेत कर आगे बोला- ‘देखिये, भगवान ने इसे बनाया है। अच्छा मैटेरियल, बढ़िया पॉलिश और उम्दा फिनिश मगर मेरी और आपकी इमारत तो ठेके पर तैयार हुई है।’

यात्रियों की नजरें राजगुरु के भाषण पर पूरी तरह टिकने लगीं तो उसने फिर कहा- ‘अरे भई, भगवान को इतनी फुर्सत ही कहाँ मिलती है कि सब में हाथ लगाता फिरे। हाँ, यह माना जा सकता है, यदि भगवान ने माल बाजार में भेजने से पहले एक नजर डाल ली होती तो हमें यह शिकायत करने का अवसर न मिलता। रेगमाल न सही कम-से-कम दो हाथ रन्दे के ही लगा देता तो उसका क्या बिगड़ता ?

महाशय को राजगुरु की बातें ऐसी कष्टप्रद लगीं कि वे सीट छोड़ यह कह उठ खड़े हुए- ‘आप जैसे व्यक्तियों से बातें करना तो दूर पास बैठना भी पाप है।’ राजगुरु ने उसके स्थान पर आराम से अपने पाँव पसारे और चैन की साँस ली। यात्रा मनोरंजक ढंग से हो गयी।

कुछ समय गुजर जाने के पश्चात् दल के सदस्यों ने निश्चय किया कि गोरी सरकार को एक अन्य बड़े कांड के द्वारा अपने आवश्यक लक्ष्य से परिचित करायें कि क्रान्तिकारी संगठन भारत से अंग्रेजों को बाहर निकलाकर दम लेगा।

असेम्बली हॉल में बम फेंका

इस बार असेम्बली हॉल में बम फेंका जाये और वहीं गिरफ्तारी दी जाये। ‘सांडर्स हत्या’ की चिनगारी अब ठंडी पड़ चुकी है, नया पैंतरा फेंकना इसलिए अनिवार्य है। इस कार्य के लिए सुखदेव के आग्रह और दल में भगत सिंह की माँग पर बम फेंकने का कार्य तो उन्हें दे दिया गया।

किन्तु राजगुरु ने सहयोगी दूसरे व्यक्ति के स्थान पर अपना नाम प्रस्तावित किया कि मुझे भगत सिंह के साथ भेजा जाये। दल के साथियों और भगत सिंह ने जब उसके अनुरोध को ठुकरा दिया तो राजगुरु ने झाँसी पहुँचकर आजाद से प्रार्थना की कि भगत सिंह के साथ उसे जाने की अनुमति दी जाये।

आजाद ने राजगुरु को समझाया कि ‘बम विस्फोट के बाद बयान देते समय ने भगत सिंह बम की राजनीति अंग्रेजी में बेहतर ढंग से पेश कर सकेंगे। सम्भव है दोनों को एक साथ न रखकर अलग-अलग कर दिया जाये तो परेशानी हो जायेगी। आप अंग्रेजी अधिक नहीं जानते। आजाद ने जिद छोड़ने के लिए राजगुरु को हर दृष्टिकोण से अवगत कराया किन्तु वह अपने हठ से अन्यान्य दलीलें देता गया।

अंग्रेजी में बयान देना कोई जरूरी तो नहीं। मैंने संस्कृत पढ़ते समय मोटी-मोटी पुस्तकें घोट डालीं, एक-दो पेज अंग्रेजी बयानों के रट डालना मेरे लिये असम्भव नहीं। आप विश्वास कीजिये, कहीं भी एक शब्द अशुद्ध नहीं बालूँगा, मेरी परीक्षा लेकर देख लीजिये।

आजाद ने भगत सिंह के नाम पत्र लिख सन्देश भेजा कि राजगुरु को अपने साथ रखकर सहयोग का अवसर दें किन्तु भगत सिंह ने सलाह नहीं मानी कि राजगुरु की दल को विशेष आवश्यकता है। राजगुरु इस घटना से खिन्न हो गये और अप्रसन्नता-भरे वातावरण में दिल्ली छोड़ पूना चले गये। असेम्बली बम कांड के पश्चात् पुलिस ने देश भर में धर-पकड़ की और पूना शहर से राजगुरु बन्दी बनाकर लाहौर लाये गये।

भगत सिंह और सुखदेव पहले ही लाहौर के केन्द्रीय कारागार में पकड़कर बन्द कर दिये गये थे क्योंकि एक ही स्थान पर क्रान्तिकारियों पर मुकदमा चलाने का नाटक भी रचाया जाना था।

अंग्रेजों का लक्ष्य था क्रान्तिकारियों को चुन-चुनकर फाँसी देना और भारतीयों के मनोबल को गिराना। इधर क्रान्तिकारी हर क्षण मौत की चुनौतियों को हँसी-हँसी स्वीकारते और फाँसी के फन्दे को चूमने से घबराते नहीं थे।

सरकार का ध्यान खींचने के लिए क्रान्तिकारियों ने जेल में भूख हड़ताल शुरू कर दी। तेरह दिन तक अन्न-जल नहीं लिया आजादी के दीवानों ने राजगुरु की हालत अचानक बिगड़ने लगी तो जेल से डॉक्टर ने अस्पताल भिजवा दिया।

वहाँ नली जबर्दस्ती पेट में न जाकर फेफड़े में पहुँच गयी और दूध चढ़ाते समय राजगुरु के दोनों फेफड़ों की जकड़न से निमोनिया हो गया। दूध के फेफड़ों में पहुँचने से अपार पीड़ा भी राजगुरु को विचलित नहीं कर रही थी क्योंकि वह सोचता था अगर वह मर गया तो हड़ताल सफल होगी और सरकार को उनकी माँगें मानने पर मजबूर होना पड़ेगा।

राजगुरु की हालत और बिगड़ी, अधिकारी घबराये, राजगुरु ने एक कागज के टुकड़े पर लिख दिया- ‘सफलता।’ क्रान्तिकारियों को भी आभास हुआ-कहीं राजगुरु की सचमुच मृत्यु ही न हो जाये इसलिए भूख हड़ताल तोड़ने की जिज्ञासा बलवती हुई। भगत सिंह स्वयं अपने हाथों से दूध का ग्लास लेकर राजगुरु की कोठरी में हड़ताल तुड़वाने आ पहुँचे। मुस्कराते हुए होंठों से ग्लास लगा उन्होंने कहा- ‘मुझसे भी पहले भागना चाहते तो हो बच्चू!

राजगुरु ने तत्काल व्यंगपूर्ण उत्तर दिया- ‘मैंने सोचा, आगे पहुँचकर तुम्हारे लिये पहले से कमरा बुक करा लूँ। मगर देख रहा हूँ कि बगैर भाभी के तुम सफर करने के इच्छुक नहीं हो।’ भगत सिंह की आँखों में वह लाहौर के प्लेटफार्म पर दुर्गा भाभी और शचीन्द्र के साथ आगे-आगे नौकर के रूप में अपनी ही छवि निहारने लगा जब वे लोग सांडर्स हत्याकांड से बचने के लिए कलकत्ते भागे थे।

भगत सिंह ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया- ‘बस बहुत हो गया, अब दूध पी लो, तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ अब तुमसे कभी सूटकेस नहीं उठवाऊँगा।’ दोनों की एक साथ हँसी छूट पड़ी और दोनों ने एक-दूसरे को स्नेहमयी मुद्रा में गले मिलकर बाहुपाशों में जकड़ लिया।

आखिर 7 अक्तूबर, 1930 को राजगुरु को सरकार ने फाँसी की सजा सुना दी तो उसे मुँहमाँगी मुराद मिल गयी थी। किसी ने प्रश्न किया- ‘क्या मौत से डर नहीं लगता तुम्हें? मौत की ललकार ही तो सत्य है, उससे घबराना मूर्खता है, क्रान्तिकारी को मौत मुँहमाँगा वरदान है। 23 मार्च, 1931 की शाम को वह फाँसी पर चढ़कर अमर हो गया। फिरोजपुर ले जाकर तीन शहीदों की लाश पुलिस ने अधजली हालत में सतलुज में फेंक दी जिससे जनता भड़क न उठे। क्रान्ति का ज्वार उतर जाये। ये था राजगुरु का जीवन परिचय

FAQ

Q1 : राजगुरु का जन्म कहां हुआ?

Ans : राजगुरु का जन्म पूना जिले के खेड़ा नामक स्थान में हुआ था।

Q2 : राजगुरु की मृत्यु कब हुई थी?

Ans : राजगुरु की मृत्यु 23 मार्च, 1931 को हुई थी।

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