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सुकुमालिया का त्याग : राज्य में महामारी फैल गई की कहानी

सुकुमालिया का त्याग: बहुत समय पहले भरतखंड में वाराणसी राज्य था। वहां के राजा वासुदेव की मृत्यु के बाद उसके भाई जरा कुमार का पुत्र राजा बना। उसका नाम जितशत्रु था। वह बहुत शांतिप्रिय था। सारे राज्य में शांति थी। बह राजा जितशत्रु के दो पुत्र थे। एक का नाम था शशक और दूसरे का नाम था वसंत। वे दोनों बहुत बुद्धिमान थे उनकी एक बहुत रूपवती बहन थी बहन का नाम था, सुकुमालिया तीनों में बहुत प्रेम था वे आपस में हिलमिलकर रहते थे राजा ने अपने दोनों बेटों को खूब पढ़ाया और शास्त्र विद्या सिखाई।

सुकुमालिया का त्याग

सुकुमालिया का त्याग

एक बार वाराणसी राज्य में महामारी फैल गई। राजा जितशत्रु और उसकी रानी महामारी में मर गए। राज्य पूरी तरह नष्ट हो गया। किसी प्रकार बचकर शशक और वसंत अपनी बहन कुमालिया को लेकर निकल पड़े।

वे तीनों प्राण बचाकर एक जैन मुनि के आश्रम में पहुंच गए। मुनि ने जान लिया कि ये तीनों राजा की संतान हैं। संकट में पड़े हुए भाई-बहन को दया के सागर मुनि ने दीक्षा देकर अपना शिष्य बना लिया। दोनों भाई पुरुषों के साथ रहने लगे और बहन सुकुमालिया उपाश्रय में गणिनी की देख-रेख में रहने लगी।

राजकुमारी सुकुमालिया बहुत रूपवती युवती थी जब वह भिक्षा लेने के लिए नगर में जाती थी, तो बहुत-से बुरे और आवारा युवक उसका पीछा करते और उसे परेशान किया करते थे। बेचारी राजकुमारी चुपचाप भिक्षा लेकर चली आती थी आवारा युवकों की हिम्मत बढ़ती जा रही थी और वे अब बेचारी सुकुमालिया को अधिक तंग करने लगे थे। इस प्रकार राजकुमारी के लिए सुंदर होना जैसे श्राप हो गया! वह सोच में पड़ी रहती थी कि कैसे इन बदमाश युवकों से अपनी रक्षा करे ?

उन आवारा युवकों की हिम्मत इतनी बढ़ गई कि वे उपाश्रय में आकर सुकुमालिया और दूसरी भिक्षुणियों को भी परेशान करने लगे। आखिर एक दिन गणिनी ने मुनि को सारी बात बताकर कहा- “मुनिवर ! बेटी सुकुमालिया भिक्षुणी का धर्म पूरी सच्चाई के साथ निभाती है। फिर भी नीच मन वाले आवारा युवक उसके सौंदर्य को देखकर उसे परेशान करते हैं। ऐसे में हम क्या करें ?”

मुनि कुछ देर सोचते रहे। उन्होंने शशक और वसंत को बुलाकर कहा- “बेटा कुछ नीच भावना वाले तरुण रोज तुम्हारी बहन को परेशान करते हैं। वे तो भिक्षुणियों के उपाश्रय में भी घुस आते हैं। तुम्हें अपनी बहन की रक्षा करनी चाहिए।” शशक और वसंत मुनि से जैन धर्म की दीक्षा ले चुके थे वे हाथ जोड़कर बोले “मुनिवर हम क्या करें? क्या उन तरुणों की नीच हरकत के लिए उन्हें पीटना उचित होगा ?

क्या इससे हम हिंसा करने के दोषी नहीं होंगे ?”

” कदापि नहीं, अहिंसा का तात्पर्य अपमान या अत्याचार सहन करते हुए कायर बनना कदापि नहीं है। अपने किसी स्वार्थ के लिए अकारण किसी पर प्रहार करना या कष्ट देना हिंसा है। लेकिन जब किसी अन्याय का मुकाबला करना हो, तो शस्त्र उठाना वीर का धर्म होता है। अपनी बहन की रक्षा करना तुम्हारा धर्म है। अपमान सहना कायरता है।” मुनि ने ऊंचे स्वर में कहा।

अगले दिन शशक ने छोटे भाई को भिक्षा के लिए भेज दिया। स्वयं वह लाठी लेकर बैठ गया। कुछ देर बाद जब तीन-चार बदमाश युवक भिक्षुणियों के उपाश्रय की तरफ आते दिखाई दिए, तो शशक ने आगे बढ़कर उन्हें ललकारा-“अरे बेशर्मो क्यों अपने चरित्र पर कलंक लगाते हो ? इन असहाय भिक्षुणियों को परेशान करते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती ? आज मैं तुमको सबक सिखाता हूं।” यह कहकर शशक ने उन बदमाशों को लाठी के प्रहार से अधमरा कर दिया। वे किसी प्रकार अपनी जान बचाकर वहां से भाग पड़े।

सारे आश्रम में शशक की वीरता का समाचार फैल गया। जब सुकुमालिया ने सारी घटना सुनी तो उसे खुशी भी हुई और दुख भी हुआ वह सोचने लगी” सारा दोष तो मेरे इस रूप का ही है। अगर मैं सुंदर न होती, तो यह अपमानजनक बात भला क्यों होती? मेरे कारण मेरे भाइयों के जीवन और आश्रम की शांति को खतरा हो गया है। क्या करना है ऐसी सुंदरता का ?”

सुकुमालिया सोचती रही। आखिर में उसने एक फैसला किया। उसने अनशन करके अपने आपको दुर्बल और कांतिहीन बनाने का निश्चय कर लिया। उसे यह विश्वास था कि ऐसा करने से उसके भाइयों को होने वाली चिंता दूर हो सकेगी।

लगातार अनशन करने के कारण सुकुमालिया क्षीण हो गई। एक दिन वह अचेत होकर गिर पड़ी। दोनों भाइयों ने जब उसे बेहोश देखा, तो घबरा गए। बहुत प्रयास करने पर भी जब बहन को होश नहीं आया, तो वे समझे कि बहन मर गई है।

दोनों बहन की याद में रोने लगे। शशक ने वसंत से कहा- “भाई! हमारी छोटी बहन इसलिए मर गई कि हमारे ऊपर कष्ट न आए। हमें मुसीबत से बचाने के लिए खुद को भूखा रखने वाली सगी बहन अब कहां मिलेगी ?” छोटा भाई भी फूट-फूटकर रोने लगा।

दोनों ने बहन का दाह संस्कार करने का विचार किया। शशक ने कहा- “भाई! हम इसे कैसे जलाएं? हमारे पास तो कुछ भी नहीं है। चलो, इसे नदी के किनारे रखकर गुरु के पास चलें वे जैसा कहेंगे, वैसा ही हम करेंगे।”

शशक ने सुकुमालिया को उठाया और वसंत ने उसके भिक्षा मांगने वाले बर्तन आदि उठाए। नदी किनारे जब दोनों पहुंचे, तो बहन को शीतल हवा के स्पर्श से होश आ गया। उसने समझ लिया कि भाइयों ने उसे मरी हुई जान लिया है, इसलिए वह चुपचाप उसी तरह बेहोश बनी रही। दोनों भाई उसे एक स्थान पर रखकर गुरु के पास चले गए।

अब सुकुमालिया ने आंखें खोलीं। उसने मन में सोचा कि अब मेरे भाई मुझसे मुक्त होकर चैन के साथ जी सकेंगे। तभी भिक्षुणी बनी राजकुमारी सुकुमालिया को रथ के आने की आवाज सुनाई पड़ी।

रथ के चालक ने उसे देखा तो रथ रोक दिया। रथ में बैठे हुए श्रेष्ठिपुत्र ने उतर कर उससे पूछा – “तुम कौन हो ? इस प्रकार यहां एकांत स्थान पर क्यों बैठी हो ? क्या मैं तुम्हारी कोई मदद कर सकता हूं।

सुकुमालिया अनशन करने के कारण कमजोर जरूर हो गई थी, लेकिन उसकी सुंदरता कम नहीं हुई थी। उसने पूरी कथा श्रेष्ठिपुत्र को सुना दी। जब श्रेष्ठिपुत्र को पता चला कि वह वाराणसी के राजा जितशत्रु की पुत्री है, तो उसने आदरसहित उसे रथ में बैठने को कहा। सुकुमालिया ने शांतभाव से उसे कहा- “हे श्रेष्ठपुत्र मेरा रूप ही मेरे लिए सबसे बड़ा शत्रु बन गया है। नारी को जब तक रक्षक के रूप में पति नहीं मिलता, तब तक वह असहाय लता की तरह गिरती पड़ती रहती है। यदि आप मेरी सहायता करना चाहते हैं, तो मुझे अपनी पत्नी बनाकर घर ले चलें। “

श्रेष्ठपुत्र ने सुकुमालिया की बात सुनकर कहा- “सचमुच तुम राजा जितशत्रु की योग्य पुत्री हो जो नारी अपने धर्म के लिए प्राणों तक की बाजी लगा सकती हो, वह तो सदा पूज्य है। तुमने अपने भाइयों की मुसीबत दूर करने के लिए अनशन करके अपने आपको मिटाने का जो व्रत धारण किया, वह आसान नहीं है। मैं तुमसे विवाह करने को तैयार हूं।”

सुकुमालिया ने श्रेष्ठिपुत्र को पति के रूप में स्वीकार कर लिया। भिक्षा के बर्तन और कपड़े आदि वहीं छोड़कर, वह श्रेष्ठिपुत्र के साथ रथ पर बैठ उसके नगर आ गई। कुछ देर बाद दोनों भाई आए, तो बहन को न देख चिंतित हुए।

दोनों भाइयों ने उसे बहुत ढूंढा। जब वह कहीं नहीं मिली, तो यह सोचकर संतोष किया कि कोई जंगली जानवर उठाकर ले गया होगा। बहन की निशानी मानकर दोनों ने उसके कपड़े और भिक्षापात्र उठा लिए। दोनों आश्रम लौट आए। बहन के न रहने से वे बहुत उदास हो गए। कुछ समय बीता। एक दिन शशक और वसंत को गुरु ने भिक्षा के लिए नगर में भेज दिया। संयोग ऐसा हुआ कि वे दोनों भाई भिक्षा के लिए उसी श्रेष्ठिपुत्र के घर पहुंच गए, जिससे सुकुमालिया ने विवाह किया था।

सुकुमालिया विवाह के बाद भिक्षुणी तो रही नहीं थी। श्रेष्ठिपुत्र के यहां सभी सुख सुविधाएं उसे मिलती थीं। वह अब स्वस्थ हो गई थी और सुंदर भी लगती थी। उसने शरीर पर बहुमूल्य आभूषण और सुंदर वस्त्र धारण कर रखे थे। जब दोनों भिक्षुओं ने भिक्षा मांगी, तो सुकुमालिया स्वयं घर से बाहर आई। उसने अपने भाइयों को तुरंत पहचान लिया, लेकिन वह चुप ही रही।

जब उसने शशक और वसंत को भिक्षा दी, तो जानबूझकर उनका ध्यान खींचने के लिए पूछा- “हे भिक्षुओं! आप कहां रहते हो ?” बहन जैसी आवाज सुनकर शशक और वसंत चौंक पड़े। वे भिक्षा लेते हुए कभी किसी महिला की ओर आंख उठाकर नहीं देखते थे। जब बहन जैसी आवाज सुनी तो उनकी नजर सहसा ही सुकुमालिया पर पड़ी।

उसे देखकर दोनों आश्चर्य में पड़ गए उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि हमारी बहन से मिलती-जुलती-सी यह महिला कौन है ? शशक ने धीरे से वसंत के कान में कहा- “क्या तुम भी वही देख रहे हो, जो मैं देखता हूं? यह महिला तो हमारी बहन जैसी ही लगती है, मैं तो चक्कर में पड़ गया हूं!”

छोटे भाई वसंत ने उत्तर दिया- “सचमुच में भी इसे देखकर चक्कर में पड़ गया हूं। हमारी बहन तो मर गई है। हमने खुद उसे नदी किनारे रख दिया था। फिर यह महिला हमारी वही बहन कैसे हो सकती है ? नहीं, नहीं। यह हमारा मोह है। हमें अपना विवेक नहीं खोना चाहिए।”

जाने क्या हुआ कि शशक और वसंत खड़े ही रहे और सुकुमालिया को ताकते रहे। तब बहन ने उनसे पूछा- “हे भिक्षुओं! आप इस प्रकार मुझे क्यों ताक रहे हो ? क्या कुछ और चाहिए? अपने मन की बात छिपाना ठीक नहीं होता। मुझे तो आप बता ही सकते हैं?”

आश्चर्य में डूबा शशक बोला- ” आप हमें हू-ब-हू हमारी बहन जैसी लगती हैं। क्षमा करें, हम इसलिए रुक गए और आपको देखने लगे। हम बहन से बहुत प्रेम करते हैं। शायद इसीलिए भिक्षु होकर भी हम उसका मोह नहीं छोड़ पाए हैं। हमारी बहन तो मर गई है। आप कैसे हमारी बहन सुकुमालिया हो सकती हैं ?” वे दोनों चलने के लिए मुड़े। सुकुमालिया की आंखें भर आई। वह भाइयों का इतना प्यार देखकर भाव-विभोर हो उठी।

वह शशक का हाथ पकड़ कर बोली- “मैं ही आप दोनों की अभागी बहन सुकुमालिया हूँ मैं मरी नहीं थी, बल्कि आप दोनों की चिंता दूर करने के लिए ही श्रेष्ठिपुत्र से विवाह करके यहां आ गई थी। मैं ही सुकुमालिया हूं।” शशक और वसंत ने छोटी बहन को गले लगा लिया। फिर श्रेष्ठिपुत्र और सुकुमालिया को लेकर वे दोनों गुरु के पास आए। गुरु ने प्रसन्न होकर कहा-“सचमुच भाई बहन का प्रेम कैसा होता है, यह तुमने दिखा दिया है। दूसरे को कष्ट से बचाने के लिए तुम स्वयं कष्ट सहते रहे। अब तीनों सुख से रहो।” सुकुमालिया और श्रेष्ठिपुत्र ने भी जैन धर्म की दीक्षा ले ली और नगर में लौटकर सुख से रहने लगे।

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