सरदार अजीत सिंह का जीवन परिचय (Sardar Ajit Singh Ka Jeevan Parichay), सरदार अजीत सिंह का जन्म जन्म 23 फ़रवरी, 1881 को पंजाब के लायलपुर ज़िला में हुआ था। इनकी मृत्यु 12 जनवरी, 1924 को हुई थी। पंजाब की धरती वीर-प्रसविनी है। प्राचीन काल से लेकर अब तक पंजाब की धरती की गोद में अनेक वीर और महान पुरुष पैदा हो चुके हैं। ऐसे वीर और महान पुरुष पैदा हो चुके हैं, जिन्होंने अपना मस्तक ऊंचा तो किया ही है, देश और सम्पूर्ण मानवता का भी मस्तक ऊंचा किया है।
सरदार अजीत सिंह का जीवन परिचय

Sardar Ajit Singh Ka Jeevan Parichay
पूरा नाम | सरदार अजीत सिंह |
जन्म | 23 फ़रवरी, 1881 |
जन्म स्थान | लायलपुर ज़िला, पंजाब |
पत्नी का नाम | हरनाम कौर |
मृत्यु | 12 जनवरी, 1924 |
गुरु तेगबहादुर गुरु गोविन्द सिंह और बन्दा वैरागी आदि वीरों तथा महान पुरुषों का जन्म पंजाब की धरती की कोख से ही हुआ था। गुरु नानक ने भी पंजाब की ही धरती की कोख से जन्म लेकर अमर ज्ञान का प्रकाश विश्व को प्रदान किया। उनकी वाणियां ईश्वरीय ज्ञान के प्रकाश से पवित्र हैं।
सरदार अजीत सिंह ने भी पंजाब की ही धरती की गोद में जन्म धारण किया था। वे महान देश-भक्त थे, महान त्यागी थे, उन्होंने देश के चरणों पर अपना सब कुछ निछावर कर दिया था। उन्होंने देश के लिए ही काले पानी की अंधकारपूर्ण कोठरी में कई वर्षों तक रह कर, बड़े-बड़े कष्ट सहन किये।
उनके तप और त्याग के फलस्वरूप ही महान देश-भक्त भगत सिंह ने उनके कुटुम्ब में जन्म लेकर देश के चरणों पर अपने को निछावर कर दिया। उनका तप, उनका त्याग और उनका साहस धन्य था। भारत के निवासी युग-युगों तक उन्हें याद करते रहेंगे।
पंजाबी के एक कवि ने सरदार अजीत सिंह के तप और त्याग का वर्णन बड़े ही सुन्दर शब्दों में किया है। उस कविता का भावार्थ इस प्रकार है- “हे सरदार अजीत सिंह, काले पानी की अंधेरी कोठरी में तुमने जो तप किया था, उसी के फलस्वरूप आज हमें स्वतंत्रता का दर्शन हुआ है। हे महावीर, हम तुम्हें कभी नहीं भूलेंगे, कभी भी नहीं भूलेंगे।”
सरदार अजीत सिंह का जन्म लायलपुर में हुआ था। आजकल लायलपुर पाकिस्तान के अन्तर्गत है। अजीत सिंह के पिता का नाम अर्जुन सिंह था। अर्जुन सिंह एक कुशल हकीम थे। वे जिस रोगी की नब्ज पकड़ते थे, उसका आधा रोग उसी समय दूर हो जाता था। उनके सम्बन्ध में प्रायः लोग कहा करते थे-“हकीम अर्जुन सिंह के हाथों में ईश्वरीय चमत्कार है!”
हकीम अर्जुन सिंह बड़े भाग्यशाली थे। उनके तीन पुत्र थे- सरदार अजीत सिंह, सरदार किशन सिंह और सरदार स्वर्ण सिंह। उनके तीनों पुत्र देश-भक्त, साहसी और त्यागी थे। सरदार अजीत सिंह महान देश भक्त और शूरवीर थे। सरदार किशन सिंह ने भी राष्ट्र सेवा के यज्ञ में अपनी आहुति दे दी थी। सरदार स्वर्ण सिंह ने भी जेल की कोठरी में ही 1910 ई० में अपनी सांस तोड़ दी थीं।
अमर शहीद भगत सिंह सरदार किशन सिंह के ही पुत्र थे। अजीत सिंह उनके चाचा थे। इस तरह अजीत सिंह का पूरा कुटुम्ब देश-भक्तों का कुटुम्ब था। उनका और उनके कुटुम्ब का यह देश चिर ऋणी रहेगा।
सरदार अजीत सिंह जन्मजात देश-भक्त थे। बाल्यावस्था में ही उनके हृदय में देश-प्रेम का अंकुर पैदा हो उठा था। ज्यों-ज्यों वे वय की सीढ़ियां लांघते गये, त्यों त्यों उनके देश-प्रेम की लता भी बढ़ने लगो, पल्लवित और पुष्पित होने लगी। युवावस्था तक पहुंचते-पहुंचते वे पूर्ण देशानुरागी बन गये थे। उन्हें पंजाबी और उर्दू की अच्छी शिक्षा प्राप्त हुई थी। वे साधारण हिन्दी-अंग्रेजी भी जानते थे।
अजीत सिंह की देश भक्ति उस समय प्रकट हुई, जब नहर के पानी की आबपाशी बढ़ाई गयी। लायलपुर के आस-पास कुछ नई बस्तियां बसाई गई थीं। दूर दूर से लोगों को लाकर उनमें बसाया गया था। वे लोग नहर के पानी से अपने खेतों की सिंचाई तो करते ही थे, अन्य आवश्यक कार्य भी करते थे।
सरकार की नीयत बिगड़ गई। उसने नहर के पानी की आवपाशी की दर बढ़ा दी। पानी का उपभोग करने वालों की आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं थी। वे बढ़ी हुई दर के अनुसार भुगतान करने में असमर्थ थे।
अजीत सिंह ने बढ़ी हुई दर का विरोध किया। जब उनके विरोध का प्रभाव सरकार पर नहीं पड़ा, तो उन्होंने उपभोक्ताओं को सलाह दी कि वे आबपाशी न दें। आखिर इस विरोध का प्रभाव सरकार पर पड़ा और उसने बढ़ी हुई दर वापस ले ली।
इस तरह सरदार अजीत सिंह पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने करबन्दी के आन्दोलन को चलाया था और उस आन्दोलन का सम्बन्ध देश की स्वतंत्रता से जोड़ा था। उनके उस आन्दोलन के बाद ही स्वतंत्रता आन्दोलनों में करबन्दी को भी स्थान दिया गया था।
1907 ई० में गोरी सरकार ने खेती के सम्बन्ध में एक ऐसा कानून बनाया जो किसानों के लिए बड़ा अहितकर था। अजीत सिंह ने उस कानून का विरोध किया। उन्होंने उस कानून के विरोध में किसानों को संगठित किया और विरोध को आन्दोलन का रूप दिया।
पूरे पंजाब में एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक आन्दोलन की आंधी चल पड़ी। सरकार अपने होश खोकर दमन-चक्र चलाने लगी। सूफी अम्बाप्रसाद, किशन सिंह, लालचन्द फलक और पिंडीदास आदि नेता बन्दी बना लिये गये।
किसानों का आन्दोलन बड़ा अद्भुत आन्दोलन था। गांव-गांव, घर-घर से आवाज निकलने लगी थी- पगड़ी संभाल जट्टा। इन्कलाब जिन्दाबाद और भारत माता की जय के नारों से सारा पंजाब गूंज उठा था। गोरी सरकार की दृष्टि पहले से ही अजीत सिंह पर थी। उन्होंने भारत माता सोसायटी स्थापित करके अपने को गोरी सरकार को अखिों का कांटा बना लिया था।
अतः जय किसानों के आन्दोलनों ने जोर पकड़ा तो 1907 ई० को 10 मई को अजीत सिंह को बन्दी बनाकर देश में बाहर मांडले भेज दिया। उनके साथ ही लाला लाजपतराय जी को भी गिरफ्तार करके देश से निर्वासित कर दिया गया था।
अजीत सिंह कई वर्षों तक मांडले की जेल में रहे। जेल में उन्हें बड़े-बड़े कष्ट भोगने पड़े, बड़ी-बड़ी यंत्रणाएं सहनी पड़ीं, किन्तु वे विचलित नहीं हुए। भारत में जब उनके निर्वासन के विरुद्ध आवाज उठाई गई, और बड़े-बड़े नेता उनके तथा लाला लाजपतरायजी के छुटकारे की मांग करने लगे, तो वे और लालाजी- दोनों नेता छोड़ दिये गये।
अजीत सिंह ने मांडले से लौट कर पुनः स्वतंत्रता के लिए कार्य करना प्रारंभ किया पर सरकारी गुप्तचर उनके पीछे लगे रहते थे। उनका चलना-फिरना, उनका किसी से मलना-जुलना कठिन हो गया था। उन्होंने अनुभव किया कि अब वे भारत में रहकर भारत की स्वतंत्रता के लिए कोई कार्य नहीं कर सकते। अतः वे गुप्त रूप से सूफी अम्बाप्रसाद के साथ ईरान चले गये।
अजीत सिंह कई वर्षों तक ईरान में रहे। 1914 ई० में जब विश्व का प्रथम युद्ध आरंभ हुआ, तो वे ईरान से तुर्किस्तान चले गये और तुर्किस्तान से बर्लिन गये। उन्होंने लाला हरदयालजी के साथ मिलकर बर्लिन में भी स्वतंत्रता के लिए कार्य किये। बर्लिन से वे स्पेन, ब्राजील और दक्षिण अमेरिका गये। दक्षिण अमेरिका में भी उन्होंने कई ऐसे कार्य किये, जो बड़े साहसिक और देश-भक्तिपूर्ण थे।
द्वितीय महायुद्ध के दिनों में अजीत सिंह दक्षिण अमेरिका से इटली गये। उन्होंने इटली रेडियो से भारतवासियों को सलाह दी कि उन्हें इस समय स्वतंत्रता के लिए विद्रोह कर देना चाहिए। उन दिनों नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जापान में थे, आजाद हिन्द फौज के संगठन में लगे हुए थे। अजीत सिंह जी ने उनसे मिलकर कई योजनाएं बनाई थीं।
द्वितीय महायुद्ध में जब अंग्रेज विजयी हुए और इटली पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया, तो अजीत सिंह बन्दी बना लिये गये। वे कई वर्षों तक अंग्रेजों के बन्दी रहे। 1947 ई० की 15 अगस्त को जब भारत स्वतंत्र हुआ, तो उन्हें छोड़ दिया गया।
वे अपना शेष जीवन व्यतीत करके भारत की मिट्टी की शय्या पर सदा के लिए सो जाना चाहते थे; किन्तु बीच में ही उनका स्वास्थ्य खराब हो गया, वे स्वास्थ्य के सुधार के उद्देश्य से डलहौजी चले गये। डलहौजी में ही उनकी अमर आत्मा उनके शरीर के पिंजरे से निकल गई। इनकी मृत्यु 12 जनवरी, 1924 को हुई थी।
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