सतेन्द्र कुमार बसु का जीवन परिचय? सतेन्द्र कुमार बसु पर निबंध?

सतेन्द्र कुमार बसु का जीवन परिचय: सतेन्द्र कुमार बसु का जन्म 30 जुलाई 1882 में हुआ था। जब हम क्रान्तिकारियों की चर्चा करते हैं, तो हमारा ध्यान उन सतेन्द्र कुमार बसु की ओर जाए बिना नहीं रहता जिन्हें फांसी की सजा देते हुए अंग्रेज जज ने कहा था, सतेन्द्र कुमार बसु कन्हाईलाल से भी अधिक भयंकर था वह अंग्रेजों के लिए काल का दूत था। मैंने उसे फांसी की सजा देकर ठीक ही किया है। यदि वह जीवित रहता, तो पचासों अंग्रेजों के घर उजड़ जाते।

सतेन्द्र कुमार बसु का जीवन परिचय

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Satendra Kumar Basu Biography in Hindi

पूरा नामसतेन्द्र कुमार बसु
जन्म30 जुलाई 1882
जन्म स्थानमेदिनीपुर
मृत्यु10 नवंबर 1908

भारत की स्वतंत्रता के इतिहास में क्रान्तिकारियों की वीरता की कहानियां अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। उन कहानियों में जो त्याग, जो बलिदान और जो देश-प्रेम मिलता है, वह हमें राजपूतों के शौर्य की याद दिलाता है। राजपूतों ने जिस शौर्य के साथ मुसलमानों के शासन को ध्वस्त करने का प्रयत्न किया था, वही शौर्य और वही देश प्रेम हमें क्रान्तिकारियों के जीवन की कहानियों में भी मिलता है।

क्रान्तिकारियों के देश प्रेम, त्याग, शौर्य और साहस को सामने रखकर हम यह कहे बिना नहीं रहेंगे कि यदि क्रान्तिकारियों ने अपने रक्त से धरती को लाल न किया होता, तो कदाचित् भारत को स्वतंत्रता प्राप्त न होती। अतः भारतीयों को उन क्रान्तिकारियों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करनी ही चाहिए, जो हंसते-मुस्कराते हुए फांसी के तख्ते पर चढ़ गए थे।

सतेन्द्रकुमार बसु मेदिनीपुर के निवासी थे। 1908 ई० में जब स्वदेशी आन्दोलन चला, तो उसका प्रभाव उनके हृदय पर भी पड़ा। वे पढ़ना-लिखना छोड़कर स्वदेशी आन्दोलन में सम्मिलित हो गये। वे अपने मित्रों के साथ घर-घर जाकर स्वदेशी का प्रचार करते थे। ‘बन्देमातरम्’ का गान उनकी जुबान पर रहता था।

उन दिनों मेदिनीपुर में क्रान्तिकारियों का बड़ा जोर था। यद्यपि क्रान्तिकारी युवकों की संख्या बहुत थोड़ी थी, किन्तु वे अंग्रेजों के लिए काल के दूत बने हुए थे। अंग्रेज सरकार ने ‘बन्देमातरम्’ गीत पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। भारत मां की जय बोलना भी अपराध माना जाता था, किन्तु फिर भी क्रान्तिकारी युवक ‘बन्देमातरम्’ गीत गाते थे और भारत मां की जय भी बोला करते थे।

उनका विश्वास अहिंसा में नहीं, हिंसा में था। सतेन्द्र शक्ति के पुजारी थे। अतः विद्यार्थी अवस्था में ही वे क्रान्तिकारी दल में सम्मिलित हो गए थे। वे स्वदेशी का प्रचार तो करते ही थे, रास्ता चलते हुए ‘बन्देमातरम्’ का गान भी किया करते थे। वे प्रायः गुनगुनाया करते थे, “के बोले मां तुमि अबले?” हिन्दी के एक कवि ने उनके मन की ही भावनाओं का चित्र निम्नांकित पंक्तियों में खींचा है

सतेन्द्र के साथियों की संख्या बहुत कम थी, किन्तु फिर भी वे अपने क्रान्तिकारी कार्यों से अंग्रेजों को सदा चिन्ता में डाले रहते थे। कभी लाल पर्चे बांटते थे, कभी बम का विस्फोट करते थे, कभी गोलियां चलाते थे और कभी ‘बन्देमातरम्’ का नारा लगा कर गलियों में छिप जाते थे। पुलिस पकड़ने का प्रयत्न करती थी, किन्तु पकड़ नहीं पाती थी।

सतेन्द्र का नाम जब चारों ओर हवा में गूंजने लगा, तो अंग्रेज सरकार उन्हें बन्दी बनाने के लिए उपाय सोचने लगी। आखिर उसने एक उपाय ढूंढ़ निकाला। सतेन्द्र के बड़े भाई के पास एक बन्दूक थी। सतेन्द्र पर यह अपराध लगाया गया कि उनके पास बन्दूक का लाइसेंस नहीं है, फिर भी उन्होंने अपने बड़े भाई की बन्दूक का उपयोग

किया। फलतः बिना लाइसेंस के बन्दूक चलाने के अपराध में वे बन्दी बना लिए गए। सतेन्द्र पर मुकद्दमा चलाया गया। यद्यपि अपराध बहुत ही साधारण था, पर सरकार तो उन्हें बाहर रहने देना नहीं चाहती थी। अतः उन्हें दो वर्ष के कारागार का दंड दिया गया। वे दंडित करके मेदिनीपुर के कारागार की अंधेरी कोठरी में पहुंचा दिये गए।

जिन दिनों सतेन्द्र मेदिनीपुर के कारागार में दंड भोग रहे थे, उन्हीं दिनों मुजफ्फरपुर में खुदीराम बोस ने बम विस्फोट के द्वारा एक बहुत बड़े अंग्रेज अफसर की में हत्या का प्रयत्न किया। उस बम विस्फोट को लेकर कलकत्ते में अनेक स्थानों में तलाशियां ली गईं।

उन तलाशियों के सिलसिले में मानिकतल्ला के एक मकान में बम बनाने का कारखाना प्राप्त हुआ। कई बम और पिस्तौलें भी प्राप्त हुई। फलत: बहुत से क्रान्तिकारियों को बन्दी बना कर अलीपुर जेल में बन्द कर दिया गया।

यद्यपि सतेन्द्र का मानिकतल्ला के बम के कारखाने से कोई सम्बन्ध नहीं था, पर गोरी सरकार तो उन्हें फांसी पर चढ़ाना चाहती थी अतः उसने बम के कारखाने से उनका सम्बन्ध जोड़ कर उन्हें मिदनापुर से अलीपुर जेल में भेज दिया।

उन दिनों अलीपुर जेल में बहुत से क्रान्तिकारी नजरबन्द वे जानते थे कि उन्हें फांसी या काले पानी की सजा दी जाएगी। फिर भी वे हंसते-मुस्कराते रहते थे। ‘बन्देमातरम्’ गीत गाया करते थे। उनके साहस और उनको उमंगों पर जेल के अधिकारियों को भी आश्चर्य हुआ करता था।

एक दिन क्रान्तिकारियों को पता चला कि उनका साथी नरेन्द्र गोस्वामी अपने प्राण बचाने के लिए सरकार से मिल गया है। वह अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए उन सभी क्रान्तिकारियों को फंसाना चाहता है, जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता का व्रत ले रखा है।

अतः क्रान्तिकारियों ने नरेन्द्र गोस्वामी का काम तमाम करने का निश्चय किया प्रश्न उठा कि इस काम को करे तो कौन करे, क्योंकि इस काम को करने का अर्थ था फांसी पर चढ़ना, अपने को मृत्यु के मुख में डालना।

जेल में ही क्रान्तिकारियों की बैठक हुई। विचार होने लगा कि नरेन्द्र गोस्वामी की हत्या का कठिन कार्य किसे सौंपा जाए? आखिर काफी सोच-विचार के पश्चात् यह कार्य सतेन्द्र के सुपुर्द किया गया। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक इस दायित्व को स्वीकार किया।

सतेन्द्र ने जब नरेन्द्र की हत्या का कार्य अपने हाथों में लिया, तो उनके समक्ष यह प्रश्न आ खड़ा हुआ कि वे उसकी हत्या करें तो कैसे करें, क्योंकि उसे जेल में सबसे पृथक् रखा जाता था। उसके पास दो-तीन शरीर रक्षक सदा मौजूद रहते थे। सतेन्द्र चिन्तित होकर उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे।

संयोग की बात, उन्हीं दिनों सतेन्द्र अस्वस्थ हो गए। उन्हें जेल की कोठरी से अस्पताल में पहुंचा दिया गया। उन्होंने अस्पताल में ही नरेन्द्र गोस्वामी की हत्या का विचार किया। अतः उन्होंने अपने को ऐसा बना लिया, मानो वे भी मृत्यु से डर गये हों और सरकार का भेदिया बन कर सारा भेद खोल देना चाहते हों।

एक दिन जब नरेन्द्र गोस्वामी अस्पताल में सतेन्द्र से मिलने के लिए गया, तो उन्होंने उस पर भी यह भाव प्रकट किया कि वे मृत्यु से डरे हुए हैं और उसी की तरह मुखबिर बन कर सारा भेद प्रकट कर देना चाहते हैं।

परिणाम यह हुआ कि नरेन्द्र गोस्वामी के मन पर सतेन्द्र का विश्वास जम गया। वह बिना किसी भय के उनके पास आने-जाने लगा। सतेन्द्र ने किसी प्रकार रिवॉल्वर और गोलियां बाहर से मंगा ली थीं। वे रिवॉल्वर और गोलियां बिस्तर के नीचे रखकर नरेन्द्र गोस्वामी को मृत्यु के घाट उतारने के अवसर की प्रतीक्षा में रहा करते थे।

इन्हीं दिनों कन्हाईलाल दत्त भी पेट दर्द का बहाना करके अस्पताल में जा पहुंचे। उनके पास भी रिवॉल्वर और गोलियां थीं। वे अस्पताल की चारपाई पर पड़े पड़े बड़ी आकुलता के साथ उस दिन का इन्तजार कर रहे थे, जब सतेन्द्र की रिवॉल्वर • गरज उठेगी और नरेन्द्र गोस्वामी उनकी गोलियों का निशाना बन कर यमपुरी का वासी बन जाएगा।

आखिर वह दिन आ गया। नरेन्द्र गोस्वामी अपने शरीर-रक्षकों के साथ ऊपर की मंजिल पर पहुंचा और सीढ़ियों के पास ही बैठ गया। उसके शरीर रक्षक भी उसके पास बैठे हुए थे। सतेन्द्र ने चुपके से भरा हुआ रिवॉल्वर निकाला और अपने कुर्ते के नीचे से गोस्वामी को निशाना बनाया।

किन्तु गोली बाहर निकली नहीं, केवल आवाज होकर रह गई। सतेन्द्र दूसरी गोली चलाना ही चाहते थे कि नरेन्द्र के शरीर-रक्षकों ने झपट कर उन्हें पकड़ लिया, पर सतेन्द्र ने उन्हें झटका देकर गिरा दिया।

इस बीच नरेन्द्र को अवसर मिला और वह दौड़ता हुआ सीढ़ियों से उतरने लगा। कन्हाईलाल दत्त चारपाई पर पड़े-पड़े इस दृश्य को देख रहे थे। वे झट सिंह की तरह तड़प उठे और हाथ में रिवॉल्वर लेकर गोस्वामी के पीछे दौड़ पड़े। सतेन्द्र भी कब चूकने वाले थे। वे भी शरीर-रक्षकों को गिराकर हाथ में रिवॉल्वर लेकर आंधी की तरह सीढ़ियों से उतरने लगे।

सारे अस्पताल में भगदड़ मच गई। आगे-आगे नरेन्द्र गोस्वामी और उनके पीछे हाथ में रिवॉल्वर लिए हुए कन्हाईलाल दत्त और सतेन्द्र कुमार बसु । वह भाग कर जाता तो कहां जाता? संतरी ने फाटक खोल दिया। वह ज्यों ही फाटक से बाहर निकला दोनों वीर क्रान्तिकारियों की पिस्तौल गरज उठी। निशाना भरपूर बैठा। नरेन्द्र गोस्वामी धरती पर गिरकर बेदम हो गया।

सतेन्द्र और कन्हाईलाल दत्त दोनों वीर घटनास्थल पर ही बन्दी बना लिये गए। दोनों पर मुकद्दमा चला और दोनों को मृत्युदंड दिया गया। 1908 के 10 नवम्बर का दिन था, भारत मां के दोनों वीर पुत्रों को अलीपुर जेल फांसी के तख्ते पर चढ़ा दिया गया।

फांसी के तख्ते पर चढ़ते हुए सतेन्द्र ने गर्जना की थी, भारत मां! तुम शोकाकुल मत हो। मैं तुम्हारी दासता के बंधनों को काटने के प्रयास में प्राण छोड़ रहा हूं। किन्तु मैं मां, मैं पुनः जन्म लूंगा और पुन: तुम्हारे बन्धनों को काटने का प्रयास करूंगा। हे मां, तुम मुझे आशीर्वाद दो कि मुझे अपने प्रयास में सफलता प्राप्त हो।

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