श्यामजी कृष्ण वर्मा का जीवन परिचय? श्याम जी वर्मा की शिक्षा कहाँ हुई थी?

श्यामजी कृष्ण वर्मा का जीवन परिचय: श्यामजी कृष्ण वर्मा का जन्म अक्तूबर 1857 ई० की 4 अक्तूबर को गुजरात प्रदेश के मांडवी ग्राम में हुआ था। उनके (Shyamji Krishna Verma Biography in Hindi) ग्राम का नाम बलायल है। बलायल उस समय कच्छ राज्य में था। उसके पास ही मांडवी है, जो एक अच्छा नगर है।

श्यामजी कृष्ण वर्मा का जीवन परिचय

श्यामजी कृष्ण वर्मा का जीवन परिचय

Shyamji Krishna Verma Biography in Hindi

जन्म04 अक्टूबर 1857
जन्म स्थानमांडवी, कच्छ जिला, गुजरात
पिता का नामकरशन भानुशाली
माता का नामगोमती बाई
मृत्यु30 मार्च 1930
श्यामजी कृष्ण वर्मा का जीवन परिचय

श्यामजी कृष्ण वर्मा एक ऐसे ही मानवरत्न थे। उनके हृदय में स्वदेश के प्रति अपार प्रेम था, स्वदेश के चरणों पर बलिदान होने की पवित्र भावना थी। उन्होंने देश की दासता से दुःखी होकर अपना घर-द्वार, उच्च पद और अपने प्रियजनों का भी परित्याग कर दिया।

वे देश को दासता के बंधनों से छुड़ाने के लिए विदेशों की गलियों में भटके थे, विपत्तियों का आलिंगन किया था और कांटों-भरे मार्ग पर चले गये थे। वे महान देशप्रेमी और महान देशभक्त थे। उनके देशप्रेम, उनकी देशभक्ति और उनके त्याग की कहानियां युग-युगों तक कोटि-कोटि कंठों से कही और सुनी जाती रहेंगी।

लोकमान्य तिलक ने उनके सम्बन्ध में लिखा है- “श्यामजी कृष्ण वर्मा ने उस समय अंग्रेजी शासन के विरुद्ध अपना पग उठाया था, जिस समय लोग अंग्रेजों का नाम लेते हुए भी डरते थे। वे धन्य थे। उन्होंने स्वयं को तो देश के चरणों पर अपना सब कुछ उत्सर्ग किया ही, सैकड़ों भारतीय युवकों को भी देश के चरणों पर मर मिटना सिखाया। उनका नाम सदा बड़े गर्व के साथ लिया जायेगा।”

श्यामजी कृष्ण वर्मा की शिक्षा

श्यामजी कृष्ण वर्मा की बाल्यावस्था गांव में ही व्यतीत हुई। वे पढ़ने-लिखने में अधिक तेज थे। उन्होंने अंग्रेजी और संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की थी। वे विद्यार्थी जीवन में ही धाराप्रवाह संस्कृत बोलते थे। संस्कृत के बड़े-बड़े विद्वान् भी उनके संस्कृत भाषा-ज्ञान पर आश्चर्य करते थे।

श्यामजी कृष्ण वर्मा स्वामी दयानन्द (श्यामजी कृष्ण वर्मा का जीवन परिचय) के पंथानुयायी थे। उनकी उच्च शिक्षा बम्बई में हुई थी। वे विद्यार्थी जीवन में ही समाज सुधार सम्बन्धी कार्यों में रुचि रखते थे। बम्बई के बड़े-बड़े समाज सुधारक नेता उनका आदर करते थे, उन्हें अपने हृदय का प्रेम देते थे।

श्यामजी कृष्ण वर्मा इंग्लैण्ड गये

जिन दिनों श्यामजी कृष्ण वर्मा बम्बई में रहते थे, उन्हीं दिनों 1875 ई० में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के संस्कृत के अध्यापक श्री मोनियर विलियम्स भारत आये। बम्बई में उनकी भेंट श्यामजी कृष्ण वर्मा से हुई। वे कृष्ण वर्मा की विद्वत्ता से बड़े प्रभावित हुए।

उन्होंने उन्हें ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में बुलाने का निर्णय किया। श्याम जी कृष्ण वर्मा 1861 ई० में इंग्लैण्ड गये। वे मोनियर से मिले और उनकी सलाह से परीक्षा देकर बैलियोज कॉलेज में भरती हो गये। उन्होंने उसी कॉलेज से बी०

ए० की उपाधि प्राप्त की। उनका संस्कृत ज्ञान उच्च कोटि का था। वे अपने संस्कृत ज्ञान के ही कारण ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में अध्यापक के पद पर प्रतिष्ठित हुए। वे ऑक्सफोर्ड में संस्कृत के साथ ही साथ गुजराती और मराठी भी पढ़ाया करते थे। श्यामजी कृष्ण वर्मा ने 1888 ई० में बी०ए० की उपाधि प्राप्त की थी।

इन्हीं दिनों उन्होंने बर्लिन की ओरियंटल कान्फेरेंस और हालैंड की ओरियंटल कांग्रेस में भारत सरकार के प्रतिनिधि के रूप में भी भाग लिया था। उन्होंने इन दोनों स्थानों में अपने विचार संस्कृत में ही प्रकट किये थे। उनके विचारों और उनकी भाषा से बड़े-बड़े विद्वान् भी प्रभावित हुए थे।

बैरिस्टरी की शिक्षा

श्यामजी कृष्ण वर्मा अध्यापन कार्य करते हुए बैरिस्टरी की शिक्षा भी प्राप्त करने लगे। वे बुद्धि और प्रतिभा के धनी तो थे ही, 1684 ई० में उन्होंने बैरिस्टरी की परीक्षा भी पास कर ली। उसके पश्चात् वे भारत लौट आये और बम्बई में बैरिस्टरी करने लगे। किन्तु श्यामजी कृष्ण वर्मा ने अधिक दिनों तक बैरिस्टरी नहीं की। कुछ ही दिनों

पश्चात् वे रतलाम चले गये और दीवान के पद पर प्रतिष्ठित हुए। रतलाम से उदयपुर चले गये। उदयपुर में राज्य कौंसिल के सदस्य हुए। इस पद पर रहकर उन्होंने जो कार्य किये उनसे उनके गंभीर ज्ञान और अनुभव का परिचय मिलता है।

श्यामजी कृष्ण वर्मा तीन वर्षों तक उदयपुर में रहे। उसके पश्चात् वे जूनागढ़ चले गये और दीवान के पद पर प्रतिष्ठित हुए, किन्तु जूनागढ़ में उनका मन नहीं लगा। वे कुछ दिनों पश्चात् ही वह नौकरी छोड़कर बम्बई चले गये। उन्होंने बम्बई में पुनः बैरिस्टरी आरम्भ की।

रतलाम, उदयपुर और जूनागढ़ में उच्चपद पर काम करते हुए उन्हें अंग्रेजों के कटु व्यवहारों के भयंकर दिल हिला देने वाले चित्र देखने पड़े। उन्हें कुछ ऐसे चित्र देखने पड़े जिनसे उन्होंने अनुभव किया, अंग्रेजों की दृष्टि में भारतीयों का कोई मूल्य नहीं है। उनके स्वाभिमानी और देशभक्तिपूर्ण हृदय को अंग्रेजों के कटु व्यवहारों से अत्यधिक आघात भी लगा।

जिन दिनों श्यामजी कृष्ण वर्मा बम्बई में बैरिस्टरी कर रहे थे, उन्हीं दिनों चापेकर बन्धुओं ने पूना में बम्बई के गवर्नर की हत्या कर दी। चापेकर बन्धु गिरफ्तार कर लिये गये। उन पर मुकद्दमा चला और उन्हें फांसी की सजा दी गई।

श्यामजी कृष्ण वर्मा का इंग्लैण्ड छोड़ना

उन्हीं दिनों तिलक और नाह्यबन्धु भी गिरफ्तार किये गये। तिलक पर मुकद्दमा चलाया गया और नाहाबन्धु की जायदाद जब्त कर ली गई। श्यामजी कृष्ण वर्मा के हृदय पर इन घटनाओं का अधिक प्रभाव पड़ा।

दासता की पीड़ा ने उन्हें व्याकुल कर दिया। वे दासता के बंधनों को काटने के लिए कमर कसकर तैयार हो गये। उन्होंने यह देखा कि वे भारत में रह कर भारत की स्वतंत्रता के लिए कार्य नहीं कर पाते, जिसे वे करना चाहते थे। यदि वे भारत में रहकर स्वतंत्रता के लिए प्रयत्न करेंगे, तो या तो वे गिरफ्तार कर लिये जायेंगे या फांसी पर चढ़ा दिये जायेंगे।

अतः श्यामजी कृष्ण वर्मा अपना सब कुछ छोड़कर इंग्लैण्ड चले गये। उन्होंने स्वयं इस सम्बन्ध में लिखा है- “मैंने जब यह देखा मैं भारत में रहकर देश की स्वतंत्रता के लिए कुछ नहीं कर सकता, तो मुझे विवश होकर भारत छोड़कर इंग्लैण्ड चला आना पड़ा। जब मैंने देखा, इंग्लैण्ड में भी अपनी इच्छानुसार कार्य नहीं कर सकता, तो मुझे इंग्लैण्ड को छोड़कर भी पेरिस चला आना पड़ा।”

लंदन में श्यामजी कृष्ण वर्मा की भेंट सुप्रसिद्ध दार्शनिक स्पेंसर से हुई। वे स्पेंसर के विचारों से बड़े प्रभावित हुए। स्पेंसर की जब मृत्यु हुई तो उन्होंने उसकी स्मृति में एक छात्रवृत्ति भी देने की घोषणा की थी।

1904 ई० में श्यामजी कृष्ण वर्मा (श्यामजी कृष्ण वर्मा का जीवन परिचय) ने छात्रवृत्तियां देने की घोषणा की। उन्होंने अपनी घोषणा में कहा था- “छात्रवृत्तियां लन्दन में शिक्षा प्राप्त करने वाले उन भारतीय विद्यार्थियों को दी जायेंगी, जो शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् भारत जाकर सरकारी नौकरी न करने और देश की सेवा करने की प्रतिज्ञा करेंगे।”

लंदन में ही श्यामजी कृष्ण वर्मा की भेंट रावजी राणा से हुई। बेरिस्टरी की शिक्षा प्राप्त करने के लिए लंदन गये हुए थे। उनके हृदय में भी देश की दासता की पीड़ा थी। कुछ दिनों पश्चात् श्यामजी कृष्ण वर्मा की भेंट मादाम कामाजी से हुई।

मादाम कामाजी उन दिनों पेरिस में रहती थीं। वे कभी-कभी लंदन भी जाया करती थीं। श्यामजी कृष्ण वर्मा, सरदार सिंह राणा और मादाम कामाजी- तीनों देशप्रेमियों ने मिलकर लंदन से एक पत्र निकाला, जिसका नाम ‘इंडियन सोशियोलॉजी’ था। ‘सोशियोलॉजी’ में भारत की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में लेख प्रकाशित हुआ करते थे।

होमरूल सोसायटी की स्थापना

1905 ई० में श्यामजी कृष्ण वर्मा ने लंदन में होमरूल सोसायटी की स्थापना की। वे स्वयं उस सोसायटी के अध्यक्ष थे। उन्होंने सोसायटी की स्थापना करते हुए घोषणा की थी- यह सोसायटी भारत में भारतीयों का राज्य स्थापित करने का प्रयत्न करेगी और भारत की जनता में भारत की एकता तथा अखंडता के लिए प्रचार करेगी।

श्यामजी कृष्ण वर्मा ने यह घोषणा उस समय की थी, जब भारत की पूर्ण स्वतंत्रता की मांग किसी के मस्तिष्क में नहीं थी। 1905 ई० के जनवरी मास में श्यामजी कृष्ण वर्मा ने इंडिया हाउस खोलने की घोषणा की। इंडिया हाउस एक आश्रम की भांति था, जिसमें लंदन में पढ़ने वाले भारतीय विद्यार्थी रहते थे और भारत की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में विचार-विनिमय करते थे।

इंडिया हाउस का सारा खर्च श्यामजी स्वयं अपने पास से दिया करते थे। उसके उद्घाटन समारोह में बड़े-बड़े अंग्रेज राजनीतिज्ञ तो सम्मिलित हुए ही थे, दादाभाई नौरोजी और लाला लाजपतरायजी भी सम्मिलित हुए थे।

इंडिया हाउस में बराबर गोष्ठियां और सभाएं हुआ करती थीं। उन सभाओं में भारत की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में खुलकर विचार प्रकट किये जाते थे, 1906 ई० की 4 मई की सभा में भाई परमानन्द और बिट्ठलभाई पटेल भी सम्मिलित हुए थे।

1906 ई० में जब स्वदेशी आन्दोलन के सम्बन्ध में बंगाल में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को बंदी बनाया गया तो इंडिया हाउस की एक सभा में अंग्रेजी सरकार की निन्दा का एक प्रस्ताव पास किया गया था।

धीरे-धीरे इंडिया हाउस का नाम चारों ओर प्रसिद्ध हो गया। फलतः भारत के क्रान्तिकारी इंडिया हाउस में पहुंचने लगे और इंडिया हाउस में रहकर भारत की स्वतंत्रता के लिए कार्य करने लगे। जिन क्रान्तिकारियों ने इंडिया हाउस में रहकर भारत की स्वतंत्रता के लिए साहसपूर्ण कार्य किये, उनमें तीन नाम अधिक मुख्य थे-

लाला हरदयाल, विनायक दामोदर सावरकर और मदनलाल ढींगरा। लाला हरदयाल सरकारी छात्रवृत्ति लेकर शिक्षा प्राप्त करने के लिए लंदन गये थे। जब उनका परिचय श्यामजी से हुआ, तो उन्होंने सरकारी छात्रवृत्ति छोड़ दी। वे श्याम जी से छात्रवृत्ति लेकर शिक्षा प्राप्त करने लगे और क्रान्तिकारी कार्य करने लगे।

सावरकर श्यामजी से छात्रवृत्ति लेकर लंदन बैरिस्टरी पढ़ने के लिए गये थे। उन्होंने श्यामजी से प्रेरणा लेकर अपना सम्पूर्ण जीवन देश के चरणों पर निछावर कर दिया था। मदनलाल ढोंगरा एक पंजाबी युवक थे, जिन्होंने सावरकर से प्रेरणा लेकर भरी सभा में एक ऐसे अंग्रेज की हत्या की थी, जो भारत का विरोधी था।

इंडिया हाउस में होने वाले कार्यक्रमों से लंदन की अंग्रेजी सरकार के कान खड़े हो गये। पार्लियामेंट में प्रश्न भी किये गये। परिणाम यह हुआ कि गुप्तचरों का जाल बिछा दिया गया। इंडिया हाउस में आने-जाने वालों पर कड़ी दृष्टि रखी जाने लगी। श्यामजी कृष्ण वर्मा और उनके साथियों से यह बात छिपी नहीं रही। फिर भी वे बड़े साहस के साथ अपने मार्ग पर चलते रहे।

गुप्तचरों की गतिविधियां जब अधिक बढ़ गई, तो श्यामजी कृष्ण वर्मा लंदन से पेरिस चले गये। किन्तु उनके अखबार का प्रकाशन उस समय भी लंदन से ही होता रहा।

उनके पेरिस चले जाने पर इंडिया हाउस और ‘इंडियन सोशियोलॉजी’ का काम काज विनायक दामोदर सावरकर करते थे। पेरिस में मादाम कामाजी और सरदार सिंह राणा पहले से ही रहते थे। श्यामजी जब पेरिस गये, तो वे वहां भी मादाम कामा और सरदार सिंह राणा के साथ मिलकर वही कार्य करने लगे, जो लंदन में करते थे।

कामाजी ‘बन्देमातरम्’ और ‘तलवार’ नामक दो पत्रों का प्रकाशन और सम्पादन करती थीं। कुछ दिनों पश्चात् ‘इंडियन सोशियोलॉजी’ का प्रकाशन भी पेरिस से होने लगा था, क्योंकि लंदन में क्रम-क्रम से उसके दो मुद्रकों को गिरफ्तार करके दंडित किया गया था।

पहले यह लिखा जा चुका है कि श्यामजी के पेरिस चले जाने पर इंडिया हाउस की देख-रेख विनायक दामोदर सावरकर करते थे। सावरकर की प्रेरण से इंडिया हाउस में प्रति वर्ष 10 मई को स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता था। केवल यही नहीं, इंडिया हाउस की गोष्ठियों में बम बनाने और उसके प्रयोगों पर भाषण भी दिये जाते थे।

सावरकर ने इंडिया हाउस में ही अपनी ‘भारत का प्रथम स्वतंत्रता युद्ध’ नामक पुस्तक की रचना की थी। उन्होंने पहले पुस्तक की रचना मराठी में की थी। उसके बाद उसका अनुवाद अंग्रेजी में किया गया।

अंग्रेज सरकार ने उस पुस्तक के प्रकाशन में बड़े-बड़े विघ्न डाले। यहां तक कि उसकी मूल कापी तक प्रेस से गायब करवा दी गई, किन्तु फिर भी वह पुस्तक प्रकाशित हुई और बड़ी लोकप्रिय हुई। भारत सरकार ने उसे जब्त कर लिया था, किन्तु फिर भी उसकी बहुत-सी प्रतियां भारत आईं और चारों ओर वितरित हुई। वह पहली पुस्तक थी, जो 1857 के गदर पर बड़ी खोज और छानबीन के बाद लिखी गई थी।

जिन दिनों श्यामजी पेरिस में थे, उन्हीं दिनों विनायक दामोदर सावरकर को भारत सरकार के वारंट पर लंदन में गिरफ्तार किया गया। जिस जहाज पर लंदन से वीर सावरकर को भारत ले जाया जा रहा था, वह फ्रांस के बन्दरगाह के पास से होकर भारत जाने वाला था।

श्यामजी को जब इस बात का पता चला, तो उन्होंने मादाम और सरदार सिंह राणा से मिलकर सावरकर को छुड़ाने की एक योजना बनाई। उस योजना के अनुसार सावरकर जहाज से समुद्र में कूदकर मार्सलीज बन्दरगाह पर पहुंचने वाले थे। मार्सलीज बन्दरगाह के बाहर एक टैक्सी मिलने वाली थी, जो उन्हें सुरक्षित स्थान में पहुंचाने वाली थी।

विनायक दामोदर सावरकर योजना के अनुसार ही जहाज से समुद्र में कूदे, समुद्र में तैरकर मार्सलीज बन्दरगाह के बाहर भी पहुंचे। किन्तु टैक्सी के पहुंचने में कुछ देर हो गई फलतः उन्होंने अपने आप को फ्रांस की पुलिस के सुपुर्द कर दिया।

फ्रांस की पुलिस ने उन्हें अंग्रेज सिपाहियों के हाथों में दे दिया। अंग्रेज सिपाही उन्हें भारत लाये, जहां उन पर मुकद्दमा चलाया गया। मुकद्दमे में उन्हें आजीवन काले पानी की सजा दी गई थी।

श्यामजी कृष्ण वर्मा 1914 ई० तक पेरिस में ही रहे। वे पेरिस में रह कर क्रान्तिकारी कार्य करते रहे। ‘इंडियन सोशियोलॉजी’ को वे बराबर निकालना चाहते थे, किन्तु कुछ कारणों से निकाल नहीं सके। उसके कुछ ही अंक पेरिस से प्रकाशित हुए थे।

1914 ई० में जब विश्व का प्रथम युद्ध छिड़ा, तो पेरिस में भी श्यामजी कृष्ण वर्मा पर तीव्र दृष्टि रखी जाने लगी। उन्होंने अनुभव किया कि अब पेरिस में भी उनका रहना कठिन है। अतः वह पेरिस से जिनेवा चले गये। जिनेवा में ही 1930 ई० की 30 मार्च के दिन उनका स्वर्गवास हो गया।

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