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शचीन्द्रनाथ बख्शी का जीवन परिचय? शचीन्द्रनाथ बख्शी पर निबंध?

शचीन्द्रनाथ बख्शी का जीवन परिचय (Sachindra Nath Bakshi Ka Jeevan Parichay), बख्शी जी का जन्म 25 दिसम्बर 1904 वाराणसी में हुआ था। उनके माता-पिता बंगाल के निवासी थे, किन्तु तीर्थस्थान के प्रेमी होने के कारण काशी में जाकर बस गये थे। काशी में ही बख्शी जी की शिक्षा-दीक्षा भी हुई थी। उन्होंने काशी के प्रिन्स कालेज से इन्टर की परीक्षा पास की थी।

शचीन्द्रनाथ बख्शी का जीवन परिचय

शचीन्द्रनाथ-बख्शी-का-जीवन-परिचय

Sachindra Nath Bakshi Ka Jeevan Parichay

गुलाम देश में जीवित रहने की अपेक्षा मृत्यु की गोद में सो जाना अच्छा है।” उक्त कथन शचीन्द्रनाथ बख्शी का है। बख्शी महान क्रान्तिकारी थे। उनका जीवन तप और त्याग से पूर्ण था। उन्होंने क्रान्ति के पथ पर चल कर कई ऐसे चिह्न छोड़े थे जो प्रेरणादायक तो थे ही, साहस और वीरता युक्त भी थे। अपनी वीरता से ही उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के इतिहास में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया है। उनकी सेवाएं युग-युगों तक याद की जाएंगी।

बख्शी जी व्यायाम के बड़े प्रेमी थे। अपने विद्यार्थी जीवन में ही वे व्यायाम किया करते थे। जब वे बड़े हुए, तो उनकी व्यायाम-निष्ठा अधिक बढ़ गई। उस समय वे अपने साथियों को भी व्यायाम करने की शिक्षा दिया करते थे।

व्यायामशील होने के कारण उनका स्वास्थ्य अच्छा तो रहता ही था, उनके शरीर के अंग भी बड़े सुदृढ़ थे। बख्शी जी अपने विद्यार्थी जीवन में बड़े उन्नतमना थे। वे आनन्दमठ’ आदि पुस्तकों का अध्ययन बड़े प्रेम से किया करते थे।

‘आनन्दमठ’ को पढ़कर ही उनके हृदय से क्रान्ति की भावना का जन्म हुआ था। वे विद्यार्थी जीवन में ही सोचा करते थे, जिस प्रकार आनन्दमठ के संन्यासियों ने गोरों को देश से बाहर निकालने का प्रयत्न किया था, बड़े होने पर उसी प्रकार का प्रयत्न वे भी करेंगे।

असहयोग आन्दोलन समाप्त हो चुका था। गांधीजी ने चौरी-चौरा के हत्याकांड से दुखी होकर आन्दोलन को वापस ले लिया था। इधर असहयोग आन्दोलन बन्द हुआ और उधर बंगाल में विप्लववाद की आंधी चल पड़ी। सारे देश में विप्लववाद की गर्म हवा चले- इसके लिए बंगाल के क्रान्तिकारी प्रयत्न करने लगे। वे भारत के बड़े-बड़े नगरों में जाकर विप्लव की ज्वाला जलाने लगे।

कुछ क्रान्तिकारी वाराणसी भी पहुंचे। वे वाराणसी में रहकर क्रान्तिकारी दल का संगठन करने लगे। संयोगतः बख्शी जी का क्रान्तिकारियों से सान्निध्य हुआ। उनके हृदय में क्रान्ति के प्रति श्रद्धा तो थी ही, अतः वे क्रान्तिकारियों के दल में सम्मिलित हो गये।

1922 ई० में गया में कांग्रेस अधिवेशन हुआ बख्शी जी भी उस अधिवेशन में सम्मिलित हुए थे। कांग्रेस के बड़े-बड़े नेताओं के भाषण सुनकर उन्हें बड़ी निराशा हुई थी। उन्होंने निश्चय किया कि भारत को स्वतंत्रता इन भाषणों से नहीं मिलेगी। यदि मिलेगी, तो ईंट का जवाब ईंट से और पत्थर का जवाब पत्थर से देने से मिलेगी। गया कांग्रेस से लौटकर बख्शी जी अपने कार्य में लग गये। उन्होंने काशी में

कलकत्ता की अनुशीलन समिति की एक शाखा स्थापित की। वे ढूंढ-ढूंढ़ कर देशभक्त युवकों को समिति में भरती करने लगे और अस्त्र-शस्त्र भी एकत्र करने लगे। सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आजाद उन दिनों काशी में ही पढ़ रहे थे। वे भी अनुशीलन समिति के सदस्य बन गये। काशी के इन क्रान्तिकारियों ने कई जगह डाके डालकर रुपया एकत्र करने का प्रयत्न किया था, क्योंकि बिना धन के अस्त्र-शस्त्र नहीं खरीदे जा सकते थे। उन डाकों

में बख्शीजी का भी हाथ था। यह भी कहा जा सकता है कि वे डाके बख्शी जी की ही प्रेरणा से डाले गये थे। काशी में रहते हुए बख्शी जी ने उत्तर प्रदेश में क्रान्तिकारी दल का संगठन भी किया था। कहा जाता है कि आजाद, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, रामप्रसाद और अशफाक उल्ला आदि क्रान्तिकारियों को क्रान्तिकारी दल में लाने का श्रेय भी बख्शी जी को ही था। उन्हीं के प्रयत्नों से सारे उत्तर प्रदेश में क्रान्तिकारियों का जाल-सा बिछ गया था।

कुछ दिनों बाद क्रान्तिकारियों के छोटे-छोटे सभी दलों को मिलाकर एक बहुत बड़ी संस्था स्थापित की गई। उस संस्था का नाम हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशन था रिपब्लिकन एसोसियेशन में उत्तर प्रदेश में गठन का कार्य बख्शी जी को ही सौंपा गया था।

बख्शी जी ने वाराणसी, प्रयाग, कानपुर, लखनऊ और झांसी आदि बड़े-बड़े नगरों में बड़ी कर्मठता के साथ एसोसियेशन का प्रचार किया और उसे हर एक प्रकार से मजबूत तथा सुव्यवस्थित बनाया। झांसी के भगवानदास माहौर और सदाशिव आदि महान क्रान्तिकारी बख्शी जी के प्रयत्नों ही से क्रान्तिकारी दल में सम्मिलित हुए थे।

रिपब्लिकन एसोसियेशन सारे भारत में विप्लव की आग जला कर ब्रिटिश शासन को भस्म करना चाहती थी। इस कार्य के लिए उसे धन की आवश्यकता थी। धन के अभाव को दूर करने के लिए पहले तो गांवों में डाके डाले गये. फिर सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनाई गई।

उसी योजना के अनुसार 1924 ई० में काकोरी में ट्रेन को रोक कर सरकारी खजाने को लूट लिया गया। सरकारी खजाने को लूटने में रामप्रसाद बिस्मिल के साथ चख्शी जी भी थे। सरकारी खजाने को लूटने के अपराध में बहुत से क्रांतिकारी बन्दी बनाये गये मुकद्दमा चलने पर रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और रोशनसिंह को फांसी की सजा दी गयी थी पर कुछ प्रमाण न मिलने के कारण छोड़ दिये गये थे।

किन्तु बख्शी जी गिरफ्तार नहीं किये जा सके। वे अदृश्य हो गये। वे कुछ दिनों तक फरारी की हालत में इधर-उधर घूमते रहे। घूमते हुए करांची पहुंचे। उन्होंने करांची से विदेश जाने का प्रयत्न किया, किन्तु उन्हें सफलता प्राप्त नहीं हुई।

बख्शी जी करांची से संन्यासी के वेश में कानपुर गये उन दिनों कानपुर में सरदार भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त रहते थे। बख्शी जी कुछ दिनों तक कानपुर में भगतसिंह जी के साथ रहे। उसके बाद वे बम्बई चले गये। बम्बई में जहाजी मल्लाहों में भरती होकर जाने का प्रयत्न करने लगे। पुनः विदेश

इन्हीं दिनों बख्शीजी की भेंट केशवचन्द्र से हुई। केशवचन्द्र भी काकोरी ट्रेन डकैती केस के एक फरार अपराधी थे। उन्होंने बख्शी जी को सलाह दी कि उन्हें विदेश न जाकर उत्तर प्रदेश लौट जाना चाहिए और काकोरी ट्रेन डकैती के अपने साथियों को छुड़ाने का प्रयत्न करना चाहिए। बख्शी जी ने इस सम्बन्ध में वीर सावरकर के बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर से सलाह ली। उन्होंने भी उन्हें यही सलाह दी कि उन्हें

उत्तर प्रदेश जाकर अपने साथियों को छुड़ाने का प्रयत्न करना चाहिए। फलतः बख्शी जी बम्बई से प्रयाग गये और प्रयाग में रहकर अपने साथियों को छुड़ाने के लिए साधन एकत्र करने लगे। किन्तु अधिक प्रयत्न करने पर भी वे साधन नहीं जुटा पाये। अतः उन्हें बड़ी निराशा हुई।

बख्शी जी निराश होकर बंगाल चले गये। कुछ दिनों तक इधर-उधर घूमते रहे, फिर भागलपुर में जाकर रहने लगे। भागलपुर में ही वे गिरफ्तार किये गये। उन पर मुकद्दमा चलाया गया। मुकद्दमे में उन्हें कालेपानी की सजा दी गयी।

बख्शी जी को कालेपानी का दण्ड भोगने के लिए अंडमान भेज दिया गया। अंडमान के कारागार में जब उन्हें यातनाएं दी जाने लगीं, तब उन्होंने भूख हड़ताल की। उनकी भूख हड़ताल से सरकार विचलित हो उठी।

इसके पूर्व भी एक बार उन्होंने बरेली जेल में भूख हड़ताल की थी। भूख हड़ताल अधिक दिनों तक चली थी। एक दिन तो नगर में यह खबर तक फैल गयी कि भूख हड़ताल के कारण बख्शी जी की जेल में मृत्यु हो गयी। फलत: हजारों मनुष्य नारे लगाते हुए जेल के फाटक पर पहुंचे और बख्शी जी की लाश की मांग करने लगे।

आखिर, जेल के अधिकारियों को बख्शी जी को फाटक पर लाना पड़ा। बख्शी जी ने फाटक पर एकत्र जनता को सम्बोधित करते हुए कहा, मैं अभी जीवित हूं। अंग्रेजी सरकार को मिट्टी में मिला करके ही मरूंगा।

1937 ई० में प्रथम कांग्रेसी मंत्रिमंडल की स्थापना हुई। कांग्रेस की सरकार के प्रयत्नों से बख्शी जी को छोड़ देना पड़ा। छूटने पर वे कांग्रेस में सम्मिलित हो गये। उनके और कांग्रेस के विचारों में मौलिक मतभेद था। अतः वे कुछ दिनों के बाद ही कांग्रेस से पृथक् हो गये। उन्होंने अपना शेष जीवन काशी में व्यतीत किया। वे जब तक जीवित रहे, देश की स्वतंत्रता के लिए बराबर प्रयत्न करते रहे। उनकी सेवाओं ने उन्हें अमर बना दिया है।

बख्शी जी के साहस और वीरता की कई कहानियां सुनने को मिलती हैं। उन्हीं कहानियों में से एक कहानी इस प्रकार है- उन दिनों बख्शी जी फरारी की दशा में थे। एक दिन उन्होंने एक अखबार में खबर पढ़ी। खबर का शीर्षक था-

‘प्रसिद्ध क्रान्तिकारी शचीन्द्रनाथ बख्शी के घर पर डाका’ शीर्षक के नीचे छपा था- पुलिस बख्शी जी के घर पर छापा मार कर उनके घर का बहुत-सा सामान उठा ले गयी। बख्शी जी ने शीघ्र ही काशी के पुलिस कप्तान और मजिस्ट्रेट को गुमनाम पत्र भेजा- “मैं अभी भरा नहीं हूं, जीवित हूं। क्रान्तिकारी बदला लिये बिना नहीं रहता।” फल यह हुआ कि पुलिस ने सारा सामान उनके पिता को लौटा दिया। इनकी मृत्यु 23 नवम्बर 1984 को हुई थी।

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