सरोजिनी नायडू का जीवन परिचय: ‘भारत-कोकिला’ के नाम से प्रसिद्ध श्रीमती सरोजिनी नायडू का जन्म 13 फरवरी 1879 में हुआ था। वे एक जन्मजात कवयित्री थीं। 12 वर्ष की आयु में लिखी गई कविताओं की भी लोगों ने बड़ी प्रशंसा की। उनकी शिक्षा-दीक्षा भी विशेष रूप से में हुई थी और वे वहाँ शिष्टाचार और के में पारंगत थीं। सरोजिनी नायडू पर निबंध हिंदी में।
सरोजिनी नायडू का जीवन परिचय

Sarojini Naidu Biography in Hindi
मुख्य बिंदु | जानकारी |
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नाम | सरोजिनी नायडू |
जन्म | 13 फरवरी 1879 |
जन्म स्थान | हैदराबाद, भारत |
पिता का नाम | डॉ अघोरनाथ चटोपाध्या |
माता का नाम | वारद सुन्दरी देवी |
कार्य | कवि एवं स्वतंत्रता संग्रामी |
विवाह | 1897 |
पति का नाम | डॉ गोविन्द राजुलू नायडू |
बेटे-बेटी | पद्मजा, रणधीर, लिलामानी, निलावर, जयसूर्या नायडू |
मृत्यु | 2 मार्च 1949 |
मृत्यु स्थान | लखनऊ, UP, भारत |
सरोजिनी नायडू की शिक्षा
सरोजिनी नायडू भारतीय संस्कृति को ही सर्वश्रेष्ठ मानती थीं और उसके लिए उनको बड़ा गौरव था। इसका वे कितना अधिक ध्यान रखती थीं, इसका कुछ आभास एक भारतीय पत्रकार के निम्न संस्मरण से हो कसता है।
श्री नामक युवक को छात्रवृत्ति अमेरिका जाकर पत्रकारिता की उच्च शिक्षा प्राप्त करने को दी गई। विदेशों के रहन-सहन कोई अनुभव न होने से उन्होंने नायडू से की और कहा “मैं ऐसी सूचनाओं की तलाश में हूँ, जिनसे अमेरिका की सही झाँकी मुझे सके। में कई लोगों से कर चुका पुस्तकें भी काफी संख्या में पढ़ डाली हैं। मेरी इच्छा है कि जब मैं वहाँ की जमीन पैर रखूँ तो कोई मुझे वहाँ की सभ्यता, संस्कृति से अनभिज्ञ न समझ पाये ?”
श्रीमती “लेकिन विषय में तुमने कितनी संग्रहीत की है? मुझे मालूम है, तुम्हें पढ़ने-लिखने का शौक है। गीता से लेकर गौतम और गाँधी तक सबको पढ़ चुके होगे इसका भी मैं विश्वास कर सकती हूँ। लेकिन अपनी उस धरती, उस धरती वाले लोगों के बारे में तुम्हें कितनी जानकारी है, जिस पर तुम खुद पैदा हो, पले, पनपे और बढ़े हो? तुम्हें इस बात पर विश्वास है कि क्या तुम विदेश पहुँचकर अपने प्रदेश का प्रतिनिधित्व कर सकोगे?”
यह थी श्रीमती सरोजिनी की विचारधारा, जिसने उन्हें भारत की एक पुत्री बना दिया था। वे कहती थीं कोई सीमा नहीं है और संकुचितता को संसार का सब तरह जितना अधिक ज्ञान प्राप्त किया जा सके, करना अच्छा ही है। पर यदि सभ्यता-संस्कृति की जानकारी की धुन में अपनी सभ्यता को भूल जाये, तो यह एक अपराध होगा।
श्रीमती नायडू यद्यपि बंगाली थीं, पर उनके पूर्वज बहुत समय पहले हैदराबाद (दक्खिन) में आ बसे थे। सरोजिनी के पिता डॉ. अघोरनाथ चट्टोपाध्याय का जन्म हैदराबाद में ही हुआ था और वे वहाँ पर एक बड़े सरकारी पद पर काम करते थे।
वे स्वयं बड़े विद्वान थे और इंग्लैंड जाकर उन्होंने विज्ञान की सर्वोच्च उपाधि डी. एस-सी. प्राप्त की थी। इसलिए सरोजिनी को आरंभ से ही अंग्रेजी भाषा और रहन-सहन से परिचित होने का सुयोग प्राप्त हो गया। कुछ बड़ी हो जाने पर तो अघोरनाथजी ने सरोजिनी नायडू पढ़ाने के लिए अंग्रेजी शिक्षिका रख दी थी।
सरोजिनी पढ़ने में काफी परिश्रम करती थीं। इसके फलस्वरूप उन्होंने बारह वर्ष की आयु में मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली। उसी समय उनकी एक रचना पर प्रसन्न होकर, हैदराबाद के नवाब ने उनको विलायत जाकर अध्ययन करने के लिए एक बड़ी छात्रवृत्ति दे दी, जिससे वह चौदह वर्ष की आयु में ही वहाँ पहुँचकर किंग्स कॉलेज में दाखिल हो गई।
सरोजिनी नायडू का देश-सेवा की लगन
इस तरह आरंभ से ही विदेशी वातावरण में रहने से अनेक लोगों को यह आशंका होने लगती है कि ऐसा व्यक्ति अपनी जातीयता के प्रति उपेक्षा प्रदर्शित करने लग जायेगा। इसमें संदेह नहीं कि यह आशंका सर्वथा निर्मूल नहीं है और गत सौ पचास वर्षों में बहुसंख्यक व्यक्ति उच्च अंग्रेजी शिक्षा पाकर ‘काले अंग्रेज’ बन चुके हैं।
पर यह आक्षेप सब लोगों पर लागू नहीं होता, वरन् अरविंद, सरोजिनी नायडू और सुभाष बाबू के उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि जो प्रतिभाशाली वास्तव में ज्ञान की उच्च चोटी पर पहुँच जायेगा, वह अपनी जातीयता का और भी अधिक सुदृढ़ अनुयायी बन जायेगा। श्रीमती सरोजिनी के संबंध में यह बात पूरी तरह से सत्य सिद्ध हुई।
सन् 1898 में इंग्लैंड से लौटने पर उन्होंने मेजर नायडू से विवाह कर लिया और इसके 4 वर्ष बाद ही उनका ध्यान भारतीय राजनीति की तरफ आकर्षित होने लग गया। सन् 1908 में जब वे भारत के प्रसिद्ध नेता स्व. श्री गोखले से मिलीं, तो उन्होंने इनसे कहा “यहाँ मेरे साथ खड़ी हो जाओ और इन तारों तथा पहाड़ियों को साक्षी बनाकर अपना जीवन, योग्यता, विचार, स्वप्न और सभी कुछ भारत किसानों को अर्पित दो। हे कवयित्री! पहाड़ी चोटी से महान् के दर्शन करके तुम भारत के सहस्रों में बसे हुए का संदेश फैला दो। तभी तुम्हारी यह दैव प्रदत्त अनुपम काव्य-शक्ति सार्थक सकेगी।”
यही मार्ग है, जिस पर चलकर सच्ची आत्मा वाले का कर्तव्यपरायण व्यक्ति सांत्वना शक्ति मिल सकती है। अगर मनुष्य अपनी योग्यता सामर्थ्य उपयोग ही लिए करता समाज के उत्थान उपकार ध्यान नहीं रखता, वह कभी वास्तविक सम्मान अधिकारी हो सकता।
श्रीमती नायडू इस तथ्य को आरंभ से ही समझ लिया था इसलिए संपन्न घराने सुकुमार सुसंस्कृत होते भी उन्होंने देशसेवा उस मार्ग को चुना, जिसमें और तपस्या अनिवार्य आवश्यकता है। जब उनसे यह प्रश्न किया गया कि एक प्रसिद्ध कवयित्री हुए भी राजनीति कार्य में भाग लेना स्वीकार तो उन्होंने कहा “बार-बार ने मुझसे प्रश्न किया है।
कि तुम कवियों के स्वप्नलोक हस्तिदंत-निर्मित के उच्च शिखर को छोड़कर हाट-बाजार क्यों उतर आई हो? क्यों काव्य की गायिका मुरलिया रूप छोड़कर लोगों की रणभेरी के लिए अग्रसर हुई हो, जो युद्ध के लिए आह्वान रहे हैं? मेरा उत्तर यह है कि कवि का कर्तव्य गुलाब पुष्प वाटिका स्थित निर्मित के एकांत दुनिया अलग रहना नहीं है, बल्कि उसका स्थान सर्वसाधारण बीच सड़क की धूलि में है।
उसका तो बँधा है, के उतार-चढ़ाव साथ ही सच तो यह है कि उसके कवि होने सार्थकता इसमें है कि संकट की घड़ी निराशा पराजय के में, वह भविष्य निर्माण स्वप्न देखने वालों का साहस और का संदेश दे सके। सरोजिनी नायडू का जीवन परिचय
इसलिए की इस घड़ी में, जबकि देश के विजय करना तुम्हारे ही हाथों में है, में एक स्त्री, अपना घर, छोड़कर खड़ी हुई हूँ इस हाट-बाजार और मैं, जो कि स्वप्नों की दुनिया विचरने वाली रही, आज यहाँ खड़ी होकर रही हूँ साथियों, आगे बढ़ो और विजय राजनीति के क्षेत्र प्रवेश करने से पहले श्रीमती सरोजिनी ने इसके उतार-चढ़ाव पर अच्छी तरह विचार कर लिया था।
वे जानती कि इस प्रकार का परिवर्तन हो जाने आज अंग्रेज उनके प्रशंसक पुरस्कर्ता रहे हैं, विरोधी बन जायेंगे खासकर भारत सरकार स्वराज्य के आंदोलन करने वालों जिस निगाह से देखती थी, उसको समझते हुए इस क्षेत्र उस समय कठिनाई और हानि के अतिरिक्त और कोई आशा नहीं थी।
फिर जब उन्होंने देखा कि हमारा देश पर दिन गरीब बनता रहा जिससे करोड़ों लोगों को भरपेट अन्न और वस्त्र भी मिलते। लाखों बालक कूड़े उठाकर चाहे खा हैं, स्त्रियाँ वस्त्राभाव तरह लज्जा-निवारण भी नहीं सकतीं।
ऐसी दशा सुरम्य प्राकृतिक दृश्यों अवलोकन करके मधुर कविता बनाते रहना, निरर्थक नहीं कर्तव्यहीनता है। समय में प्रत्येक नर-नारी कर्तव्य कि उसके विचार, रुचि, उद्देश्य उद्धार लिए यथाशक्ति प्रयत्न अवश्य करे।
यही विचार करके वे कांग्रेस भाग लेने लगीं। धीरे-धीरे उनका प्रभाव देश जनता पर पड़ने लगा। स्त्री होने और स्वर-माधुर्य से श्रोतागण उनके भाषण सुनने को उत्सुक रहते और कुछ समय बाद सभा-सम्मेलनों में उनकी इतनी माँग होने लगी कि उसकी पूर्ति सकना भी कठिन हो सन् 1907 से तक कांग्रेस नरमदल वालों का अधिकार रहा, जिसके नेता गोखले, फीरोजशाह मेहता, वी. बाचा, तेजबहादुर सप्रू आदि थे। इसलिए उन्हीं के सिद्धांतानुसार मांगों को पूरा का आंदोलन रहती थीं।
फिर जब श्रीमती वेकेंट ने होमरूल आंदोलन चलाया तो उनका साथ लगी और इंग्लैंड जाकर भारतीय माँगों के पक्ष जोरदार किया। श्रीमती नायडू विशेष रूप जाँच करने वाली कमेटी के सामने भारतीय स्त्रियों पक्ष उपस्थित किया।
कार्य को उन्होंने कहा- “यदि अनुचित न समझा जाये तो मैं यह कहूँगा कि आपके आने से हमारे ‘नीरस साहित्य में सरस कविता की एक रेखा मिल गई।” उन्होंने भारतीय स्त्रियों के पक्ष में विलायत की सभाओं में अनेक प्रभावशाली भाषण भी दिये।
असहयोग आंदोलन में सरोजिनी नायडू की भूमिका
वे अभी इंग्लैंड में काम कर ही रही थीं कि गाँधीजी ने भारतवर्ष में असहयोग आंदोलन का शंखनाद कर दिया। ऐसे अवसर पर उनको देश से बाहर रहना ठीक न जान पड़ा। बस वे तुरंत भारत चली आई और महात्मा गाँधी के संदेश को चारों ओर घूमकर नगर-नगर में पहुँचाने लगीं।
इस संबंध में उन्होंने इनता अधिक काम किया कि वे बीमार पड़ गई। इसके बाद डॉक्टरों की सलाह से उनको पुनः इंग्लैंड जाना पड़ा। पर वहाँ पहुँचकर भी वे चुपचाप नहीं बैठी रहीं। उन्होंने जलियाँवाला हत्याकांड और पंजाब के अन्य नगरों में होने वाले अत्याचारों के संबंध में इतना अधिक प्रचार किया कि वहाँ की जनता सब बातों को समझकर सरकारी।
नीति के विरुद्ध हो गई। नतीजा यह हुआ कि पार्लियामेंट में इस संबंध में सवालों की झड़ी लग गई। अंत में सरकार को अपनी भूल स्वीकार करके कहना पड़ा कि भारतीय अधिकारियों ने बड़ी गलती की है। सरोजिनी नायडू का जीवन परिचय
इन्हीं दिनों भारतीय मुसलमानों का एक डेप्युटेशन ‘खिलाफत’ के संबंध में विलायत गया था। उसने ब्रिटिश सरकार से कहा कि अगर वह ‘खिलाफत’ का अंत करने की कोई कार्रवाई करेगा तो भारत के मुसलमान भी अंग्रेजों के विरुद्ध हो जायेंगे।
श्रीमती नायडू ने भी इस डेप्युटेशन को सहयोग दिया और कहा कि यदि ‘खिलाफत आंदोलन आरंभ किया गया तो वह केवल मुसलमानों का ही नहीं होगा, वरन् हिंदू भी उसमें भाग लेंगे, क्योंकि हम जिस प्रकार अपनी स्वाधीनता की माँग करते हैं, उसी प्रकार दूसरों की स्वाधीनता की भी कदर करते हैं।
हम इस बात को पसंद नहीं करते कि सैनिक शक्ति की दृष्टि से बलवान् देश किसी निर्बल देश को अन्यायपूर्वक दवाने की चेष्टा करें। संसार में छोटे बड़े सभी को अपने घर में बिना किसी प्रकार के बाह्य हस्तक्षेप के रह सकने का अधिकार मिलना चाहिए।
इस विदेश यात्रा के अवसर पर योरोप में होने वाले ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन’ में भी आपने भाग लिया। आपके भाषण का वहाँ इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि भारत के संबंध में सब प्रतिनिधियों की धारणा ही बदल गई।
अभी तक तो अंग्रेज लेखक उनको यही बतलाया करते थे कि भारत एक पिछड़ा हुआ देश है, और हम वहाँ के अर्द्धसभ्य लोगों को शिक्षा देकर सभ्य और सुसंस्कृत बन रहे हैं। पर जब उन्होंने श्रीमती सरोजिनी का विद्वतापूर्ण भाषण सुना और अनुभव किया कि उनका अंग्रेजी भाषा और साहित्य पर इतना अधिकार है,
जितना कि अनेक अंग्रेजी विद्वानों को भी नहीं है, तो उनका भ्रम दूर हो गया। वे कहने लगीं कि जिस देश में ऐसी विदुषी महिलाएँ हो सकती हैं, उसे ‘असभ्य’ कैसे कहा जा सकता है? सम्मेलन में श्रीमती नायडू की भारतीय वेशभूषा का भी बड़ा प्रभाव पड़ा और योरोप की स्त्रियों में भी इस देश में पहनी जाने वाली साड़ी के प्रति आकर्षण उत्पन्न होने लगा।
भारत सरकार से संघर्ष
इधर श्रीमती नायडू विलायत में भारत के स्वराज्य आंदोलन का समर्थन करके वहाँ की जनता को उसके पक्ष में कर रही थीं और उधर भारत में असहयोग आंदोलन गंभीर रूप धारण करता चला जा रहा था। यह देखकर वे शीघ्र ही वापस आई और गाँधीजी द्वारा प्रस्तुत किये गये असहयोग आंदोलन के प्रतिज्ञा पत्र पर सबसे पहले उन्होंने हस्ताक्षर किये।
उनके अनुसार उन्होंने अपनी ‘कैसरे हिंद’ की उपाधि, जिसको उस जमाने में एक बड़ी प्रतिष्ठा की चीज माना जाता था, त्याग दी और इस संबंध में भारत के वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड को एक पत्र में लिखा
“इस समय कितने ही वर्षों से भारतीय जाति को असहाय समझकर अपमानित किया जा रहा है। उसका घोर दमन किया जा रहा है और उसके साथ जो प्रतिज्ञाएँ की गई थीं, वे भंग की जा रही हैं। इन सब बातों के अतिरिक्त दो और बड़े पाप किये गये हैं।
एक तो पंजाब का हत्याकांड और दूसरा मुसलमानों को ‘खिलाफत’ के संबंध में दिये गए आश्वासन की अवहेलना। यह मेरे सम्मान और विचारों के प्रतिकूल बात होगी कि में इन अत्याचारों को देखती रहूँ और उस सरकार का, जो ब्रिटिश न्याय का तिरस्कार कर रही समर्थन करती रहूँ।”
राजनीतिक क्षेत्र प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं होता कि यह अन्यायी विरुद्ध शस्त्र लेकर खड़ा हो जाये और उसे उचित दंड दे। पर उससे संपर्क रखना, उसकी नीति का खुले रूप विरोध करना, प्रत्येक न्यायप्रिय और अपनी आत्मा के प्रति सच्चे मनुष्य के लिए संभव है।
श्रीमती नायडू उसी मार्ग का अवलंबन किया और भारत सरकार की अन्यायपूर्ण नीति प्रति अपनी विरोधी भावना उसकी प्रदान की हुई उपाधि को लौटाकर स्पष्ट कर दी। सरोजिनी नायडू का जीवन परिचय
अब असहयोग ने एक घमासान आंदोलन का रूप धारण कर लिया था और श्रीमती नायडू अपने आपको पूर्णतया इस कार्य के लिए अर्पित कर दिया था। विनोद में कहा करती थीं कि- “मैं तो गाँधी रूपी कृष्ण की मुरली हूँ।”
और वास्तव में उन्होंने गाँधीजी के संदेश को देश भर में फैलाने में और उनके प्रत्येक कार्य में सहायता पहुंचाते रहने में इतना अधिक परिश्रम किया कि उसका अनुमान किया जा सकना भी कठिन है।
उसी समय विलायत से ‘प्रिंस ऑफ वेल्स’ भारत यात्रा के लिए आये। कांग्रेस ने सरकारी दुर्व्यवहारों के विरोध में उनके स्वागत का बहिष्कार करने का निश्चय किया और इसमें बहुत बड़ी सफलता भी मिली। भारत सरकार इस पर बहुत अधिक नाराज हुई और कहा यह ‘ब्रिटिश सिंहासन और सम्राटू’ का अपमान है।
उसने कांग्रेस से बदला लेने के लिए बंबई में हिंदू-मुस्लिम दंगा करा दिया। इस भयंकर अवसर पर श्रीमती नायडू बड़े साहस के साथ खतरे के स्थानों में जाकर बलवा को शांत कराया और दोनों संप्रदायों के लड़ने वाले नेताओं को समझाकर मेल कराया।
इसके कुछ समय बाद ही सरकार ने लोगों को भड़काकर दक्षिण में 6 मोपला-विद्रोह’ करा दिया, जहाँ पर हिंदुओं पर अनेक अत्याचार किये गए। श्रीमती नायडू ने सरकार के इस षड्यंत्र का प्रमाणों सहित ऐसा भंडाफोड़ किया कि मद्रास की सरकार की सर्वत्र बदनामी होने लगी।
उसने इनसे अपना भाषण वापस लेने को कहा तो उत्तर दिया गया- “यदि सरकार मेरा बयान झूठ समझती है, तो वह मुझ पर मुकदमा चलावे।” पर सरकार तो वास्तव में दोषी थी, इसलिए चुप रह गई। जब चौरीचौरा की दुर्घटना के पश्चात् सत्याग्रह स्थगित कर दिया गया और गाँधीजी पर मुकदमा चलाकर उन्हें 6 वर्ष का कारावास दंड सुना दिया गया, तब भी श्रीमती नायडू उनके साथ थीं।
जेल जाते समय गाँधीजी ने उनसे कहा कि- “सांप्रदायिक एकता कायम रखने का काम मैं तुम्हारे जिम्मे छोड़े जाता हूँ।” श्रीमती नायडू ने उक्त आदेश का पालन इतने परिश्रम से किया कि लगातार भ्रमण और सभाओं में भाषण करते रहने से उनका स्वास्थ्य फिर गिरने लगा।
तब डॉक्टरों की सलाह से वे जलवायु परिवर्तन के लिए लंका चली गई, पर वहाँ भी वे पूर्णतया निष्क्रिय न रहीं। अनेक सभाओं में उन्होंने महात्मा गाँधी के सिद्धांतों का प्रचार किया और लंका के लोकमत को भारतीय आंदोलन के प्रति सहानुभूतिजनक बनाने की चेष्टा की।
लंका से वापस आने पर आपको बंबई कॉर्पोरेशन की सदस्या और वहाँ की प्रांतीय कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया। उसी समय आप कांग्रेस की वर्किंग कमेटी में सम्मिलित की गई और अंतिम समय तक उस पद पर बनी रहीं। भारत के राष्ट्रीय संगठन में यह पद बड़ा महत्त्वपूर्ण है और इसमें योग्यता, सच्चाई और दूरदर्शिता आदि सभी गुणों की बहुत अधिक आवश्यकता पड़ती है।
भारत के राजनीतिक संघर्ष में भाग लेकर और बड़े-बड़े महत्त्वपूर्ण कार्यों में सफलता प्राप्त करके श्रीमती सरोजिनी ने यह सिद्ध कर दिया कि यदि अवसर मिले तो भारतीय स्त्रियाँ भी प्रत्येक क्षेत्र में अपनी योग्यता प्रदर्शित कर सकती हैं।
देश की वर्तमान दशा को देखकर हम कह सकते हैं कि श्रीमती सरोजिनी का परिश्रम और उदाहरण व्यर्थ नहीं गया। यद्यपि इस दृष्टि से सुयोग्य महिलाओं की संख्या अधिक नहीं है, तो भी भारत में स्त्रियों को जितने अधिकार मिल गये हैं, उतने संसार के किसी बड़े देश में भी प्राप्त नहीं हो सके हैं।
यहाँ स्त्रियों को वर्षों से राज्यपाल, राजदूत, मंत्री, मुख्यमंत्री आदि के पद दिये जा रहे हैं। इस प्रकार भारत ने, जो अभी तक सामाजिक प्रगति में बहुत पिछड़ा हुआ माना जाता था, स्त्रियों को समानता के अधिकार देने में सर्वोपरि आदर्श उपस्थित किया है। श्रीमती सरोजिनी के लिए यह कम गौरव की बात नहीं थी कि इस दुर्लभ परंपरा को स्थापित करा सकने का श्रेय उन्हीं को है।
यदि यह कहा जाये कि इस युग में कोई भी स्त्री-विद्या, बुद्धि, योग्यता तथा विविध प्रकार से राष्ट्रीय महत्त्व के कार्यों में श्रीमती सरोजिनी से आगे नहीं बढ़ सकती है, तो इसमें तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं बतलाई जा सकती।
सरोजिनी नायडू की अफ्रीका यात्रा
कुछ महीने पश्चात् जब महात्मा गाँधी को विशेष आज्ञा द्वारा छोड़ दिया गया तो उन्होंने श्रीमती नायडू से अफ्रीका जाकर वहाँ के प्रवासी भारतवासियों को सहायता करने का अनुरोध किया। इन लोगों की समस्या दिन पर दिन कठिन होती जाती थी और वहाँ की सरकार उनको अधिकारच्युत करने के लिए तरह-तरह की चालें चलती रहती थी।
यद्यपि महात्मा गाँधी ने उनके साथ न्याय किये जाने के उद्देश्य से कई बार सत्याग्रह किया था और अनेक कष्ट सहन करके उनको कुछ अधिकार दिलाये थे। पर अब उस बात को सात-आठ वर्ष बीत जाने पर, वहाँ के प्रदेशों में फिर नये-नये अन्यायपूर्ण नियम बनाकर भारतवासियों को तंग किया जा रहा था।
महात्मा गाँधी के कंधों पर तो इस समय समस्त भारतीय आंदोलन का बोझा था, इसलिए किसी अन्य प्रभावशाली व्यक्ति को ही वहाँ भेजना उचित समझा और इसके लिए श्रीमती नायडू ही सबसे अधिक उपयुक्त जान पड़ीं।
जिस समय श्रीमती नायडू ने जहाज से उतरकर अफ्रीका की भूमि पर पैर रखा, उसी समय संवाददाताओं ने उनको घेरकर तरह-तरह के प्रश्न करने आरंभ कर दिये। एक संवाददाता ने कहा- “जनरल स्मट इज ए स्ट्रांग मैन।”
(अर्थात् दक्षिण अफ्रीका का शासक जनरल स्मट बड़ा जोरदार आदमी है।) इस पर श्रीमती सरोजिनी ने उत्तर दिया- “आई एम टू ए स्ट्रांग वूमैन (अर्थात् में भी बड़ी जोरदार औरत हूँ।) इस पर उपस्थित जनों में बड़ी हास्यध्वनि हुई।
दक्षिण अफ्रीका और कीनिया आदि देशों का दौरा करके आपने प्रवासी भारतवासियों को हर प्रकार से आश्वासन दिया और बताया कि “अब भारत में भी काफी जाग्रति हो गई है। वह प्रवासी भारतवासियों का सब प्रकार से समर्थन करेगा और सक्रिय सहायता भी देगा।”
श्रीमती नायडू को इन उपनिवेशों में भारतीयों के साथ किये जाने वाले दुर्व्यवहारों और खासकर वहाँ की भारतीय स्त्रियों की दुर्दशा का सदा से बड़ा ध्यान रहता था और जब कभी अवसर मिलता था, वे इस संबंध में कुछ न कुछ प्रयत्न करती ही रहती थीं।
जब मि. एंडरूज ने फिजी टापू की कुली प्रथा को बंद कराने का आंदोलन शुरू किया था और वहाँ भेजी जाने वाली स्त्रियों के प्रति किये जाने वाले लज्जाजनक व्यवहार का रहस्योद्घाटन किया था तो श्रीमती नायडू ने एक सार्वजनिक सभा में कहा था।
तुम लोग जो स्वराज्य-आंदोलन कर रहे हो, तुम लोग देश भक्ति के जो सपने देख रहे हो, यदि तुम समुद्र पार से सुनाई पड़ने वाली करुण पुकारों को नहीं रोक सकते, तो क्या तुम देशभक्त कहला सकते हो? यह करुण पुकार उन देश के भाइयों की है, जिनकी दशा कुत्ते से भी बुरी है।
यह पुकार उन बहनों की है, जिनके साथ जानवरों का-सा बर्ताव हो रहा है। तुम स्वराज्य आखिर किसके लिए चाहते हो? क्यों चाहते हो? क्या उन लोगों के लिए चाहते हो, जो अपनी महिलाओं का क्रंदन सुनकर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं, जो घोरतम अपमान सहते हुए भी मौन रहते हैं।
धन हमारे लिए क्या वस्तु है ? बल लेकर हम क्या करेंगे? महिमा से हमें क्या प्रयोजन ? जब हम अपनी स्त्रियों के सतीत्व तक की रक्षा नहीं कर सकते, तो ऐसे धन, बल, महिमा से क्या लाभ? सरोजिनी नायडू का जीवन परिचय
“आज मैं अपने भीतर उस यातना का अनुभव कर रही हूँ, जिसे वर्षों स वे बहनें सहन करती रही हैं, जिनको अब मृत्यु से ही शांति मिल सकती है। मैं स्वयं कुली प्रथा में निहित अकथनीय लज्जा और ग्लानि का अनुभव कर रही हूँ।”
श्रीमती नायडू के भाषणों का देश और विदेशों में बड़ा प्रभाव पड़ा और कुली प्रथा का आंदोलन दिन पर दिन बढ़ने लगा। लोगों को मालूम हुआ कि हमारे लाखों भाई-बहनों को दूर देशों में ले जाकर कितना कष्ट दिया जाता है और अपमानपूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य किया जाता है।
इन उपनिवेशों में सामाजिक कारणों से स्त्रियों को जिस प्रकार का निर्लज्ज जीवन बिताना पड़ता था, उसे जानकर प्रत्येक सहृदय मनुष्य का सिर शर्म से नीचा हो जाता था। सरोजिनी नायडू का जीवन परिचय
सन् 1917 के कलकत्ता में होने वाले कांग्रेस के अधिवेशन में भी उन्होंने अपनी इन समुद्र पार रहने वाली बहनों का उल्लेख करते हुए कहा “तुम अपने हृदय खून से उस अपमान को धो डालो, जो तुम्हारी स्त्रियों को विदेशों में सहना पड़ता है।
आज तुमने जो शब्द सुने हैं, उन्होंने अवश्य तुम्हारे हृदयों में भयंकर क्रोध की अग्नि उत्पन्न कर दी होगी। भारत के पुरुषों! इस आग को शर्तबंद कुली-प्रथा की चिता बनाकर शांत कर दो। आज आप मुझसे शब्दों की आशा रखते हैं?
नहीं, आज मेरे रोने का समय है। यद्यपि आप अपनी माँ-बहनों का अपमान अनुभव कर रहे होंगे, पर मैं तो इस अपमान को अपनी जाति (स्त्री-जाति) के अपमान के रूप में अनुभव कर रही हूँ।” सरोजिनी नायडू का जीवन परिचय
वास्तव में यह कुली-प्रथा लाखों स्त्री-पुरुषों के जीवन को किस प्रकार नष्ट-भ्रष्ट करने वाली थी, इसका अनुमान भी हम इतनी बैठे हुए व्यक्ति नहीं कर सकते। चाहे जिस घर की भली स्त्री को बहकाकर टापुओं में भेज देना और वहाँ उसे कई पुरुषों के साथ रहने को बाध्य करना, एक ऐसी बात थी कि जिसे सुनकर प्रत्येक मनुष्य का खून गर्म हो उठेगा।
पर उन टापुओं के गोरे मालिक अपने खेतों का काम सस्ते दामों में कराने के लालच से धोखा देकर भारतवासियों को पकड़ मँगाते थे और उनको हंटरों तथा बेंतों की मार का भय दिखाकर पशुओं की तरह काम लेते थे। उनको इस बात का कुछ भी ख्याल नहीं था कि ऐसी परिस्थिति में रहने से उसका प्रभाव उनके चरित्र पर कैसा घातक पड़ेगा?
इस प्रथा की जड़ उखाड़ने से सबसे अधिक परिश्रम एंडरूज साहब ने ही किया था। उन्होंने इस संबंध में फिजी टापू के निवासी भारतीयों की अवस्था का वर्णन करते हुए एक भाषण में कहा था
“किजी में मैंने अपनी आँखों से भले घर की सम्माननीय हिंदुस्तानी स्त्रियों को शर्तबंदी की प्रथा की वजह से असह्य निर्लज्जतापूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए देखा है। मैंने अपनी आँखों से अपवित्र और पापपूर्ण स्थानों में भोले-भाले छोटे-छोटे भारतीय बालकों को रहते देखा है। और इन्हीं आँखों से उन भारतीय पुरुषों को देखा है, जो वहाँ पशुओं से भी बुरा जीवन व्यतीत कर रहे हैं।
इसलिए मैं आप लोगों से मनुष्यता के नाम पर अपील करता हूँ कि आप अपनी आवाज इस शर्तबंदी की प्रथा से विरुद्ध इतने जोर से उठावें कि भारत सरकार को फौरन ही यह गुलामी बंद करनी पड़े। यह कुली प्रथा केवल व्यापारिक हानि-लाभ का सवाल नहीं है, वरन् यह स्त्रियों के सतीत्व का प्रश्न है, भोले-भाले नन्हें बच्चों की रक्षा का है और मनुष्यों की स्वतंत्रता का है।
आज मैं यह बात सपष्टतया कह देना चाहता हूँ कि मैं जो कुछ वर्णन रहा हूँ, वह इन दुराचारों को प्रत्यक्ष देखकर ही कह रहा हूँ। माताओं और सज्जनो! अगर इन दुराचारों की बात जान लेने के पश्चात् एक भी भारतीय स्त्री इन टापुओं में व्यभिचारपूर्ण जीवन व्यतीत करने को भेजी जायेगी तो इसका अपराध भारत सरकार और भारतीय जनता के सिर पर होगा।
इस समस्या पर इसी पहलू से विचार करके श्रीमती नायडू ने इतने जोर के साथ चेतावनी दी थी। निस्संदेह यह प्रश्न केवल राजनीति और व्यापार का न था, वरन् लोगों के चरित्र का था, जिसके नष्ट होने पर कुछ भी शेष नहीं रहता। जब इस संबंध में सब प्रमाण वाइसराय और भारतमंत्री के सामने रखे गए तो उससे प्रभावित होकर उन्होंने तुरंत ही इस प्रथा को रोकने का आदेश दे दिया।
कांग्रेस के अध्यक्ष
उस पराधीनता के युग में अपने किसी सुपुत्र या पुत्री भारतवर्ष के पास सबसे बड़ा पुरस्कार या गौरव यही था कि उसे राष्ट्रीय महासभा (कांग्रेस) का अध्यक्ष बना दिया जाये। श्रीमती सरोजिनी की सेवाओं को देखते हुए सन् 1925 में कानपुर में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन का अध्यक्ष इन्हीं को चुना गया।
कानपुर पहुँचने पर बड़ी धूमधाम से इनका जलूस निकाला गया और बड़े विशाल पंडाल में अधिवेशन की कार्यवाही आरंभ की गई। सदैव की प्रथा का अनुसरण लिए करके श्रीमती सरोजिनी ने अपना भाषण छपाकर पढ़ने की बजाय मौखिक ही दिया।
आपने समस्त देशवासियों को देश के स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने की प्रेरणा देते हुए कहा कि- “स्वतंत्रता के युद्ध में कायरता सबसे अक्षम्य अपराध और निराशा सबसे भयानक पाप है। स्वतंत्रता की देवी सदा बलिदानों से प्रसन्न होती है, और जो जाति इस मार्ग में जितने त्याग और कष्ट सहन को तैयार होती है,
वह उतनी ही शीघ्र लक्ष्य पर पहुँचती है। यह आवश्यक नहीं कि जाति का प्रत्येक व्यक्ति एक समान त्याग या एक समान कष्ट सहन कर सके। अपनी शक्ति और परिस्थिति के अनुसार इसकी मात्रा में अंतर हो सकता है। पर जो कुछ यथाशक्ति किया जाये, उसमें कायरता अथवा निराशा की भावना होना बड़ा घातक है।
ये दो दोष ऐसे हैं कि जिनके कारण एक व्यक्ति दूसरे अनेक व्यक्तियों पर भी हानिकारक प्रभाव डालता है। उसका उदाहरण देख” ऐसे पीछे हटने लग जाते हैं, जिनमें थोड़ा-बहुत कच्चापन होता है। इसलिए मनुष्यों को सार्वजनिक संस्थाओं या आंदोलनों में भाग लेते समय उतना ही उत्तरदायित्व ग्रहण करना चाहिए, जिसका निर्वाह अच्छी तरह किया जा सके और जब एक बार कदम बढ़ाया जाये तो डर या स्वार्थ या हानि की संभावना से उसे पीछे हटाना नहीं चाहिए।
आगे चलाकर श्रीमती सरोजिनी ने कहा- “मैं एक स्त्री ठहरी, इसलिए मेरा कार्यक्रम सीधा-सादा और गृहस्थी से संबंध रखने वाला है। मैं तो केवल यह चाहती हूँ कि भारत माता अपने घर की एक बार फिर स्वामिनी हो जाये। अपने अपार साधनों की एकमात्र अधिकारिणी वही हो और आतिथ्य सत्कार की सारी क्षमता भी उसी के हाथ में रहे।
भारतमाला की आज्ञाकारिणी पुत्री की हैसियत से मेरा काम यह होगा कि अपनी माता का घर ठीक करूँ और उन शोचनीय झगड़ों का निपटारा कराऊँ, जिनके कारण उनका संयुक्त पारिवारिक जीवन, जिनमें अनेक जातियाँ और धर्म शामिल हैं, छिन्न-भिन्न न हो जाये।
उत्तर प्रदेश के राज्यपाल के पद पर
जिस समय 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वाधीन हुआ, उसी समय देश के ऊपर एक महान् संकट आया। अंग्रेजों ने विवश होकर, भारत का अधिकार छोड़ा तो सही, पर उन्होंने उसे भारत और पाकिस्तान दो भागों में विभाजित कर दिया।
नतीजा यह हुआ कि 14 अगस्त की रात को जैसे ही 12 का घंटा बजा कि पाकिस्तान के गुंडा-दल ने, जो पहले से ही तैयार बैठा था, वहाँ के अल्पसंख्यक हिंदुओं पर हमला बोल दिया एवं खुले तौर पर लूटमार और हत्याकांड आरंभ कर दिया।
इसकी प्रतिक्रिया तुरंत ही भारत में भी हुई और जगह-जगह सांप्रदायिक उपद्रव फैल गए। यद्यपि इसका संबंध तो पंजाब से था और वहीं की जनसंख्या की विशेष रूप से अदला-बदली हो रही थी, पर उत्तर प्रदेश पर भी इसका प्रभाव कम नहीं पड़ा।
एक तो भारतीय राजनीति में इसकी स्थिति प्रमुख मानी जाती है, और दूसरे हिंदू संगठन, संस्कृति की दृष्टि से भी इसका महत्त्व अधिक माना गया है। इसलिए जैसे ही पाकिस्तान से भागने वाले शरणार्थियों के दल पंजाब और दिल्ली से आगे बढ़ते हुए उत्तर प्रदेश में फैले, वैसे ही वहाँ भी आग लग गई। चारों तरफ अशांति और सांप्रदायिक वैमनस्य के चिह्न दृष्टिगोचर होने लगे।
ऐसे अवसर पर इस बड़े प्रांत में शांति और सुव्यवस्था की स्थापना में सहायता देने के लिए श्रीमती सरोजिनी से कहा गया। उस समय उनकी आयु 68 वर्ष की हो चुकी थी और वर्षों तक राजनीतिक क्षेत्र में कठोर श्रम करने से उनका स्वास्थ्य भी जर्जर हो गया था,
तो भी देश के प्रति अपना कर्तव्यपालन करने की भावना से उन्होंने उस कार्य-भार को स्वीकार कर लिया। इसके पश्चात् यद्यपि वे डेढ़ वर्ष से भी कम जीवित रहीं, तो भी उन्होंने इस प्रांत में शांति स्थापित करके सुख-सहयोग के जीवन की जो नींव डाली, उससे इसकी प्रगति में बहुत सहयोग मिला।
सन् 1948 में दिल्ली में होने वाले एशियाई राष्ट्रों के विशाल सम्मेलन की सफलता के लिए भी उन्होंने बड़ा कार्य किया। सन् 1949 के आरंभ में उनकी अस्वस्थता अधिक बढ़ गई और 2 मार्च, सन् 1949 को सत्तर वर्ष की आयु में उनका देहावसान हो गया।
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