राष्ट्रीय एकता पर निबंध (Rashtriya Ekta Par Nibandh), आज भारत में विघटनकारी शक्तियों का जो नग्न ताण्डव हो रहा है, उसके कारण देश के कर्णधारों को और प्रत्येक विचारवान् नागरिक को राष्ट्रीय एकता की चिन्ता सताने लगी है। कारण राष्ट्र की प्रगति, विकास और समृद्धि के लिए राष्ट्र-जनों में एकता की परम आवश्यकता है; इससे हो राष्ट्र पर आये संकटों के बादल सहज ही छँट सकते हैं।
राष्ट्रीय एकता पर निबंध (Rashtriya Ekta Par Nibandh)

राष्ट्रीय एकता की बात करने से पूर्व हम देख लें कि राष्ट्र का स्वरूप क्या है? और राष्ट्रीयता क्या है? क्योंकि राष्ट्र और राष्ट्रीयता की पहचान के बिना राष्ट्रीय एकता. की बात करना निरी मूर्खता है, आत्म-प्रवंचना है।
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राष्ट्र का स्वरूप
राष्ट्र का निर्माण तीन तत्त्वों से होता है–भूमि, जन और जन की संस्कृति से। किसी भी राष्ट्र के निर्माण के लिए एक प्राकृतिक भूखण्ड का होना आवश्यक है। हमारे देश भारत का भी एक प्राकृतिक भूखण्ड है (सन् 1947 में उसके पूर्व और पश्चिम के भाग को काट कर अलग देश बना दिया गया।) जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में रामेश्वर तक विस्तृत है। इसमें अनेक पर्वत हैं, पठार हैं, मैदान हैं, नदियाँ और नाले हैं।
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राष्ट्र का दूसरा तत्त्व है
वहाँ निवास करने वाला जन-समूह वह जन उस धरती के वरदान स्वरूप अन्न का, जल का और वायु का सेवन करता है। भारतीयों को भी इस भूखण्ड से यह सभी वरदान प्राप्त हैं। वह इतिहास के पूर्वकाल से यहाँ निवास करता आया है। भूखण्ड के साथ वहाँ के जन का सम्बन्ध आत्मीयता का होना चाहिए। हमारे पूर्वजों एवं ऋषियों ने इसके साथ अपना सम्बन्ध माता का रखा है, न कि केवल मिट्टी और पत्थरों के एक निर्जीव ढेर का। अथर्ववेद में कहा गया है “माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः”, भूमि मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूँ। प्रभु श्रीराम ने भी ‘जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” कहकर मातृभूमि के महत्व को स्पष्ट किया है।
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राष्ट्र का तीसरा तत्त्व है
उसमें रहने वाले जनों की एक संस्कृति। संस्कृति का अर्थ है – समाज की अत्यन्त परिमार्जित स्थिति। संस्कृति ही किसी भी राष्ट्र की आत्मा है। जैसे आत्मा या प्राण के बिना शरीर निर्जीव होता है, ऐसे ही संस्कृति के बिना राष्ट्र भी निर्जीव होता है। भारत की जीवन्तता उसकी श्रेष्ठ संस्कृति के कारण ही है। भारत के जनों की एक संस्कृति है, जो विभिन्न प्रान्तों की भाषा, भूषा और खान-पान के अलग होने पर भी एक है।
यहाँ के मूल राष्ट्रीयजनों-हिन्दुओं की संस्कृति और सभ्यता की एकता उसके सोलह संस्कारों में, तीर्थाटन में, धार्मिक और आध्यात्मिक भावना में पदे पदे लक्षित होती है। राष्ट्र में रहने वाले जनों की राष्ट्र के प्रति ममत्व की भावना ही राष्ट्रीयता कहलाती है। यह भूमि मेरी माँ है, मैं इसका पुत्र हूँ, यह मेरी पुण्य भूमि है, इसकी संस्कृति ही मेरा प्राण है। यहाँ के महापुरुष, यहाँ के इतिहास, यहाँ की प्रकृति मेरे हैं; इस भावना के सुदृढ़ के होते ही व्यक्ति उसके लिए प्राण तक त्यागने के लिए तत्पर हो जाता है
आज की स्थिति में राष्ट्रजनों में राष्ट्रीय एकता की अत्यन्त आवश्यकता सभी अनुभव करते हैं, पर इसे करे कौन? पहले जैसे बताया जा चुका है; इस देश में हिन्दू इतिहास के पूर्वकाल से ही रहते आये हैं। हिन्दू संस्कृति के नाम से विश्व में विख्यात है। कालान्तर में यहाँ शक, हूण, कुषाण आदि आये, पर वे नाम शेव हो गए। पुनः आठवीं शताब्दी में मुसलमान आये, वे आक्रान्ता थे। वे अपने साथ इस्लाम को लेकर आये।
उन्होंने तलवार के बल से यहाँ राज्य भी स्थापित किए और भारत के ओर-छोर तक तलवार के ही बल पर हिन्दुओं को मुसलमान भी बनाया; वे भारतीय संस्कृति में एकाकार भी न हुए। इस्लाम उन्हें इसकी इजाजत भी नहीं देता। उन्होंने आठ सौ वर्ष शासन किया। फिर आये यूरोप के फिरंगी व्यापारी। उन्होंने एक ओर अंग्रेजी राज्य की स्थापना की तो दूसरी ओर ईसाईयत का प्रचार भी किया। फलतः भारत में आज हिन्दू, मुसलमान और ईसाई हैं। सर्वाधिक संख्या हिन्दुओं की ही है।
फिर भी अंग्रेजों के उत्तराधिकारी कांग्रेसी सत्ताधारियों ने अपने स्वार्थ के लिए धर्मनिरपेक्ष राज्य (सेक्युलर स्टेट) का और ‘मिश्रित’ संस्कृति का नारा लगाया। उसका दुष्परिणाम एक ओर भारत का विभाजन तो था ही; स्वाधीनता के पश्चात् भी ‘वोटों’ की राजनीति के कारण खिचड़ी राष्ट्रीयता की बात करनी आरम्भ कर दी। मुसलमान तो राष्ट्र की मुख्यधारा से पहले ही दूर थे; ईसाईयों ने भी यूरोपीय समाज से नाता जोड़ते हुए अपनी अलग पहचान बनाई। अपने अलग अधिकार माँगे। फलतः राष्ट्रीयता की शुद्ध भावना लुप्त हुई और राष्ट्रीय एकता भी खटाई में पड़ गई।
आज जब भी कमी राष्ट्रीय एकता की बात सत्ताधारियों द्वारा कही जाती है तो केवल लीपा-पोती ही की जाती है। क्या यह सत्य नहीं है कि यहाँ के मुसलमान और ईसाई जब तक भारत को मातृभूमि और पुण्यभूमि नहीं मानते, यहाँ की पवित्र नदियों, तीर्थों और त्यौहारों से अपना नाता नहीं जोड़ते, तब तक एकता की बड़ी-बड़ी बातें खोखली हैं। यदि नहीं तो क्यों आज भी होली पर, रामलीला की सवारी के अवसर पर, गणेशोत्सव की शोभा यात्रा पर मुसलमानों द्वारा आक्रामण किये जाते हैं और दंगे भड़कते हैं? क्यों उत्तर पूर्वी सीमा पर ईसाई अलग राज्यों की माँग करते जा रहे हैं? क्यों वे दोनों सम्प्रदाय उर्दू और अंग्रेजी को यहाँ चिरकाल तक बनाये रखना चाहते हैं? क्यों उन्हें बन्देमातरम् कहने से चिढ होती है? इसलिए कि दोनों जातियों में कुछ को छोड़कर शेष सभी कट्टरपन्थी ही है।
इधर हिन्दुओं का ही एक पंथ-सिक्ख पंथ भी आज अलगाव की बात करने लगा है तो तमिलनाडु के द्रविडमुन्नेत्र कडगम वाले हिन्दी के आधिपत्य का झूठा नारा लगाकर भारत माँ की एकता को तोड़ना चाह रहे हैं। यह अत्यन्त चिन्ताजनक और भयावह स्थिति है।
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उपसंहार
मुस्लिम भाई यह सोचें कि वे बाहरी आक्रमणकारियों की सन्तान नहीं बल्कि उनके पूर्वज हिन्दू ही थे, जो किसी कारण मुसलमान बन गए। अतः अपनी पूजा पद्धति बदले बिना भी वे अपनी मातृभूमि से, राम-कृष्ण से, गंगा-हिमालय से, होली- दीपावली से हिन्दुओं के समान ही प्यार कर सकते हैं। इसी प्रकार ईसाई भी अपने अन पूर्वजों और पर्वों से प्यार रख सकते हैं।
अतः हम यदि सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय एकता चाहते हैं तो हम में ऊपरी मन से नहीं अपितु अपने अन्तर्भन से भारत राष्ट्र की एकता के लिए प्रयत्न करना चाहिए और वह सांस्कृतिक ऐक्य से ही सम्भव होगी, अन्यथा नहीं।
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