सोहनलाल पाठक का जीवन परिचय: महान क्रान्तिकारी सोहनलाल पाठक का जन्म 7 जनवरी 1883, अमृतसर में हुआ था। सोहनलाल पाठक की मृत्यु 10 फरवरी, 1916 को हुई थी।प्रथम महायुद्ध के प्रारम्भ होते ही भारतीय देशभक्तों का हृदय अंग्रेजों के विरुद्ध पूर्णतया घृणा से भर गया, मन में एक हूक-सी उठी कि विदेशी शक्तियों के सहयोग से उन्हें भारत से निकाल फेंका जाये। जर्मनी पर उनकी आँखें लगी थीं अतः यहाँ गोरी सरकार के विरुद्ध साहित्य प्रकाशित कर स्याम एवं वर्मा के रास्ते भारत में लाकर वितरित किया जाता।
सोहनलाल पाठक का जीवन परिचय

Sohan Lal Pathak Biography in Hindi
इस महत्त्वपूर्ण कार्य में नवयुवकों की टोली तन, मन, धन से रत थी जिसमें लाला हरदयाल, तारकनाथ दास, चम्पक रमण पिल्लै, वीरेन्द्र सरकार, बरकतुल्ला, चन्द्र चक्रवर्ती, हेरम्बलाल गुप्त और विनायक दामोदर सावरकर के नाम उल्लेखनीय हैं। बंगाल के यतीन्द्र मुखर्जी, अतुल घोष, नरेन भट्टाचार्य जी-तोड़ परिश्रम द्वारा विदेशों से अस्त्र-शस्त्र मँगाने के लिए प्रयत्नशील रहे।
माबेरिक नामक जहाज अस्त्र-शस्त्र और नकद रुपये सहित भारत के लिए रवाना भी हुआ मगर योजना असफल हो गयी। ऐसे ही हेनरी एस. नामक जहाज मनीला से चला किन्तु वह भी भारत तक न आ पाया। कुछ क्रान्तिकारी तुर्की के अनवर पाशा से मिले।
अचानक लन्दन में मदनलाल धींगड़ा ने कर्जन वाइली को और भारत में कान्हेरे नामक युवक ने नासिक में जैक्सन को गोलियों से भूनकर सशस्त्र क्रान्ति के महायज्ञ की शुरुआत कर डाली थी। विनायक दामोदर की पुस्तक ‘सिक्खों का स्फूर्तिदायक इतिहास’ ने ब्रिटिश सरकार के कानों में खौलता तेल डाल दिया जिसे मुद्रित होने से पूर्व ही जब्त कर लिया गया।
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ज्ञात यह भी हुआ कि युवक ने बैरिस्टरी की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है किन्तु प्रमाण-पत्र उसे तब मिलेगा जब वह लिखित आवेदन सहित प्रतिज्ञा करेगा कि भविष्य में किसी राजद्रोहात्मक गतिविधियों से वह दूर रहेगा। सावरकर ने सहर्ष बैरिस्टरी करने की इच्छा त्याग दी, इसके बावजूद उन्हें कर्जन वाइली की हत्या में बन्दी बना लिया गया।
उनके भारत वापिस लौटने पर भारत की गोरी सरकार ने प्रतिबन्ध लगा दिया। उन पर मुकदमा चला। जेल से दो मार्मिक पत्र उन्होंने लिखे। पहले पत्र में क्रान्तिकारियों को अपने उद्गार प्रकट करते हुए सावरकर ने लिखा था-
जिस प्रकार भारतीय नाटकों के पात्र जीवित या मृत कभी-न-कभी अन्त में एक स्थान पर मिलते अवश्य हैं, इसी प्रकार मुझे आशा है इस भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के सभी पात्र इतिहास के रंगमंच पर एक न एक दिन अवश्य मिलेंगे और दर्शक हमारा सहर्ष स्वागत भी करेंगे।’
दूसरा पत्र अपनी भाभी के नाम सावरकर का था जिसे उन्होंने ब्रिस्टन जेल से भेजा था ‘मृत्यु पत्र’ शीर्षक से मातृभूमि तेरे पावन चरणों पर अपना तन, मन, धन और यौवन सभी कुछ तो मैं अर्पण कर चुका हूँ। मेरा वक्तृत्व, वाग्वैभव, अपनी नयी कविताएँ, ओजस्वी लेख जिनमें अन्य कोई विषय नहीं तेरे चरणों पर ही तो अर्पित करता हूँ। तेरा कार्य ईश्वरीय कार्य समझकर तेरी सेवा में ही भगवान की सेवा दिखलायी दी है।
‘प्रज्वलित अग्नि में अपनी भावज, पुत्र, कान्ता और अग्रज को भी भेंट कर चुका हूँ और अपने प्राणों को हर क्षण न्यौछावर करने के लिए प्रस्तुत हूँ। अगर हम सात भाई होते तो उनको भी तेरे चरणों पर बलिदान चढ़ाने का प्रयास करता। इस भारत भूमि पर तीस करोड़ सन्तान हैं- जो मातृभूमि की सेवा में जुटे हैं, वे धन्य हैं। हमारा कुल भी उनमें ईश्वरीय अंश के समान एक है जो निर्वंश होकर भी अखंड हो गया है।
‘वंश अखंड रहे अथवा न रहे पर मातृभूमि के लिए हमारे उद्देश्य पूरित हों, प्रज्वलित अग्नि में माता के बन्धन तोड़ने के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर, भस्म कर हम कृतार्थ हो गये।’
जापान में रासबिहारी बोस सक्रिय थे। तुर्की से क्रान्तिकारियों की एक टुकड़ी बगदाद होते हुए ईरान पहुँची जहाँ सुप्रसिद्ध देशभक्त सूफी अम्बा प्रसाद अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध क्रान्ति की ज्वाला सुलगा रहे थे।
तमाम बिखरे देशभक्त छोटी-छोटी टुकड़ियों में बँटकर भारतीय क्रान्तिकारियों को एकत्रित करते, संगठित करते, उनकी कठिनाइयाँ समझते और दूर करने के लिए सहयोग करते। चेष्टा यह भी थी कि मिस्र से आये ब्रिटिश सिपाहियों में क्रान्ति का प्रचार कर सही समय पर शक्ति का उपयोग किया जा सके।
भारतीय सिपाहियों ने भी युद्ध में आत्म-समर्पण किया था। इनमें कुछ ऐसे भारतीय सिपाही थे जो ब्रिटिश सेना से भाग आये थे। किन्तु यह योजना तुर्की सरकार से पूरा सहयोग न मिलने के कारण सफल न हुई।
ऐसा ही प्रयास सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी राजा महेन्द्रप्रताप ने जर्मन के सहयोग तो वे साथ से अफगानिस्तान एवं तुर्की से सम्पर्क साधकर किया कुछ भारतीय राजाओं ने आश्वासन भी दिया था कि अफगानिस्तान की ओर से यदि हमला दे सकते हैं।
मगर परिणाम यह निकला कि अफगानिस्तान के अमीर हबीबुल्ला से न तो सहयोग मिला और न जर्मनी ही युद्ध में विजय प्राप्त कर सका। अतः में क्रान्तिकारियों को इधर-उधर शरण लेनी पड़ी।
यूरोप, अमेरिका और जापान में होनेवाली हलचलों से बर्मा भी प्रभावित था, जहाँ भारतीयों की काफी संख्या थी। अंग्रेजों का वहाँ भयंकर विरोध हो रहा था जिसका पहला सरगना था एक भारतीय अहमद सिद्दिकी जो रंगून स्थित तुर्क दल द्वारा संचालित था।
अमेरिका के ‘गदर दल’ के सदस्यों ने भी कुछ समय बाद यहाँ पहुँच संगठित हो हिन्दू मुस्लिम भाई-भाई का नारा लगाकर बर्मा में भेजी बलूची फौज को विद्रोह के लिए तैयार कर लिया मगर षड्यन्त्र फूट के कारण विफल होने पर 200 फौजियों को दंडित किया गया।
सिंगापुर में 21 फरवरी, 1915 को भारतीय पल्टन ने विद्रोह का झंडा खड़ा कर जेल में कैद जर्मन अफसरों को मुक्त कर दिया और 7 दिन तक सिंगापुर को अपने अधिकार में रखा। मगर जर्मन लोगों ने साथ नहीं दिया और परिणाम यह हुआ कि जापान, रूस और अंग्रेजों के जंगी जहाजों से उतरी फौजों ने विद्रोह कुचलकर विद्रोहियों के संगठन को छिन्न-भिन्न कर दिया।
अंग्रेजों के कान पूरी तरह खड़े हो गये थे, उन्होंने यह समझ लिया था कि भारतीय अब जाग उठे हैं, जहाँ भी उन्हें अवसर मिलेगा वे अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने का यत्न अवश्य करेंगे।
ऐसे ही निर्भीक और उत्साही क्रान्तिकारियों में एक प्रेरक हस्ताक्षर सोहनलाल पाठक के भी हैं जो देश भक्ति का अनूठा परचम लहराकर भारत माँ की सेवा में शहीद हो गये।
मणिपुर के सेनापति टिकेन्द्रजित अंग्रेजों के लिए प्रबल शत्रु के रूप में उभरे थे। फिरंगियों का आरोप था कि उन्होंने भारत साम्राज्ञी’ के विरुद्ध युद्ध किया और साथ ही 4 ब्रिटिश कर्मचारी मौत के घाट उतारने में सहयोग किया है।
टिकेन्द्रजित का अपराध केवल यह था कि वे मातृभूमि से प्यार करते और यही उनका गुण अंग्रेजों के लिए दुर्गुण था। वे अच्छे शिकारी, कुशल राजनीतिज्ञ, चतुर प्रशासक थे इसलिए अंग्रेजों की आँखों में खटकते रहे, वे बराबर सोचते कि किसी प्रकार उन्हें बन्दी बनाया जाये।
निश्चित तिथि पर टिकेन्द्रजित की अनुमति के अनुसार जब अंग्रेज फाटक से निकलने लगे मणिपुरियों की गुस्सैल भीड़ ने ‘मारो-मारो’, ‘काटो काटी’ के नारों से हमला बोल दिया। उस समय टिकेन्द्रजित सिंह अस्वस्थता के कारण तोशाखाने में विश्राम कर रहे थे।
अचानक एक वृद्ध ने जनरल खंगाल की मणिपुर की प्रचलित कथा की जानकारी देते हुए कहा कि देश विषम स्थिति में आज फँसा है, पाँच शत्रुओं के खून से देवताओं को प्रसन्न करने पर ही कल्याण बढ़ेगा। खंगाल ने तत्काल असव नामक जमादार को अंग्रेजों की हत्या का आदेश दे दिया। अन्यथा संकट
वृद्ध मन्त्री जनरल खंगाल ने इसकी सूचना टिकेन्द्रजित को जब दी तो उन्होंने इस हत्या का विरोध किया और तोशाखाने में जाकर सो गये। जनरल खंगाल ने यह अवसर हाथ से न जाने दिया और टिकेन्द्रजित की इच्छा के प्रतिकूल अंग्रेजों को मौत के घाट उतार अन्धविश्वास के अनुसार उनके खून को देवताओं पर चढ़ाया गया और उनके सर एक स्थान पर एक साथ गाड़े गये।
प्रचारित करा दिया कि यह कत्ल टिकेन्द्रजित के आदेशानुसार किया गया। इस कांड में एक गुरखा सिपाही भी मारा गया। मणिपुरियों ने रेजीडेंसी पर जमकर गोलीबारी की।
मणिपुर के विरुद्ध अंग्रेजों ने काछाड़, कोहिमा और टामू में अपनी सेना इकट्ठी की, सात-आठ हजार सेना की टुकड़ी तीनों तरफ से आगे बढ़ी और राजा कुलचन्द्र को आदेश दिया कि वह आत्म-समर्पण कर दे। तीन दिन घमासान युद्ध के बाद 27 अप्रैल, 1891 में राजधानी इम्फाल पर अंग्रेजों ने कब्जा कर लिया।
राजा कुलचन्द्र, जनरल खंगाल और टिकेन्द्रजित को पकड़ लिया गया। घोषणा की गयी कि जो लोग विद्रोह में सहयोगी थे आत्मसमर्पण कर दें अन्यथा मृत्युदंड दिया जायेगा। इस प्रकार अंग्रेजों ने टिकेन्द्रजित और जनरल खंगाल को इम्फाल के पोलो मैदान में फाँसी दे दी।
मणिपुर की प्रधानुसार हजारों महिलाएँ उनकी प्राणों की रक्षा के लिए क्षमा याचना के लिए एकत्रित हुई मगर अत्याचारियों का हृदय भला कहाँ पसीज सकता था। कुलचन्द्र राजा का मृत्युदंड आजीवन कारावास में बदल दिया गया।
सोहनलाल पाठक अपने मित्र ज्ञान सिंह के साथ स्याम चले आये और क्रान्तिकारी गतिविधियों में पुनः लीन हो गये। एक ही लक्ष्य सामने था किसी भी प्रकार अंग्रेजों के विरुद्ध लोगों को एक मंच पर लड़ने के लिए तैयार करना। सोहनलाल पाठक का जीवन परिचय
इस प्रयास में साम्प्रदायिकता नाम का कोई अस्तित्व नहीं था, हिन्दू मुसलमान सभी भाई-भाई थे और अंग्रेज भारतीयों के दुश्मन थे जिनसे पीछा छुड़ाना हर भारतीय का एकमात्र लक्ष्य था। हिंसा-अहिंसा की कोई बात आड़े नहीं आ रही थी।
जिस प्रकार सम्भव हो, जहाँ से सहयोग प्राप्त हो, जैसे भी प्रयास सफल होने की सम्भावना की परिधि में आते हों उनका परीक्षण करना ही उत्तम समझा गया। पंजाब में एक छोटे-से पट्टी गाँव के एक परिवार में जन्मे सोहनलाल पाठक केवल मातृभूमि की रक्षा एवं स्वतन्त्रता के लिए दर-दर की ठोकरें खाते फिर रहे थे।
उनके मित्र ज्ञान सिंह ने भी अपने उद्गार प्रकट करते हुए स्पष्ट लिखा था- ‘हम लोगों ने जंगलों में जाकर मातृभूमि की आजादी के लिए फाँसी चढ़कर मरने की शपथ खायी थी इसलिए भय नाम की चीज हृदय के निकट से गुजरी ही न थी।
‘हम मरकर देश के नौजवानों के हृदय में देशभक्ति की ज्वाला भड़काने के लिए अपने घर-बार, प्रियजनों, कुटुम्बी सम्बन्धियों से दूर, स्नेह और ममता का नाता तोड़ निःस्वार्थ भाव से अज्ञात दिशाओं में भटकते हुए प्रकाश की छोटी सी किरण पाने के लिए अपनी जान हथेली पर रख घूम रहे थे। मंजिल कहाँ, कैसे, कब मिलेगी किसी भी क्रान्तिकारी को ज्ञात नहीं था। इतना ही नहीं, शत्रुओं एवं मुखबिरों की कतार परछाई के समान हरदम पीछा करने में चूकते नहीं थे।
बिरसा विद्रोह के रोमांचकारी संस्मरण सोहनलाल पाठक के हृदय को छू चुके थे कि जनता अत्याचारों को कभी सहन नहीं करती, जितने प्रबल अनाचार होंगे उतनी ही गहरी जड़ें क्रान्ति के लिए मजबूती से अपनी पकड़ बनाती हैं।
बिरसा विद्रोह मुंडा विद्रोह के नाम से भी प्रसिद्ध है। जमींदारों के छल-कपट ने मुंडा जनता की जमीनें छीनकर हथिया लीं 15 वर्ष असन्तोष की आग सुलगी, मुंडों ने बगावत की- ‘जमीन मुंडों की है, वे मालिक हैं, जमींदार शोषणकर्त्ता हैं, जंगलात जो बलात् अंग्रेजों की सहायता से छीने गये, वे वापिस उन्हें मिलने चाहिए।’
जनता को ईसाई धर्म में परिवर्तित किया जाना भी मुंडों को रुचिकर न लगा जिसका विरोध भी साथ किया गया। अतः बिरसा अंग्रेजी राज के स्थान पर मुंडा राज कायम करने के हिमायती थे। उनका आन्दोलन ‘सरदारी लड़ाई’ के नाम से मशहूर हो गया था।
उनका विश्वास दृढ़ हो चला था कि मुंडे उत्तम जिन्दगी जीने के लोभ में ईसाई बने लेकिन पुराना अपना धर्म खोने के पश्चात् भी जिन्दगी बेहतर नहीं बनी, इसलिए विद्रोह स्वाभाविक था। धर्म का ढकोसला शोषण का हथियार जब जाना गया तो सबने मिलकर हिंसात्मक विद्रोह ईसा के जन्मदिन या एक दिन पहले की तिथि निश्चित की गयी।
मुंडों ने इस आन्दोलन की सफलता के लिए मन भरकर फिरंगियों का खून बहाया। क्योंकि विद्रोह का मुख्य कारण ही जमीन और जंगलातों का छीना जाना था। बिरसा राँची जिले के तमार थाने में स्थित दक्षिण में पहाड़ियों से घिरा छोटा-सा गाँव चलकद का लूथपन्थी ईसाई मुंडा थे जिसने 1895 में ईसाई धर्म से थे।
असन्तुष्ट होकर पुनः मुंडा बना और अपने को अवतार घोषित कर आन्दोलन चला अंग्रेजों के विरुद्ध मंच तैयार किया प्रचारित उसने यह किया कि उसे भगवान ने मुंडों की रक्षा और उनके लोक-परलोक बचाने के लिए अवतार के रूप में भेजा है।
जो मुंडे उसका साथ नहीं देंगे उनका सर्वनाश होगा। उसने घोषणा कर दी- ‘विक्टोरिया राज खत्म हुआ, मुंडा राज शुरू हो गया है। अंग्रेजों को मार भगाओ, हर मुंडे का यह धर्म है वे ही उनके प्रबल शत्रु हैं। कोई राजस्व उन्हें न दें, जमीन अपने ढंग से उपयोग में लायें। अंग्रेजों ने नाना प्रकार के यत्न किये वह बन्दी नहीं हो सका।
मुंडों ने जहाँ अंग्रेज मिलते मारते, काटते, अपमानित करते। मुखबिरों की सहायता से एक रात बिरसा सोता हुआ घर में पकड़ा गया। 2 साल जेल में बिताने पड़े। नवम्बर 1897 को जेल से छूटने पर 20 वर्षीय नौजवान बिरसा ने गुप्त रूप से मुंडों को अंग्रेजों के खिलाफ संगठित करते रहे।
28 जनवरी, 1898 को धुरिया पहुँचे और सिद्ध कर दिया कि वहाँ मन्दिर कोलों का था। बिरसा पन्थियों ने हिन्दू मन्दिर को अपवित्र ही नहीं किया वहाँ नाच किया, मूर्तियों को तोड़-फोड़कर बाहर फेंकवा दिया गया। हिन्दू बिगड़ उठे। उन्होंने बिरसा अनुयायियों को वहाँ से भगा दिया- अंग्रेजों ने इस आग पर अपनी रोटियाँ सेंकीं।
बिरसा गुप्तवास में जगन्नाथपुर मन्दिर गये। आन्दोलन की सफलता की कामना के लिए वहाँ आशीर्वाद भी प्राप्त किया। नागफेनी और अन्य महत्त्वपूर्ण स्थानों पर पहुँच बिरसा ने क्रान्तिकारियों से सम्पर्क भी साधा, जगह-जगह सभाओं के द्वारा मुंडों को एकत्रित कर विद्रोह के लिए तैयार किया।
1899 में बिरसा विद्रोही तेवरों सहित क्रिसमस के दिन तमार, बसिआ और राँची के थानों पर मुंडों से सामूहिक हमले कराये। इस संघर्ष में 8 आदमी मरे, 32 पीटे गये, लगभग 90 घर आग के शोलों की भेंट चढ़ा दिये गये। 1900 को उन्होंने घोषणा कर दी कि उनके शत्रु साहब लोग और अंग्रेज सरकार है, उनसे हर कीमत पर मुक्ति चाहिए।
5 जनवरी, 1900 को मुंडा विद्रोह सारे अंचल में फैल गया। खुन्ती थाना कब्जे में कर पुलिस को मार भगाया। स्थानीय बनिये विरोधियों के मकानों में आग लगा दी। कमिश्नर फारवेस के आदेश पर डिप्टी कमिश्नर स्ट्रीट फील्ड डोरंड 150 जवानों की टुकड़ी सहित खुन्ती पहुँचे तो 9 जनवरी को सैल रकाब (डुमरी पहाड़ी) पर बिरसा पन्थियों से उनकी मुठभेड़ हुई।
काफी संख्या में मुंडे लड़ाई में मारे गये में पर आत्म-समर्पण के लिए तैयार न हुए 3 फरवरी, 1900 को बिरसा पकड़े गये, राँची जेल में ही उनकी मृत्यु 9 जून को हैजे से हो गयी। इस विद्रोह को दबाने में अंग्रेजों ने 9 बिरसा पन्थियों को मृत्युदंड दिया, 44 को कालेपानी भेजा और 47 को लम्बी सजाएँ दे विद्रोह दबा दिया गया।
सन् 1883 में सोहनलाल पाठक का जन्म पट्टी गाँव, जिला अमृतसर में पंडित जिन्दाराम के घर में हुआ था। गाँव से ही मिडिल पास कर लिया। कुछ दिनों के पश्चात् वे जीविका के लिए शिक्षक के रूप में कार्यरत रहे।
यहीं उनका सम्पर्क लाला हरदयाल और लाला लाजपत राय से हुआ जिनकी प्रेरणास्वरूप वे एक निष्ठावान क्रान्तिकारी बन गये। इनके एक मित्र ज्ञान सिंह स्याम में रहकर क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़े थे जिनके आग्रह पर सोहनलाल पाठक भी वहाँ पहुँचे किन्तु कार्यक्षेत्र सीमित एवं संकुचित सा लगने पर उन्होंने अमेरिका जाने की ठान ली।
सोहन लाल पाठक को जहाँ विनायक दामोदर से क्रान्तिकारी बनने की प्रेरणा मिली वैसे ही नलिनी घोष भी उनके प्रेरणास्रोत रहे। नलिनी घोष दरिन्दा में नजरबन्द थे। अंग्रेजों की आँखों में धूल झोंक वे चन्दन नगर पहुँच गये।
वहाँ से गौहाटी में प्रवेश किया और भेष बदलकर 1919 में बिहार पहुँचकर संगठन कार्य का संचालन करने लगे। बिहार के गाँव-गाँव में बंगाली वेश-भूषा त्याग बिहारियों के समान क्रान्तिकारी संगठन में जुटे रहे। पुलिस ने पीछा किया तो गौहाटी में सक्रिय हो गये।
पुलिस पीछा करती क्रान्तिकारी मुकाम पर पहुँची और उषाकाल की पौ फटने से पूर्व गोलियाँ बरसने लगीं। नलिनी घोष ने अपने साथियों के साथ सुरक्षित इस गोलीबारी से पूर्व नवग्रह पहाड़ी पर पहुँच गये और मोर्चा जमा लिया।
नवग्रह पहाड़ी पर भीषण गोलीबारी में नलिनी घोष बुरी तरह घायल हो गये। सहयोगियों को सकुशल पहाड़ी से भगा दिया मगर दुर्भाग्यवश जहरीले कीड़े के काट लेने से वे लोग गम्भीर रूप से अस्वस्थ हो गये, साथ ही चेचक का आक्रमण भी हो गया।
15 जून, 1918 को ढाका में तारिणी मजुमदार के मकान को पुलिस ने घेर लिया क्योंकि गुप्तचरों को सूचना मिली थी कि नलिनी घोष अड्डे पर सक्रिय हैं। दोनों ओर से गोलियाँ चलीं। इस गोलीबारी में मजुमदार घिरकर शहीद हो गये।
पुलिस ने उस मकान को अन्त में घेरकर जब गोलियों से छलनी नलिनी घोष के निकट पहुँचकर नाम पूछा तो बड़े धैर्य और निर्भीकता से उत्तर में केवल इतना कहा- ‘तंग न करो भाई, मुझे शान्ति से मरने दो।” और वह आजादी का दीवाना माँ की रक्षा में अपनी बलि दे बैठा था। पाठक जी के मित्र सरदार ज्ञान सिंह ने लिखा-
हम लोगों ने जंगलों में जाकर मातृभूमि की आजादी के लिए फाँसी चढ़कर मरने की शपथ उठायी थी। हमारा बलिदान नौजवानों के लिए प्रेरणास्त्रोत अवश्य बनेगा। पाठक जी गदर पार्टी, अमेरिका में कार्यरत थे। उन्हें आदेश मिला है कि वे बर्मा पहुँचकर सैनिकों में कार्य करें।
सोहनलाल पाठक ने आदेशानुसार बैंकाक मार्ग से बर्मा में प्रवेश कर अपना कार्य बड़ी चतुराई और मनोयोग से प्रारम्भ भी कर दिया। फौज में विद्रोह की योजना पर तत्काल प्रचार प्रारम्भ होने में देर भी न लगी। सोहनलाल पाठक का जीवन परिचय
एक दिन पाठक जी गुप्त रूप से जब फौज के सिपाहियों को देशभक्ति और अंग्रेजों के विरुद्ध मरने-मारने का पाठ पढ़ा रहे थे अचानक एक भारतीय जमादार ने उनका दायाँ हाथ पकड़ लिया और अपने अफसर के सम्मुख ले जाने का बलात् प्रयास करने लगा। पाठक को उस भारतीय नीच से ऐसी आशा न थी,
इसलिए उसे समझाया गया किन्तु वह अपनी हठ से नहीं टला पाठक उस समय सशस्त्र थे, नीच को समाप्त कर सकते थे, किन्तु एक भारतीय भाई के खून से अपने हाथ रंगकर क्रान्तिकारी संगठन को कलंकित न कर वे गिरफ्तार हो गये। उन पर मुकदमा चलाकर फाँसी का दंड दिया गया।
जेल में कभी उन्होंने जेल नियमों का पालन नहीं किया। उनका तर्क था जब वे अंग्रेज को ही नहीं मानते तो उनके नियमों का बन्धन कैसा? बर्मा के गवर्नर जनरल ने जेल में उनसे कहा-‘अगर तुम क्षमा माँग लो तो फाँसी की सजा रद्द की जा सकती है।
साहस से हँसकर उन्होंने उत्तर दिया-‘अपराधी अंग्रेज हैं, क्षमा उन्हें हमसे माँगनी चाहिए। देश हमारा है। अपने अत्याचारों से अंग्रेजों ने भारत को पराधीन कर डाला है। हम उसे आजाद कराना चाहते हैं तो इसमें हमारा अपराध क्या हुआ?
अपने देश से 1000 मील दूर मांडले जेल में प्राणदान का प्रलोभन फाँसी के तख्ते पर जाने से पूर्व फिर दिया गया मगर वे जल्लाद के हाथों से फाँसी का फन्दा छीनकर स्वयं अपने हाथों गले में डाल फाँसी पर झूलकर शहीद हो गये। सोहनलाल पाठक का जीवन परिचय
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