सुखदेव का जीवन परिचय? Sukhdev Biography in Hindi

सुखदेव का जीवन परिचय: ऐसे ही एक विचित्र क्रान्तिकारी का नाम सुखदेव था। पंजाब प्रान्त के लायलपुर नामक स्थान पर 15 मई, 1907 में (जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है) सुखदेव का जन्म हुआ था। एक ओर गांधी बाबा का असहयोग आन्दोलन जनता को अहिंसा का पाठ पढ़ा रहा था। दूसरी तरफ देश में क्रान्तिकारियों ने अपनी क्रान्ति का बिगुल बजाकर गोरी सरकार को खुले संघर्ष की चुनौती दे डाली थी अत्याचारों के सहने की सीमा होती है।

सुखदेव का जीवन परिचय

सुखदेव का जीवन परिचय
Sukhdev Ka Jivan Parichay

Sukhdev Biography in Hindi

अंग्रेजों ने छल से भारत के भोले नागरिकों में फूट डाली, हमारी सामाजिक कुरीतियों, अन्धविश्वासों का लाभ उठाकर बलात् उन पर शासन की तलवार रख दी। ‘सोने की चिड़िया’ कहलाने वाला सम्पन्न एवं विशाल देश एक दिन गुलामी की जंजीर में जकड़कर परतन्त्र बनाया जायेगा किसी को स्वप्न में भी ऐसी आशा न थी।

विश्व में सभी को आजादी प्यारी है, चाहे मनुष्य हों या पशु-पक्षी / नभचर हों या जलचर जब भी उनकी स्वतन्त्रता छिनी, तो उन्होंने उसे पाने के लिए सदैव संघर्ष किया, लोहा लिया और तन, मन, धन से अपना सर्वस्व न्यौछावर कर बलिदान करने में कभी पीछे नहीं हटे।

सुखदेव का बचपन और शिक्षा-दीक्षा

सुखदेव के जन्म से केवल तीन माह पूर्व ही पिता रामलाल का देहान्त हो गया और उसके लालन-पालन का सारा बोझ माँ के विधवा कन्धों पर आ पड़ा था। सुखदेव के चाचा अचिन्तराम नगर के गल्ला व्यवसायी थे जिनका सहयोग भी आवश्यकतानुसार मिला।

विधवा माँ धार्मिक प्रवृत्ति की कुशल महिला थीं जो आर्य समाज के प्रति पूर्ण समर्पित होने के कारण शिशु सुखदेव में धैर्य, निष्ठा और आस्था के अंकुर बोती रहीं। सुखदेव बचपन में माँ से धार्मिक एवं वीररस की कहानियाँ सुनने के बड़े शौकीन थे।

आर्यसमाजी वातावरण में पले सुखदेव में परिवार के गुण तो आये साथ ही उनमें निडरता और साहस का अटूट संगम भी दृष्टिगोचर होने लगा। प्रारम्भिक शिक्षा धनपतमल आर्य स्कूल में आरम्भ हुई, हाई स्कूल की परीक्षा के लिए सनातन धर्म हाई स्कूल में भर्ती हो 1922 में प्रवेशिका परीक्षा द्वितीय श्रेणी में पास कर ली।

1919 की एक घटना

1919 की एक घटना बड़ी रोचक है। सुखदेव केवल बारह वर्ष के थे जब उनके चाचा अचिन्तराम को सरकार विरोधी गतिविधियों के कारण गिरफ्तार कर लिया गया। सुखदेव तब समझे भारत पर विदेशियों की हुकूमत है, अंग्रेज दुश्मन हैं,

इस देश पर शासन करना उनका अधिकार नहीं, गोरों की सरकार से पीछा छुड़ाना, भारतवर्ष को आजाद कराना जितनी शीघ्रता से हो, उतना ही अच्छा है। बालक का हृदय घृणा से भर गया, भावना तीव्र हो उठी, मन-ही-मन अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने का प्रण कर लिया। उनकी आँखों में एक ही स्वप्न तैरता रहा- ‘माँ को आजाद कराना है, परतन्त्रता की जंजीरें काट फेंकनी हैं।

जब वे कक्षा नौ के विद्यार्थी थे, ब्रिटिश सरकार का आदेश हुआ कि विद्यालयों में छात्र-छात्राएँ एक स्थान पर एकत्रित हो ब्रिटिश झंडे का अभिवादन नित्य प्रति करेंगे। उन्होंने इस अभिवादन का बहिष्कार ही नहीं किया अपने चाचा जी को सारी कहानी सुनायी।

चाचा ने सुखदेव के साहस की, निडरता की प्रशंसा करते हुए समझाया कि वास्तव में ऐसी लगन और जागरूकता ही देशभक्त बनने की सीढ़ी है। मुझे गर्व है, तुम पर। सुखदेव का जीवन परिचय

देश में स्वतन्त्रता संग्राम

प्रवेशिका पास कर उन्होंने नेशनल कॉलेज लाहौर में प्रवेश ले लिया। देश में स्वतन्त्रता संग्राम का बिगुल बज रहा था तो पंजाब ही उसकी गूँज से अछूता कैसे रहता। अत्याचार की आग जो अंग्रेजों ने भड़कायी थी चिनगारियाँ फैलती हुई अपने प्रभाव में हर व्यक्ति को लपटों में लेने लगीं।

पंजाब की आग पर काबू पाने के लिए दफा 144 का सहारा गोरी सरकार ने लिया जिससे लोग आन्दोलन में भाग न लें, जुलूस न निकालने पायें। सुखदेव का जीवन परिचय

आजादी के दीवानों की टोलियाँ पंजाब की गलियों, चौराहों, गाँवों और शहरों से निकलकर आदेश की परवाह किये बगैर जुलूस निकाले, सभाएँ कीं। इसमें क्रान्तिकारी सुखदेव कैसे पीछे रह जाता !

सुखदेव ने आन्दोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया क्योंकि देश में आये तूफान ने हर भारतीय युवक के मन में देशभक्ति की भावना भर दी थी, खून खौलने लगा था नौजवान मतवालों का जो विदेशियों को देश से बाहर निकालने के लिए उठ खड़े होना चाहते थे।

सन् 1921 में गांधी बाबा के अहिंसात्मक असहयोग आन्दोलन ने भारतवासियों के हृदय में एक अछूती विचारधारा पनपायी कि विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार देश का हर नागरिक करे, स्वदेशी वस्तुएँ ही उसे अपनानी चाहिए।

पंजाब के लोगों ने भी विदेशी वस्तुओं की होली अपने घरों से बाहर निकालकर जलायी। विचित्र हलचल गली-गली के चौराहों पर देखने को मिली। विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार से सुखदेव के हृदय में भी ऐसी चिनगारी भड़की कि वह विदेशी वस्तुओं का मोह त्याग उन्हें भस्म कर राष्ट्रसेवा का व्रत लेकर अपने जीवन का प्रमुख उद्देश्य बना कार्यक्षेत्र में उतर गया।

उसका स्वभाव ‘बात कम, काम ज्यादा में विश्वास करने लगा इसलिए इसके विपरीत आचरण रखनेवाले मित्र एक-एक कर दूर चले गये। वह और गम्भीर होता चला गया। सुखदेव का जीवन परिचय

‘असहयोग आन्दोलन’ के नारे से नया खून निराश होता गया चूँकि अहिंसा द्वारा अंग्रेजों को भारत से निकालने की बात असम्भव लगती। क्रान्तिकारियों की देश में बढ़ती गतिविधियों ने चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह आदि के नामों में रुचि पैदा कर दी थी, हर नौजवान चाहता उनसे सम्पर्क कर उनके साथ संघर्ष करे। अंग्रेजों के घिनौने दमन चक्र को बलात् तोड़ फेंका जाये।

‘जहाँ चाह वहाँ राह’ वाली कहावत फलीभूत हुई जब सुखदेव का सम्पर्क भगत सिंह से हुआ। भगत सिंह ने भी सुखदेव से मिलकर प्रसन्नता व्यक्त की और शीघ्रता से एक-दूसरे के निकट आते गये। दल में सुखदेव जैसे तरुणों की ही में आवश्यकता भगत सिंह को थी इसलिए भगवतीचरण वोहरा आदि से भेंट होने पर 1926 में लाहौर की ‘नौजवान भारत सभा’ का सक्रिय सदस्य वह हो गया।

नौजवान भारत सभा

‘नौजवान भारत सभा’ एक ऐसा खुला मंच था जो अपने विचारों और योजनाओं से जनता के बीच रूढ़िवादिता, कुत्सित अन्धविश्वासों एवं समाज में फैली बुराइयों को दूर कर अंग्रेजों के नापाक इरादों का पर्दाफाश करना अपना लक्ष्य मान बैठा था।

सदस्यों में राष्ट्रीय भावना का अभूतपूर्व संगम था इसलिए उनकी गिनती भी प्रमुख सक्रिय सदस्यों में की जाने लगी। कुछ समय बाद पंजाब प्रान्त के संयोजकों में से एक माने गये तब उन्हें कॉलेज छात्रावास से मुक्त हो जाना पड़ा चूँकि रात-रात भर संगठन के कार्य में जुटने से समय पर कॉलेज होस्टल में पहुँचना असम्भव था।

वार्डन ने सुखदेव को शंकालु दृष्टि से देखना प्रारम्भ किया तो छात्रावास से उन्होंने विदा ले ली। अब वे स्वच्छन्दतापूर्वक संगठन कार्य कर सकते थे। कहीं भी, कभी भी जाना हो जा सकते हैं, समय की कोई सीमा नहीं, कोई बन्धन नहीं, कोई भय भी नहीं।

लक्ष्य पूरा करना है, देश के दुश्मन अंग्रेजों को बाहर निकाल फेंकना है, इस प्रयत्न में यदि जान भी चली जाये तो चिन्ता की बात क्या है? गुलामी की ज़िन्दगी से मौत अच्छी है?” सुखदेव अपनी मर्जी का धुनी एवं हरफन मौला प्रवृति का युवक था जो अपनी इच्छानुकूल शीघ्रता से निर्णय लेने में सक्षम था।

मन में एक दिन विचार उठा कि क्रान्तिकारियों का बलिष्ठ एवं सहनशील होना अत्यन्त आवश्यक है। परीक्षण करना अनुचित नहीं इसलिए मार्ग में खड़े सिपाहियों के दल में प्रवेश किया। अचानक निकट खड़े एक सिपाही के गाल पर कसकर उसने तमाचा जड़ा ही था कि अन्य सिपाहियों ने उसे घेरे में ले लिया और तबीयत से मरम्मत करनी शुरू कर दी।

मार पड़ती रही, मुँह से उफ नहीं निकली, घायल अवस्था में वापिस लौटने पर भगत सिंह को अपनी पिटाई सम्बन्धी जानकारी दी। भगत सिंह ने प्रश्न किया- ‘कामरेड, जब किसी पुलिसिये ने तुम्हें छेड़ा नहीं, तो अनावश्यक पंगा आखिर तुमने क्यों लिया? कहीं पागल कुत्ते ने तो नहीं काटा था?” निश्छल मुस्कान भरी मुद्रा में आहत स्थलों पर सेंक देते हुए उन्होंने मौन साध लिया।

‘ऐसा कुछ नहीं था।’ सुखदेव सकपकाकर बोले। ‘फिर क्या पहाड़ तुम पर आ गिरा था? आखिर कोई तो कारण होगा?” सुखदेव का जीवन परिचय

‘आजमाइश अभ्यास कि क्रान्तिकारी कितनी कष्टप्रद यातनाएँ सहन कर सकता है। मैं केवल यह चाहता था कि सुखदेव कितनी मार खाकर भी मुँह नहीं खोल सकता ? हर परीक्षण कुछ-न-कुछ तो देता ही है। सो थोड़ा साहस भी जुटा कि मार खाने में किसी प्रकार पीछे नहीं हूँ।’ इसी परीक्षण की आजमाइश एक दिन ऐसी हुई कि मित्रता की कसौटी पर वे एकदम खरे उतरे।

साइमन कमीशन

ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को मूर्ख बनाने के लिए साइमन नामक अंग्रेज के नेतृत्व में एक कमीशन भेजा, जिससे सरकारी व्यवस्था में सुधार की घोषणा की जा सके। भारतवासी गोरों की चाल समझ गये। अपना विरोध प्रकट करने के लिए जनता के मंच से सभी नगरों में जुलूस निकालने, सभाएँ करने की व्यवस्था की गयी।

लाहौर में कमीशन के आगमन की खबर से क्रान्तिकारियों ने भी एक बैठक की जिसमें सुखदेव, भगत सिंह, भगवतीचरण वोहरा, जयचन्द्र आदि के अतिरिक्त 5-6 अन्य सदस्य भी उपस्थित थे। दुर्गा भाभी के घर पर प्रदर्शन के लिए काले झंडे तैयार किये जा रहे थे

एकान्त कमरे में किसी तरह पुलिस को सुराग मिल गया। प्रदर्शन विफल करने के लिए पुलिस ने घर पर छापा मार दिया। क्रान्तिकारी चूकनेवाले न थे। आँख झपकते-झपकते पुलिस की आँखों में धूल झोंक देशभक्त उस मकान से नौ-दो ग्यारह हो गये। सुखदेव का जीवन परिचय

इस भगदड़ में कमरे से सिर्फ सुखदेव भागने में सफल नहीं हुए। परिणाम यह निकला कि उसे पुलिस अपने साथ थाने ले गयी। वे खुश थे। मारपीट से अपने साथियों को यही पकड़वा देगा। चलो, एक मच्छर तो फँसा, काफी है।

सुखदेव को घंटों नाना प्रकार की यातनाएँ दी गयीं। मार-पीट की शायद ऐसी कोई विधि शेष नहीं छोड़ी, जिसका प्रयोग उसके अंग-प्रत्यंग पर न किया हो, किन्तु सुखदेव ने दल के किसी साथी का नाम मुँह से नहीं निकाला। सुखदेव का जीवन परिचय

उसने यह प्रमाणित कर दिखाया था कि क्रान्तिकारी फौलादी हैं, उस पर कोई असर होने वाला नहीं है। पुलिस की मार खाकर वह मर सकता है, पर मुँह से एक शब्द भी नहीं निकालेगा। वह हिमालय के समान अडिग है, स्थिर है, अटल है।

सुखदेव जितना गम्भीर, सहनशील और कठोर था उतना ही हँसमुख और हँसोड़ भी जो हरदम लोगों को प्रसन्न रखने के लिए रोचक प्रसंग ऐसे छेड़ता कि श्रोता के हँसते-हँसते पेट में बल पड़ जायें। इस प्रयत्न में वह स्वयं भी हँसकर लोट-पोट होने में सिद्धहस्त था। एक दिन दल के कार्यकर्त्ता से उसकी मुलाकात हुईं अभिवादन के पश्चात्सु खदेव द्वारा नाम पूछने पर उसने कहा- – ‘मुझे प्रभात कहते हैं।

रोचक संस्मरण सुखदेव के

इसके विपरीत एक रोचक संस्मरण सुखदेव के सन्दर्भ में और है-बोर्सटल जेल, लाहौर में क्रान्तिकारियों ने भूख हड़ताल कर दी। अंग्रेज मारपीट और यातनाओं के बल पर हड़ताल तुड़वाने पर उतारू थे। सुखदेव का जीवन परिचय

डॉक्टर बलात् हड़ताल तुड़वाने के प्रयत्न में जेल अधिकारियों के हट्टे-कट्टे सिपाही और कैदियों के सहयोग से क्रान्तिकारियों की कोठरियों में घुसे जिससे जबरन उन्हें दूध पिला दें अन्यथा हस्पताल पहुँचा दें। उनके साथ था जेल का बड़ा दारोगा खान बहादुर खैरदीन ।

दारोगा ने सुखदेव की कोठरी जैसे ही खुलवाई वह दरवाजे से हिरन के समान कुलाँचे मारता तीर की तरह भागने लगा। किसी को आशा भी नहीं थी कि 10 दिन का अनशनकारी कैदी इतनी तेजी और फुर्ती से दौड़ कैसे लगा सकता है।

1 बड़ी कठिनाई से सुखदेव जब पकड़ा गया तो तत्काल उसने स्वयं मार-पीट शुरू कर दी। किसी को मारता, किसी को काट लेता। अपने आदमियों को पिटते देख दारोगा की आँखों में खून उतर आया। गुस्से से वह पागल हो उठा।

कैदियों को आदेश देने पर सुखदेव की जमकर पिटाई हुई। बाद में उसे डॉक्टर के सामने प्रस्तुत किया गया। तब भी वह मुस्कराये जा रहा था। निकट आने पर सिपाही और कैदी मिले, उसे टाँगा और अस्पताल की ओर जब ले जाने लगे तो आँख बचाकर उसने दारोगा खान बहादुर के सीने पर ऐसी करारी लात मारी कि वह जमीन पर औंधा जा गिरा।

दारोगा चाहता तो उसकी पुनः जमकर पिटाई करवाता, किन्तु वह ऐसा झेंपा कि दुर्घटनास्थल से दूर चला गया। सुखदेव में सहिष्णुता और दृढ़ता का ऐसा कठोर एवं दृढ़ निश्चय कई बार चमत्कारी लगने लगता था जिसका कारण उन्होंने अपनी प्रतिभा का अभूतपूर्व प्रदर्शन किया।

सांडर्स की गोली मारकर हत्या

लाला लाजपतराय ने अंग्रेजों के विरोध में जब साइमन कमीशन के जुलूस का नेतृत्व किया तो उन पर लाठियों से भीषण प्रहार हुआ जिसके परिणामस्वरूप उनका देहान्त दूसरे दिन हो गया। इस दुर्घटना को क्रान्तिकारी मौन रहकर पी सकते थे लेकिन वे चुप न बैठे क्योंकि उनकी मृत्यु को उन्होंने राष्ट्रीय अपमान समझकर खून के बदले खून’ की योजना बनायी।

अंग्रेजों की ईंट का जवाब पत्थर से देना चाहते थे, उन्हें सबक सिखाना चाहते थे कि वे अपना दमन चक्र भारत में बन्द करें अन्यथा बलात् उन्हें भारत छोड़ना पड़ेगा। भगत सिंह और राजगुरु ने पुलिस अधिकारी सांडर्स की गोली मारकर हत्या कर डाली। पुलिस भगत सिंह को पकड़ने के लिए अनेकों स्थानों पर भाग-दौड़ करती रही।

विदेशी सरकार की नाक में दम आ गया क्योंकि भगत सिंह अपनी दाढ़ी-मूँछ कटवा दी थीं और उनको पहचानना कठिन था। सुखदेव भगत सिंह लेकर इस्लामाबाद तब तक निकल चुके थे।

दोनों ही अंग्रेजी हैट और बढ़िया सूट एक वरिष्ठ क्रान्तिकारी निवास स्थान पर पहुँचकर रात काटना चाहते थे। क्रान्तिकारी दोनों का स्वागत कर सन्देह भी व्यक्त किया कि यहाँ किसी समय पुलिस का छापा पड़ सकता है। सुखदेव ने निडरता से उत्तर दिया- ‘आप घबराइये मत, हमारी अपनी व्यवस्था पूरी है। लेकिन प्रियवर, भूख बहुत लगी है-भोजन चाहिए।’

दुर्भाग्यवश घर वहाँ उस समय थोड़ी खाद्य सामग्री जिसे खाकर कुछ क्षण को भूख रुक सकती थी। एक चारपाई पर सुखदेव और दूसरी बड़ी चारपाई पर भगत सिंह एवं वह क्रान्तिकारी साथ-साथ लेटे।

प्रातः काल 4 बजे पूर्व ही दोनों चुपचाप चारपाई से उठे और उस सन्देहास्पद क्रान्तिकारी के मकान से बाहर निकलकर दूसरे सुरक्षित स्थान की टोह में कदम बढ़ा दिये। सुखदेव को पढ़ने में विशेष रुचि होने बाद भी उनकी स्मरणशक्ति तीव्र थी। जो भी वे पढ़ते तत्काल उन्हें कंठस्थ हो जाता। इस प्रकार ये किसी से किसी विषय पर कभी भी चर्चा करने के लिए तैयार रहते।

जेल के साथियों में भगत सिंह के बाद सुखदेव ने समाजवाद का गम्भीरता से अध्ययन किया था। भारत माँ की बेड़ियों को काटने के लिए जिस आस्था से दल में जुड़े थे उन्होंने अपनी जान सदैव हथेली पर रखकर कार्य किया। उनका रहन-सहन कतई साधारण था इसलिए सभी साथी ‘विलेजर’ के नाम से उन्हें सम्बोधित करते।

तड़क-भड़क, दिखावा करने के वे सख्त विरोधी थे। ये सच्चे अर्थों में क्रान्तिकारी थे जो हर समय अपना बलिदान करने के लिए तैयार रहते। सांडर्स हत्या के पश्चात् कोई बड़ा धमाका कर अंग्रेजों की नींद उड़ाने के लिए दल के सदस्यों में सुखदेव ने चर्चा चलायी। भगत सिंह से अधिक प्रभावित थे, किन्तु भगवतीचरण वोहरा की भी निकटता रुचिकर लगती।

बैठक में सुखदेव को पंजाब के संगठन का कठिन कार्य सौंपा गया था जिसे पूरा करने के लिए वे जयचन्द्र को दल से दूर रखने के पक्षपाती थे। किन्तु जयचन्द्र ऐसा बदनुमा कम्बल था जो दल से चिपका हानि पहुँचाता मगर दल से हटने का नाम न लेता। उसका उद्देश्य केवल भगवती भाई की उभरती छवि को धूल-धूसरित करना ही था।

वह डरपोक न खुद कार्य करता न दल के अन्य लोगों की सक्रियता से प्रसन्न होता। दूसरे लोगों की टाँगे घसीटकर अफवाहें फैलाना ही उसकी नियति बन चुकी थी। उसका चरित्र सभी साथी पहचानने लगे थे मगर मौन रह जाते। स्वार्थ सिद्धि उसका प्रबलतम हथियार था जिसके प्रयोग में वह बड़ा चतुर था ।

सुखदेव के हाथ पर ‘ॐ’ शब्द गुदा था। यह फरारी के समय उसे रात-दिन खटकता। कहीं यह निशान जानलेवा न बन जाये। आगरे में बम बनाने के लिए नाइट्रिक एसिड खरीदा गया था। अचानक एक दिन ध्यान आया कि ‘ॐ’ का अक्षर बाजू पर खतरनाक है अतः उस गोदने को एसिड से उड़ा देना बुद्धिमानी है।

‘ॐ’ शब्द मिटाने के लिए एसिड ज्यों ही बाजू पर डाला गया, हाथ में गहरे घाव बने। सारा बाजू सूज गया साथ ही ज्वर चढ़ आया। उसने साथियों के पूछने पर मौन साधकर पीड़ा सहन करना उचित समझा मगर अठखेलियों में कमी नहीं आने दी।

आजाद और भगत सिंह काफी नाराज थे मगर वे भी मुस्कराये जब उसने कहा- ‘पहचान की निशानी तो मिटेगी ही साथ ही परीक्षण भी तो हो रहा है कि तेजाब में जलन कितनी है, क्या यह अनुभव कम है?”

उसने अपने घावों पर कोई मरहम-पट्टी न करा नियमित कार्य सुचारू रूप से करने का अभ्यस्त हो आगरे से लाहौर पहुँच गया। यहाँ भी यथावत् कार्य करता रहा, किसी को भनक न पड़ी कि हाथ अभी कितना आहत है जबकि घाव भर चुका था, केवल जले का निशान शेष था।

लाहौर में कार्य करते हुए एक दिन दुर्गा भाभी के घर पहुँचा, भगवती भाई बाहर गये थे। भाभी खाना बनाने में व्यस्त रसोई घर की खिड़की के निकट थीं। सुखदेव भगवती भाई के कमरे में जा बैठा। दुर्गा भाभी सुखदेव के घर में घुसते ही भाँप गयी थी

किन्तु उसके मौन को इतने समय बैठे रहना कुछ अस्वाभाविक जानकर रसोई से कमरे में घुसीं। पीछे से सुखदेव को देखा तो दंग रह गयीं-वह एक मोमबत्ती जलाये कुर्सी पर इत्मीनान से बैठा उसकी लौ पर बाजू के निशान को जला रहा था।

खाल जल गयी थी। भाभी के रोंगटे खड़े हो गये उन्होंने क्रोधित मुद्रा में डाँटते हुए मोमबत्ती को अपनी फूँक से बुझा दिया। सुखदेव मुस्कराता हुआ भाभी के स्नेह को स्वीकृति के मौन में छुपाना चाहता था। इतना जीवन्त स्वभाव था सुखदेव का।

सुखदेव भी अंग्रेजों की आँख का काँटा बन चुके थे। पुलिस हाथ धोकर उसके पीछे पड़ी थी क्योंकि वह भी खतरनाक क्रान्तिकारी की श्रेणी में पहुँच चुका था। सुखदेव भी बम बनाने के कार्य में सिद्धहस्त होने लगा था

किन्तु धनाभाव के कारण दल के कार्य समय पर सम्पन्न होने में कठिनाई होती। पंजाब नेशनल बैंक की मुख्य शाखा जो लाहौर में थी उसे लूटने की योजना बनी। किन्तु भरोसेमन्द कार-व्यवस्था न हो पाने के कारण डाका डालना अनुचित जान योजना टाल दी गयी।

एक अन्य रोचक घटना में सुखदेव का विचित्र चरित्र उभरता है। दूसरी बार जेल में क्रान्तिकारियों को विरोध प्रकट करने के लिए अनशन करना पड़ा। अनशन की अनुमति सुखदेव को भी प्राप्त हो गयी, यह ध्यान में रखकर कि सम्भवतः वह अपनी भूल के लिए पश्चात्ताप करने का इच्छुक है।

जेल अधिकारियों ने 15 दिन अनशन के बड़े धैर्य से काट दिये, किसी को कुछ नहीं कहा। सुखदेव ने अनशन चूँकि साहस से शुरू किया था इसलिए अन्न को छोड़िये पानी की एक बूँद भी नहीं ली। परिणाम यह हुआ कि पन्द्रहवें दिन सुखदेव की हालत बिगड़ गयी। तत्काल डॉक्टर को सूचित किया गया।

जेल में भगदड़ मच गयी। कहीं क्रान्तिकारी की मृत्यु न हो जाये इस भय से जेल अधिकारियों ने उसे अस्पताल से हटाकर कोठी में भेज दिया। डॉक्टरों के दल ने आकर परीक्षण किया, ज्यों ही उसे पानी पिलाने की चेष्टा की उसमें ऐसी अपारशक्ति आयी वह गिरता-पड़ता भागा और कुछ दूर पहुँचते ही लड़खड़ाकर भूमि पर गिरकर मूच्छित हो गया। डॉक्टरों ने नाक के रास्ते नली से पानी पिलाया और 5 मिनट बाद वह उठकर बैठ गया, अनशन तोड़ दिया।

सुखदेव (सुखदेव का जीवन परिचय) का इस प्रकार अनशन पर बैठ जाना और बगैर साथियों की सलाह, अपनी इच्छानुसार कभी भी तोड़ देना, अनुचित था। भूख हड़ताल में उसे न कोई रुचि थी और न सहानुभूति। इससे पूर्व भी जब वह अनशन पर बैठा था डॉक्टर, को परास्त करने के लिए एड़ी के पास की नस काटकर शरीर का सारा खून निकाल देने के लिए हजामत का ब्लेड लेकर बैठा भी था।

एकाएक उसका इरादा बदल गया जब उसने सोचा, ‘साथी सोचेंगे कि सुखदेव ने फाँसी से डरकर आत्महत्या करने का यत्न किया, लोग कायर भी कहेंगे। तब उसने बनेड फेंक दिया, तमाम रात करवटें बदलते बैचेनी से कटी।

प्रातःकाल डॉक्टर ने जब उसे दूध का ग्लास सामने किया तो उसने स्वयं अपने हाथों से दूध पीकर अनशन समाप्त कर दिया। यह समाचार जब अन्य साथियों को दिया गया तो क्रान्तिकारियों की नजरों में वह देशद्रोही बन गया था। कुछ साथियों ने उसे देख मुँह फेरना शुरू कर दिया।

दो दिन बाद भगत सिंह ने उसे बहुत समझाया, किन्तु उसने स्पष्ट उत्तर दिया- ‘भूख हड़ताल की सफलता है, किसी के मरने में और अनशन से डॉक्टर मरने नहीं देंगे। अगर गला काटकर मरना चाहूँ तो आत्महत्या फाँसी के डर से प्रचारित की जायेगी।

तुम रबड़ की नली से दूध ले सकते हो। लेकिन मैं अपने को खुद धोखा नहीं देना चाहूँगा। सुखदेव ने मुस्कराते हुए कहा-‘अनशन काफी सोच-समझकर मैंने तोड़ा है।’ भगत सिंह मौन हो गये जैसे उसे समझाने का कोई औचित्य शेष नहीं रह गया।

दूसरों के सम्मुख दया की भीख माँगना, रोना, गिड़गिड़ाना किसी की अनुचित सहानुभूति चाहने को अपने दुर्बल स्वभाव की कमजोरी मानकर जीना उसने नहीं सीखा था। न दूसरों को भ्रम में वह रखता था न स्वयं किसी के भ्रम में रहना चाहता था। उसकी स्पष्टवादिता से अगर कोई असन्तोष प्रकट करता, तो उसकी कतई उसे परवाह न थी।

सुखदेव, भगत सिंह और विजय कुमार सिन्हा ने मिलकर निर्णय ले लिया था कि जहाँ भी अंग्रेज अफसरों से सम्पर्क होगा वे सदैव विरोध प्रदर्शन के लिए एक ही नारा उद्घोषित करेंगे- ‘क्रान्ति अमर रहे, इंकलाब जिन्दाबाद, वन्दे मातरम् ।।

दल ने एक बैठक में यह फैसला किया कि केन्द्रिय असेम्बली में बम फेंककर एक बार फिर अंग्रेजों को चेतावनी दे डालें कि भारत भूमि पर अधिक दिनों तक शासन कर पाना कठिन काम है। इस बैठक में सुखदेव उपस्थित न थे।

भगत सिंह ने इस कार्य को सम्पन्न करने के लिए अपना नाम प्रस्तुत कर डाला। दल के अन्य सदस्यों ने अपनी असहमति प्रकट करते हुए कहा- ‘पुलिस सांडर्स हत्याकांड के पश्चात् पहले ही भगत के पीछे पड़ी है।

अगर बम फेंककर स्वयं को पकड़वाना ही है, इसका सीधा परिणाम होगा फाँसी। भगत सिंह की दल को अभी आवश्यकता अधिक है इसलिए अन्य किसी सदस्य को उनके स्थान पर भेजा जाये। बैठक स्थगित रखी गयी।

दो-तीन दिन बाद सुखदेव को पूर्ण जानकारी मिलने पर वह भगत सिंह के निकट पहुँचा और आवेश में बोला- ‘लगता है, तुम अहंकारी हो चुके हो। तुम्हें भ्रम हो गया है। यह दल तुम्हारे कन्धों पर नहीं टिका है यह क्यों नहीं कहते, ‘तुम डरपोक हो, कायर हो, फाँसी पर चढ़ने से डरते हो और मौत से घबराते हो ?” ‘तुम मुझे अपमानित करोगे, स्वप्न में भी विश्वास नहीं था। भगत सिंह ने क्रोधाग्नि को शान्त करते हुए कहा- ‘मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी।

‘सच्चे मित्र का कर्तव्य मित्र का मार्ग दर्शन है; न कि उसकी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाकर उसे पथभ्रष्ट करना है। सुखदेव मित्रों का मित्र है, शत्रु नहीं। भगत सिंह ने उसे गले लगा लिया और अपना निश्चय बदलकर चन्द्रशेखर आजाद को सूचित कर दिया।

भगत सिंह के आग्रह करने और सुखदेव के अनुशासित सलाह के कारण चन्द्रशेखर आजाद ने असेम्बली भवन पर बम फेंकने के लिए भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को अनुमति प्रदान कर दी।

इसी बीच दशहरे का त्यौहार आ गया। जनता ने बड़े चाव के साथ लाहौर में एक भव्य जुलूस निकालने की पूरी तैयारी कर ली थी। आयोजकों ने बड़े परिश्रम से रात-दिन लगाकर रामलीला का प्रबन्ध किया था। चारों ओर हर्षोल्लास का वातावरण बनाने में अपना खून-पसीना एक कर दिया था।

जब जुलूस सड़क के बीचों-बीच अपनी भव्यता से गुजर रहा था अचानक भीड़ में एक बम विस्फोट हुआ यह बम पुलिस ने दंगा भड़काने के उद्देश्य से किसी से भीड़ में फिंकवाया था। शहर में दंगा भड़क उठना स्वाभाविक था

इस प्रकार अमन के नाम पर गोरी सरकार ने जगह-जगह युवकों की गिरफ्तारियाँ कर क्रान्तिकारियों को खोज-खोजकर पकड़ना शुरू कर दिया। अन्य साथियों के समान सुखदेव भी पुलिस की पकड़ से बाहर निकल न सके। सरकार ने दंगे से क्रान्तिकारियों को जोड़कर अपना दमन चक्र चलाना प्रारम्भ कर दिया।

लाहौर षड्यन्त्र केस

बन्दी बनाकर उन पर भी मुकदमा लाहौर षड्यन्त्र केस के नाम से चलाया गया। 8 अप्रैल, 1929 को हिन्दुस्तानी जनमत के विरुद्ध वायसराय की अनुमति घोषणा के दिन असेम्बली में बम विस्फोट कर पर्चे बाँटते हुए भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त गिरफ्तार हुए। मुकदमा चला।

7 अक्तूबर, 1930 को गोरी सरकार ने अपना फैसला सुनाकर भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव (सुखदेव का जीवन परिचय) को फाँसी की सजा दे दी। सरकार इस फैसले को गुप्त रखना चाहती थी क्योंकि उसे भय था कि देश की जनता इस खबर को सुनकर भड़क न उठे।

यह गोपनीय फैसला थोड़े दिन बाद ही लोगों को पता लग ही गया जिसके परिणामस्वरूप लाहौर ही नहीं देश के कोने-कोने में इन सपूतों की रिहाई की माँग में सभाएँ हुईं, जुलूस निकाले गये, अपना विरोध सरकार के सम्मुख प्रकट किया किन्तु ब्रिटिश सरकार ने क्रान्तिकारियों को चुन-चुनकर फाँसी देकर उनके मनोबल को तोड़ने के साथ-साथ भारत में खौफनाक आतंक पैदा करने का बीड़ा उठा लिया था।

अन्त में 23 मार्च, 1931 की शाम को लाहौर के केन्द्रीय जेल में भारत माता के तीन युवा क्रान्तिकारियों-भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने बड़े साहस और धैर्य के साथ गुलामी की जंजीरों से माँ को मुक्त कराने के लिए हँसते-हँसते फाँसी के फन्दे को चूम लिया। वे अमर हो गये।

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