रस किसे कहते हैं:- रस का शाब्दिक अर्थ ‘आनन्द’ है। काव्य को पढ़ने या सुनने और नाटक को देखने से पाठक (पढ़ने वाला) और श्रोता (सुनने वाला) को जिस आनन्द की अनुभूति होती है, उसे रस कहते हैं। रस को (Ras Kise Kahate Hai) काव्य की आत्मा या प्राणतत्व माना जाता है। रस का सम्बन्ध ‘सृ’ धातु से माना जाता है, जिसका (‘सृ’ का) अर्थ है- बहते जाना। रस की उत्पत्ति को सर्वप्रथम परिभाषित करने का श्रेय भरत मुनि को जाता है।
उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ नाट्यशास्त्र में सर्वप्रथम रस का उल्लेख करते हुए रस की परिभाषा कुछ इस प्रकार दी विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः । अर्थात् विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी (संचारी) भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।
रस किसे कहते हैं

रस की परिभाषा
परिभाषा – काव्य को पढ़ने सुनने वाह दिखने से जो अलौकिक आनंद की अनुभूति होती है उसे रस कहते हैं।
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रस से जुड़े मुख्य तथ्य
- भट्ट नायक के अनुसार, “रस की न उत्पत्ति होती है, न अभिव्यक्ति वरन् भुक्ति होती है।”
- भरतमुनि के रससूत्र के प्रथम व्याख्याकार भट्टलोल्लट हैं।
- भरतमुनि के रससूत्र में स्थायी भाव का उल्लेख नहीं है।
- आचार्य भरतमुनि रस के प्रतिष्ठापक आचार्य हैं।
- रस का सर्वप्रथम प्रयोग तैत्तरीय उपनिषद् में होता है।
- आचार्य विश्वनाथ के अनुसार- वाक्यं रसात्मक काव्यं अर्थात रसात्मक वाक्य को ही काव्य कहते हैं।
- वाक्यं रसात्मक काव्यं- का उल्लेख ‘साहित्य दर्पण’ नामक ग्रंथ में । है।” साहित्य दर्पण संस्कृत भाषा में लिखा गया साहित्य हुआ विषयक ग्रंथ है जिसके रचयिता आचार्य विश्वनाथ जी हैं।
- आचार्य अभिनव गुप्त ने- नवमोदपि शान्तो रस कह कर 9 रसों को काव्य में स्वीकारा है।
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार-जिस भाँति आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी भाँति हृदय की मुक्तावस्था रस दशा कहलाती है।
- रस के अंग- हिन्दी व्याकरण के अन्तर्गत रस के 4 अंग या अवयव माने गये हैं।
रस के कितने अंग होते हैं
हिन्दी व्याकरण के अन्तर्गत रस के 4 अंग या अवयव होते हैं।
- स्थायी भाव
- विभाव
- अनुभव
- संचारी भाव (व्यभिचारी भाव)
1. स्थाई भाव किसे कहते हैं
जो रति प्रेम घृणा आदि भावना मनुष्य के अंदर विद्यमान रहती है तथा सुपुर्द अवस्था में रहते हैं स्थाई भाव कहलाते हैं। स्थाई भाव का तात्पर्य प्रधान भाव से होता है। रस में स्थाई भाव 9 होते हैं। वर्तमान में केवल 8 स्थाई भाव है। भरतमुनि के द्वारा हटाया गया स्थाई भाव निर्मित स्थाई भाव है। भरतमुनि के अनुसार रसों के स्थाई भाव ना होते हैं। सभी को मिलाकर रसों के स्थाई भाव 11 होते हैं वह दो रस जिनके स्थाई भाव शामिल किए गए वह है यह दसमा स्थाई भाव वात्सल्य है जिसको सूरदास जी के द्वारा दिया गया और 11वां स्थाई भाव भक्ति भाव है जिसे तुलसीदास जी के द्वारा दिया गया था।
2. विभाव भाव किसे कहते हैं
जो व्यक्ति, पदार्थ अथवा अन्य तत्त्व किसी अन्य व्यक्ति के हृदय में भावों को जगाते हैं, उन्हें विभाव कहते हैं। विभाव का अर्थ कारण होता है। विभाव के 2 भेद होते हैं।
- आलंबन विभाव
- उद्दीपन विभाव
1. आलंबन विभाव
जिसका सहारा पाकर स्थायी भाव जगते हैं, उसे आलंबन विभाव कहते हैं। जैसे नायक-नायिका। आलंबन विभाव के भी दो भेद देखने को मिलते हैं।
- आश्रयालंबन या आश्रय
- विषयालंबन या विषय
1. आश्रयालंबन या आश्रय
जिस व्यक्ति के हृदय (मन) में भाव जगे उसे आश्रयालंबन कहते हैं।
2. विषयालंबन या विषय
जिसके लिए या जिसके कारण हृदय (मन) में भाव जगे उसे विषयालंबन कहते हैं।
उदाहरण- यदि राम के मन में सीता के लिए रति का भाव जगता है तो यहाँ राम आश्रयालंबन होंगे, जबकि सीता विषयालंबन। क्योंकि यहाँ राम के हृदय (मन) में भाव उत्पन्न हो रहा है जिसका विषय सीता है। चूँकि भाव उत्पन्न होने का कारण सीता हैं इसलिए सीता विषयालंबन होंगी।
2. उद्दीपन विभाव
जिन वस्तुओं या परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव उद्दीप्त (तीव्र) होते हैं या होने लगते हैं, उसे उद्दीपन विभाव कहते हैं। जैसे- चाँदनी रात, नायका-नायिका की शारीरिक चेष्टाएँ, एकान्त स्थान, कोयल की आवाज, उद्यान, युद्ध के बाजे, गर्जना तर्जना आदि।
3. अनुभव किसे कहते हैं
अनुभाव दो शब्दों अनु + भाव के मेल से बना है जिसमें अनु का अर्थ है बाद में एवं भाव का अर्थ है विचार अर्थात् अनुभाव, भावों के बाद उत्पन्न होते हैं। भावों का अनुसरण या अनुकरण करने वाले मनोभाव को व्यक्त करने वाली शारीरिक एवं मानसिक चेस्टाएँ अनुभाव कहलाती हैं। अनुभाव मुख्यतः 4 प्रकार के होते हैं-
- कायिक (काया या शरीर) अनुभाव
- सात्विक अनुभाव
- वाचिक अनुभाव
- आहार्य अनुभाव
1. कायिक अनुभाव
कायिक शब्द काया से मिलकर बना है जिसका अर्थ है- शरीर। अर्थात् किसी विषय को देखकर की जाने वाली शारीरिक क्रिया-कलाप (चेष्टाएँ) कायिक अनुभाव कहलाती हैं। कायिक अनुभाव जानबूझकर किये जाते हैं। जैसे- पुलिस को देखकर चोर भागने लगे। यहाँ भागना कायिक अनुभाव है।
2. सात्विक अनुभाव
आश्रय (जिसके मन में भाव उत्पन्न हो) के अन्दर उत्पन्न होने वाले ऐसे विचार अथवा भाव जिसे वह महसूस तो हृदय से करता है, लेकिन उसका प्रभाव उसके बाह्य शरीर पर दृष्टिगोचर होता है। ऐसे अनुभाव को सात्विक या मानसिक अनुभाव कहते हैं। सात्विक अनुभाव स्वतः उत्पन्न होते हैं। भरतमुनि के अनुसार सात्विक अनुभावों की संख्या 8 है।
- स्तम्भ- प्रसन्नता, लज्जा आदि कारणों द्वारा शरीर की गति | का रुक जाना।
- कंप- काम, भय, हर्षातिरेक (हर्ष की अधिकता) आदि कारणों से शरीर का काप जाना।
- स्वेद- लज्जा, भय, आदि के कारण शरीर से पसीना आना
- वैवर्ण्य- भय, शोक, काम, शंका आदि से शरीर का रंग उड़ जाना।
- स्वर भंग- हर्षाधिक्य, शोक, भय, मद आदि कारणों से वाणी (आवाज) का न निकलना।
- रोमांच- हर्ष, काम, भय आदि कारणों से रोंगटे खड़े हो जाना।
- अश्रु– शोक आदि कारणों से आँख में आँसू या पानी आ जाना।
- प्रलय- दुःख, भय, शोक आदि कारणों से इन्द्रियों का चेतना शून्य होना।
3. वाचिक अनुभाव
वाचिक शब्द वाच्य से बना है जिसका अर्थ होता है- कथन अर्थात विषय को देखकर आश्रय मुख कहलाता है। से जो कुछ भी बोलता है वह वाचिक अनुभाव जैसे- शेर को देखकर सभी चिल्लाने लगे। अतः इस वाक्य में चिल्लाना वाचिक अनुभाव है।
4. आहार्य अनुभाव
आहार्य का शाब्दिक अर्थ है वेशभूषा अर्थात विषय को देखने के बाद आश्रय के वेशभूषा, पहनावे अथवा उसके शारीरिक हाव-भाव में जो परिवर्तन स्वतः होता है, आहार्य अनुभाव कहलाता है। जैसे- शेर को देखकर राहुल भागने लगा इस भाग-दौड़ में उसका मोबाइल गिर गया, पैरो से चप्पल निकल गये, झाड़ियों में गिरने से उसके कपड़े फट गये। उपर्युक्त वाक्य में मोबाइल गिरना, चप्पल निकलना, कपड़े फटना आदि आहार्य अनुभाव हैं।
4. संचारी भाव/ व्यभिचारी
जो भाव हृदय (मन) में अल्पकाल तक संचरण करके चले जाते है उन्हें व्यभिचारी/संचारी भाव कहते हैं। इनकी संख्या 33 है। छल नामक चौतीसवाँ संचारी भाव मानने वाले आचार्य कवि देव हैं।
- हर्ष
- विषाद
- त्रास
- शंका
- भय
- लज्जा
- ग्लानि
- असूया [दूसरे के उत्कर्ष को देखकर ईर्ष्या करना]
- अमर्ष [विरोधी का कुछ न कर पाने के बाद यह भाव उत्पन्न होता है।]
- चिंता
- मोह
- गर्व
- उत्सुकता
- चकपकाहट
- चपलता
- दीनता
- जड़ता
- आवेग
- निर्वेद
- घृति [इच्छाओं की पूर्ति होना]
- मति
- बिबोध
- आलस्य
- निन्दा
- स्वप्न
- स्मृति
- अवहित्था (हर्ष आदि भावों को छिपाना)
- अपस्मार (मूर्छा)
- मरण
- व्याधि
- उन्माद
- छल
- मद
रस कितने प्रकार के होते हैं
S.No | रस | स्थाई भाव |
---|---|---|
1 | श्रृंगार रस | रति / माधुर्य / प्रेम |
2 | हास्य रस | हास / हसी |
3 | करुण रस | शोक |
4 | वीर रस | उत्साह |
5 | रौद्र रस | क्रोध |
6 | अद्भुत रस | विस्मय |
7 | वीभत्स रस | जुगुप्सा (घृणा) |
8 | भयानक रस | भय |
9 | शांत रस | पश्चताप/शम (निर्वेद) |
10 | वात्सल्य रस | वत्सल |
11 | भक्ति रस | भगवत विषयक रति/अनुराग |
शृंगार रस किसे कहते हैं
शृंगार रस को रसराज या रसपति कहा जाता है। नायक नायिका के मन में जब रति नामक स्थायी भाव जाग्रत होता है तब वह परिणत होकर शृंगार रस हो जाता है। इसका स्थायी भाव रति है। साधारण भाषा में कहे तो जहाँ पर नायक-नायिका के बीच प्रेम (रतिवश) में मधुर मिलन का अथवा अलगाव का बोध होता है वहाँ पर शृंगार रस होता है। शृंगार रस के मुख्यतः दो भेद होते हैं-
- संयोग शृंगार रस
- वियोग श्रृंगार/ विप्रलंभ शृंगार रस
1. संयोग शृंगार रस
जहाँ पर नायक-नायिका के संयोग (प्रेम में मधुर मिलन) या प्रकृति की सुन्दरता का वर्णन किया गया हो वहाँ संयोग शृंगार होता है। इसको वीभत्स रस का विरोधी रस माना जाता है। उदाहरण-
बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय
सौह करे, भौंहनि हँसै, दैन कहै, नटि जाये ॥
- स्पष्टीकरण- आश्रय-गोपियाँ, विषय- कृष्ण, स्थायी भाव- रति, रस- संयोग शृंगार रस
- विषयगत उद्दीपन- श्रीकृष्ण का गोपियों के सामने हाथ फैलाना और वंशी के लिए गिड़गिड़ाना।
- अनुभाव- – चुम्बन, आंलिगन, कटाक्ष आदि।
- बहिर्गत उद्दीपन- वंशी का गायब होना, रहस्यमयी वातावरण
- संचारी भाव- हर्ष, असूया, अमर्ष, आवेग, उत्सुकता, मोह, चपलता
2. वियोग श्रृंगार/विप्रलंभ शृंगार
जहाँ पर नायक नायिका का समागम न हो पाये या उनके प्रेम में वियोग का वर्णन हुआ हो वहाँ पर वियोग शृंगार होता है। वियोग शृंगार को ही विप्रलंभ शृंगार के नाम से भी जाना जाता है। उदाहरण-
निसिदिन बरसत नयन हमारे।
सदा रहति पावस ऋतु हम स्पष्टीकरण पै ते स्याम सिधारे ॥
- आश्रय-गोपियाँ, विषय- कृष्ण, रस- वियोग शृंगार रस,
- स्थायी भाव- रति
- विषयगत उद्दीपन- श्रीकृष्ण का मथुरा चले जाना। बहिर्गत उद्दीपन- पावस (सावन) ऋतु में गोपियों का श्रीकृष्ण के बिना रहना।
- संचारी भाव- विषाद, ग्लानि, अमर्ष, मोह, आवेग, उन्माद, अपस्मार, मरण, त्रास, हीनता
- अनुभाव- अश्रु
करुण रस किसे कहते हैं
किसी प्रिय व्यक्ति के चिर विरह या मरण से जो शोक उत्पन्न होता है, उसे करुण रस कहते हैं। इसका स्थायी भाव शोक है। भवभूति ने करुण रस को रसराज कहा है। साधारण भाषा में कहे तो किसी अपने का विनाश या वियोग एवं प्रेमी से सदैव के लिए बिछुड़ जाने या दूर चले जाने से जो दुःख या वेदना की अनुभूति उत्पन्न होती है, उसे ही करुण रस कहते हैं।
नोट- यद्यपि वियोग शृंगार रस में भी दुःख की अनुभूति (अनुभव) होती है, लेकिन वहाँ पर दूर जाने वाले व्यक्ति से पुनः मिलने की आशा बनी रहती है, जबकि करुण रस मिलने पुनः की कोई आशा नहीं रहती। उदाहरण-
सोक विकल सब रोवहिं रानी।
रूप सीलु जलु तेजु बखानी।
करहिं विलाप अनेक प्रकारा।
परिहिं भूमि तल बारहिं बारा ॥
- स्पष्टीकरण- स्थायी भाव- शोक, रस- करुण रस
- आश्रय- रानी, विषय-राजा दशरथ
- बहिर्गत उद्दीपन- शोक का वातावरण, राजा दशरथ शव, खाली सिंहासन
- विषयगत उद्दीपन- राजा दशरथ की मृत्यु
- अनुभाव- विलाप, वैवर्ण्य, अश्रुपात आदि।
- संचारी भाव- विषाद, चिंता, मोह, निर्वेद आदि।
वीर रस किसे कहते हैं
युद्ध अथवा कठिन कार्य करने के लिए हृदय (मन) में जो उत्साह भाव जाग्रत होता है, उससे वीर रस की उत्पत्ति होती है। वीर रस का स्थायी भाव उत्साह है। उदाहरण-
मैं सत्य कहता हूँ सखे! सुकुमार मत जानो मुझे।
यमराज से भी युद्ध में प्रस्तुत सदा मानो मुझे ॥
- स्पष्टीकरण- रस- वीर,
- स्थायी भाव- उत्साह, आश्रय कौरव सेना,
- विषय- अभिमन्यु,
- अनुभाव- अभिमन्यु का वचन,
- संचारी भाव- गर्व, हर्ष, उत्सुकता ।
- विषयगत उद्दीपन-अभिमन्यु
- बहिर्गत उद्दीपन- युद्ध का मैदान, बाजे गाजे आदि।
हास्य रस किसे कहते हैं
किसी विकृत या असामान्य हाव भाव, चेष्टा, क्रिया, वार्तालाप, व्यक्ति तथा स्थिति का ऐसा चित्रण जिससे हास्य उत्पन्न होता है, उसे हास्य रस कहते हैं। हास्य रस का स्थायी भाव हास होता है। उदाहरण-
तम्बूरा ले मंच पर बैठे प्रेम प्रताप,
साज मिले पन्द्रह मिनट घण्टा भर आलाप।
घंटा भर आलाप, राग में मारा गोता,
धीरे-धीरे खिसक चुके थे सारे श्रोता॥
- स्पष्टीकरण- रस-हास्य,
- स्थायीभाव- हास,
- आश्रय- श्रोता (सुनने वाले)
- विषय- प्रेमप्रताप
- विषयगत उद्दीपन- प्रेमप्रताप का तम्बूरा लेकर मंच पर बैठना, साज मिलाना।
- बहिर्गत उद्दीपन- तम्बूरा, मंच, श्रोताओं से भरा पाण्डाल।
- संचारी भाव- हर्ष, अमर्ष, मति, बिबोध, उग्रता, उन्माद, उत्सुकता, आवेग
- अनुभाव- श्रोताओं का चला जाना (कायिक अनुभाव)
रौद्र रस किसे कहते हैं
अनुचित या अवान्छित स्थिति तथा उसके कारण किसी व्यक्ति या वस्तु को देखकर उत्पन्न क्रोध को रौद्र रस कहते हैं। रौद्र रस का स्थायी भाव क्रोध है। इसमें क्रोध के कारण व्यक्ति का मुख लाल हो जाना, दाँत पीसना, शस्त्र चलाना, गर्जन करना, भौंह चढ़ाना आदि भाव उत्पन्न होते हैं। उदाहरण-
सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा, सहसबाहु सम सो रिपु मोरा।
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा, न त मारे जैहहिं सब राजा।
- स्पष्टीकरण रस- रौद्र रस,
- स्थायी भाव- क्रोध,
- आश्रय- परशुराम,
- विषय- राजा जनक
- विषयगत उद्दीपन- जनका का शान्त होकर परशुराम की बात को सुनना ।
- बहिर्गत उद्दीपन- टूटा हुआ धनुष, सीता के स्वयंवर का आयोजन तथा राजाओं का वृहद समाज
- अनुभाव- फरसा लहराना (कायिक अनुभाव)
- संचारी भाव- उग्रता, आवेग, उत्सुकता, उन्माद, मद, स्मृति, मोह आदि
वीभत्स रस किसे कहते हैं
इसका स्थायी भाव जुगुप्सा/घृणा है। घृणित वस्तुओं, घृणित चीजों या घृणित व्यक्ति को देखकर या उनके संबंध में विचार करके या उनके संबंध में सुनकर मन में उत्पन्न होने वाली घृणा को ही वीभत्स रस कहते हैं।
इसके प्रमुख अवयव–
- स्थायी भाव- जुगुप्सा / घृणा
- आलम्बन विभाव- दुर्गंधमय मांस, रक्त, अस्थि आदि।
- उद्दीपन विभाव- रक्त, मांस का सड़ना, उसमें कीड़े पड़ना, दुर्गन्ध आना, पशुओं का इन्हें नोचना खसोटना आदि।
- अनुभाव- नाक को टेढ़ा करना, मुँह बनाना, थूकना, आँखें मींचना ( बन्द करना) आदि ।
- संचारीभाव- ग्लानि, आवेश, चिंता, मोह, शंका, वैवर्ण्य, जड़ता आदि।
उदाहरण-
सिर पर बैठ्यो काग, आँख दोउ खात निकारत।
खींचत जीभहिं स्यार, अति आनंद उर धारत ॥
गीध जाँघ को खोदि-खोदि कै मांस उखारत।
स्वान अंगुरिन काटि-काटि कै खान विचारत ॥
- स्पष्टीकरण- रस- वीभत्स,
- स्थायी भाव- जुगुप्सा/ घृणा,
- आश्रय- प्रेक्षक (देखने वाला),
- विषय- स्यार, कौआ, गिद्ध, स्वान (कुत्ता)
- विषयगत उद्दीपन- कौए का लाश की आँख निकालना खाना, स्यार का जीभ को खीचना, गीध का जाँघ का माँस उखाड़ना आदि।
- बहिर्गत उद्दीपन- लाश का छत-विछत होना तथा दुर्गन्ध युक्त वातावरण
- अनुभाव- रोमांच, कंप, स्वेद, विवर्णता, स्तम्भ, नाक-भौं सिकोड़ना आदि
- संचारी भाव- ग्लानि, आवेग, अपस्मार आदि।
भयानक रस किसे कहते हैं
इसका स्थायी भाव भय होता है। डरावने दृश्यों या भयानक प्रसंगों के चित्रण से भयानक रस की उत्पत्ति होती है। इसके अन्तर्गत कम्पन, पसीना छूटना, मुँह सूखना, चिन्ता आदि के भाव उत्पन्न होते हैं।
भयानक रस के प्रमुख अवयव-
- स्थायी भाव- भय
- आलंबन विभाव- बाघ, चोर, सर्प, एकान्तस्थान, भयंकर वस्तु का दर्शन आदि ।
- उद्दीपन विभाव- भयानक वस्तु का स्वर, भयंकर स्वर आदि का डरावनापन एवं चेष्टाएँ आदि।
- अनुभाव- कम्प, स्वेद, पसीना छूटना, स्वरभंग, रोमांच, पलायन, मूर्च्छा, रुदन, चिंता होना आदि।
- संचारी भाव- चिंता, त्रास, आवेग आदि ।
उदाहरण –
उधर गरजती सिंधु लहरियाँ,
कुटिल काल के जालों सी।
चली आ रही फेन उगलती,
फन फैलाए ब्यालों सी ॥
- स्पष्टीकरण रस- भयानक रस
- स्थायी भाव- भय
- आश्रय- मनु (देवगण)
- विषय- समुद्र की लहरें
- विषयगत उद्दीपन- भयानक तरह से समुद्र की लहरों का उठना-गिरना ।
- बहिर्गत उद्दीपन- प्रलय का वातावरण
- अनुभाव- कंप, स्वेद, प्रलय, अश्रु, विवर्णता, स्वर-भंग, स्तम्भ, रोमांच आदि।
- संचारी भाव- दुःख, मोह, व्याधि, मरण, त्रास, ग्लानि, उन्माद, आवेश, अपस्मार आदि।
अद्भुत रस किसे कहते हैं
इसका स्थायी भाव विस्मय या आश्चर्य है। व्यक्ति के मन में विचित्र अथवा आश्चर्यजनक वस्तुओं को देखकर जो विस्मय (आश्चर्य) आदि के भाव उत्पन्न होते हैं, उसे ही अद्भुत रस कहते हैं। इसमें रोमांच, आँसू आना, काँपना, गद्गद् होना, आँखे फाड़कर देखने आदि के भाव व्यक्त होते हैं।
अद्भुत रस के अवयव-
- स्थायी भाव- आश्चर्य
- आलंबन विभाव- आश्चर्य उत्पन्न करने वाला पदार्थ या व्यक्ति
- उद्दीपन विभाव- आलौकिक वस्तुओं का दर्शन, श्रवण, कीर्तन आदि ।
- अनुभाव- दाँतों तले ऊँगली दबाना, रोमांच, काँपना, आँखे फाड़ कर देखना, आँसू आना आदि।
- संचारी भाव- आवेग, उत्सुकता, हर्ष, मोह आदि।
उदाहरण-
अखिल भुवन चर-अचर सब, हरि मुख में लखि मातु।
चकित भई गद्गद् वचन, विकसित दृग पुलकातु ॥
- स्पष्टीकरण रस- अद्भुत रस
- स्थायी भाव- आश्चर्य या विस्मय
- आश्रय- यशोदा
- विषय- श्रीकृष्ण
- विषयगत उद्दीपन- श्रीकृष्ण का मुँह खोलना
- बहिर्गत उद्दीपन- श्रीकृष्ण के मुँह में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का दिखाई पड़ना
- अनुभाव- स्तम्भ, रोमांच, स्वर-भंग आदि।
- संचारी भाव- उत्सुकता, हर्ष, मोह, आवेग, उन्माद, अपस्मार आदि।
शान्त रस किसे कहते हैं
इसका स्थायी भाव निर्वेद (उदासीनता) है। इस रस में तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति अथवा संसार से वैराग्य होने पर परमात्मा के वास्तविक रूप का ज्ञान होने पर मन को जो शान्ति मिलती है, उसे शान्त रस कहते हैं। शांत रस को 9वाँ रस माना जाता है। जहाँ न दुःख होता है, न द्वैष होता है, मन सांसारिक कार्यों से मुक्त हो जाता है अर्थात मनुष्य वैराग्य प्राप्त कर लेता है। ऐसी मनोस्थिति में उत्पन्न रस को शान्त रस कहा जाता है।
शान्त रस के अवयव-
- स्थायी भाव- निर्वेद
- आलंबन विभाव- परमात्मा, चिंतन एवं संसार की क्षणभंगुरता
- उद्दीपन विभाव- सत्संग, तीर्थस्थलों की यात्रा, शास्त्रों का अनुशीलन आदि।
- अनुभाव- पूरे शरीर में रोमांच, पुलक, अश्रु आदि।
- संचारी भाव- हर्ष, स्मृति, ग्लानि, निर्वेद, उद्वेग, घृति, मति, विबोध आदि।
उदाहरण-
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागौ पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय॥
- स्पष्टीकरण रस- शान्त
- स्थायी भाव- निर्वेद
- आश्रय- कबीरदास
- विषय- गुरु
- विषयगत उद्दीपन- गुरु के द्वारा ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताना।
- बहिर्गत उद्दीपन-गुरु-गोविन्द की तुलना
- अनुभाव- गुरु के चरण स्पर्श करना
- संचारी भाव- उत्सुकता, बिबोध, मति, आवेग आदि।
वात्सल्य रस किसे कहते हैं
इसका स्थायी भाव वात्सल्य रति या वत्सलता है। माता-पिता का अपने बच्चों के प्रति प्रेम, बड़ों का बच्चों के प्रति प्रेम, गुरुओं का शिष्यों के प्रति प्रेम आदि स्नेह कहलाता है, यही स्नेह का भाव वात्सल्य रस कहलाता है।
वात्सल्य रस के अवयव-
- स्थायी भाव- वत्सलता या वात्सल्य रति
- आलंबन विभाव- पुत्र, शिशु एवं शिष्य आदि
- उद्दीपन विभाव- बालक की चेष्टाएँ (क्रिया-कलाप), तुतलाना, हठ करना आदि।
- अनुभाव- स्नेह से बालक को गोद में लेना, आलिंगन करना, थपथपाना, प्यार से सिर पर हाथ फेरना आदि।
- संचारी भाव- हर्ष, गर्व, चिंता, मोह, आवेश आदि।
उदाहरण-
किलकत कान्ह घुटरुवन आवत।
मनिमय कनक नंद कै आँगन, बिंब पकरिबैं धावत ॥
किलकि हसत राजत द्वै दतियाँ, पुनि-पुनि तिहि अवगाहत।
- स्पष्टीकरण रस- वात्सल्य रस
- स्थायी भाव- वत्सलता / वात्सल्य रति
- आश्रय- यशोदा माँ विषय- श्रीकृष्ण
- विषयागत उद्दीपन- श्रीकृष्ण का घुटनों के बल बैठ जाना
- बहिर्गत उद्दीपन- हँसना, बिंब (छाया) पकड़ने के लिए दौड़ना तथा अपने दाँतों को मणियों के आँगन में ढूढ़ना।
- अनुभाव- रोमांच, स्वर भंग आदि।
- संचारी भाव- उत्सुकता, मोह, हर्ष, आवेग आदि।
भक्ति रस किसे कहते हैं
इसका स्थायी भाव भगवत विषयक रति/अनुराग है। इस रस में ईश्वर की अनुरक्ति और अनुराग का वर्णन होता है अर्थात् ईश्वर के प्रति श्रद्धा या प्रेम का वर्णन किया जाता है।
भक्ति रस के अवयव-
- स्थायी भाव- भगवत विषयक रति/अनुराग
- आलंबन विभाव- ईश्वर (परमात्मा), राम, श्रीकृष्ण आदि।
- उद्दीपन विभाव- ईश्वर (परमात्मा) के क्रिया-कलाप, भक्तों का समागम सत्संग आदि।
- अनुभाव- ईश्वर की लीलाओं (गुणों) एवं उसके नाम का गुणगान करना ।
- संचारी भाव- हर्ष, निर्वेद, स्मृति, मति आदि।
उदाहरण-
उल्टा नाम जपै जग जाना।
वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना॥
- रस- भक्ति रस
- स्थायी भाव- भगवत विषयक रति/अनुराग
- आश्रय- वाल्मीकि विषय- राम का नाम
- विषयगत उद्दीपन- राम के नाम के प्रभाव से वाल्मीकि का ब्रह्म के समान होना
- बहिर्गत उद्दीपन- शान्त वातावरण का होना।
- अनुभाव- माला फेरना, राम का नाम जपना
- संचारी भाव- निर्वेद, मति, विबोध
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