सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का जीवन परिचय? सुरेन्द्रनाथ बनर्जी पर निबंध?

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का जीवन परिचय (Surendranath Banerjee Ka Jeevan Parichay), सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का जन्म 10 नवम्बर, 1848 ई० में हुआ था। उनके पिता का नाम दुर्गाचरण बनर्जी था। वे एक सम्पन्न व्यक्ति थे संपन्न कुटुम्ब में जन्म लेने के कारण उनका पालन-पोषण अच्छे ढंग से हुआ। बाल्यावस्था में उन्होंने कभी भी अभाव का अनुभव नहीं किया।

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का जीवन परिचय

सुरेन्द्रनाथ-बनर्जी-का-जीवन-परिचय
पूरा नामसुरेन्द्रनाथ बनर्जी
जन्म10 नवम्बर, 1848
जन्म स्थानकलकत्ता
पिता का नामदुर्गाचरण बनर्जी
मृत्यु6 अगस्त, 1925
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का जीवन परिचय (Surendranath Banerjee Ka Jeevan Parichay)

बनर्जी की शिक्षा-दीक्षा कलकत्ते में ही सम्पन्न हुई। कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी०ए० की परीक्षा पास करने के पश्चात् वे पढ़ने के लिए इंग्लैण्ड चले गये। उन्होंने बड़े ही परिश्रम के साथ पढ़कर सम्मानपूर्वक आई०सी०एस० की परीक्षा पास की।

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी पहले भारतीय थे, जिन्होंने राष्ट्रीय एकता के लिए अथक प्रयत्न किया था। सर्वप्रथम उन्होंने यह अनुभव किया था कि भारतीय जनता को आन्दोलन के द्वारा ऐसी प्रेरणा दी जानी चाहिए, जिससे वह अपने को मद्रासी, बंगाली, मराठी, असमी, उड़िया और पंजाबी आदि न कहकर, भारतीय कहे- हिन्दुस्तानी कहे।

उन्होने जनता को एकता के सूत्र में बांधने के लिए ही कलकत्ते में स्टूडेंट एसोसिएशन की स्थापना की थी। उन्होंने एसोसिएशन की ओर से सारे भारत का दौरा भी किया था। उन्होंने अपने दौरे में जनता से कहा था- भारत को स्वाधीनता उसी समय प्राप्त हो सकती है, जब भारत के लोग अपने मतभेदों को भुलाकर एकता के सूत्र में बंधेंगे।

बनर्जी बहुत बड़े वक्ता तो थे ही, अच्छे लेखक भी थे। उन्होंने उस समय के अखबारों में एकता सम्बन्धी लेख लिखकर जनता को एकता के सूत्र में बांधने का प्रशंसनीय प्रयास किया था। उन्होंने इटली के क्रान्तिकारी नेता मेजनी और चैतन्य महाप्रभु पर भी कई महत्त्वपूर्ण लेख लिखे थे। उन्होंने अपने इन लेखों के द्वारा भी जनता को एकता का महत्त्व समझाया था।

बंगाली जनता और बंगाली विद्यार्थियों पर उनका बड़ा प्रभाव था। कई बंगाली युवक अपनी प्रेरणा से ही देशभक्ति के क्षेत्र में उतरे थे और उन्होंने स्वाधीनता की वेदी पर अपना मस्तक तक चढ़ा दिया था।

उन दिनों कलकत्ते में एक संस्था स्थापित थी, जिसका नाम ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन था। उस संस्था में बड़े-बड़े अंग्रेज तो थे ही बड़े-बड़े बंगाली जमींदार भी थे। ऐसी एक भी संस्था नहीं थी, जिसमें मध्य श्रेणी के लोग सम्मिलित हो सकते हों, अथवा जिसमें मध्य श्रेणी के लोगों के हितों और अधिकारों पर विचार किया जाता हो।

बनर्जी की दृष्टि में देश की स्वाधीनता के लिए मध्य श्रेणी के लोगों को जगाना आवश्यक था, क्योंकि मध्य श्रेणी की जनता में अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों की संख्या सर्वाधिक थी। इस अभाव की पूर्ति के लिए ही बनर्जी ने आनन्दमोहन घोष के सहयोग से एक नई संस्था स्थापित की जिसका नाम था-

इण्डियन एसोसिएशन यद्यपि इण्डियन एसोसिएशन में भी भारत की स्वाधीनता के सम्बन्ध में खुलकर बात नहीं होती थी, किन्तु इस संस्था के द्वारा अंग्रेजी पढ़े-लिखे बंगालियों में नई चेतना का प्रचार प्रशंसनीय रूप में हुआ। कहना ही होगा कि सैकड़ों बंगाली युवक उस नई चेतना से ही प्रभावित होकर स्वाधीनता के क्षेत्र में उतरे थे और त्याग तथा बलिदान के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किये थे।

इण्डियन एसोसिएशन के द्वारा कलकत्ते में स्थान स्थान पर सभाएं आयोजित की जाती थीं। बनर्जी उन सभाओं में उसी प्रकार बोलते थे, जिस प्रकार बादल गरजते हैं। उन दिनों लाउडस्पीकर का प्रचलन नहीं हुआ था बनर्जी जब बोलते थे, तो ऐसा ज्ञात होता था, मानो वह लाउडस्पीकर से ही बोल रहे हों। उनकी वाणी बड़ी गंभीर थी और दूर तक सुनाई देती थी।

आई०सी०एस० को परीक्षा पास करके जब वे भारत आये, तो 1873 ई० में उन्हें सिलहट के असिस्टेन्ट मजिस्ट्रेट के पद पर नियुक्त किया गया। मजिस्ट्रेट अंग्रेज था। वह भारतीयों को नीची दृष्टि से देखा करता था। उसने कई बार बनर्जी के साथ भी अशोभनीय व्यवहार किया। परिणाम यह हुआ कि, बनर्जी और कलक्टर में मतभेद उत्पन्न हो गया।

जब मतभेद ने उग्र रूप धारण किया तो सच्चाई का पता लगाने के लिए एक कमीशन नियुक्त किया गया। उस कमीशन में भी अंग्रेज ही थे। कमीशन ने जांच-पड़ताल के बाद जो रिपोर्ट दी, वह बनर्जी के विरुद्ध थी। उसी रिपोर्ट के आधार पर इंग्लैण्ड स्थित भारत मंत्री ने बनर्जी को नौकरी से बर्खास्त कर दिया।

बनर्जी का हृदय अपमान के आघात से तिलमिला उठा। उन्हें जो दंड दिया गया था, इसलिए नहीं दिया गया था कि उनका कोई अपराध था। इसलिए दिया गया था कि वे भारतीय थे। उन दिनों भारतीयों को अंग्रेजों के मुकाबले में बहुत ही निम्न श्रेणी का समझा जाता था।

कांग्रेस के संस्थापक सर हम भी आई०सी०एस० अफसर थे, किन्तु उन्होंने अवकाश ग्रहण कर लिया था। उन्होंने बनर्जी की बर्खास्तगी पर एक लेख में लिखा था- ” अंग्रेजी सरकार इस बात की चेष्टा में रहती है कि भारतीयों के द्वारा टाई और भवन को गंदा न होने दिया जाय। बनर्जी की बर्खास्तगी अंग्रेजी सरकार के इसी विचार का परिणाम है।

जिस प्रकार महादेव ने महागरल का पान किया था, उसी प्रकार बनर्जी ने अपमान के महागरल का पान किया। उन्होंने अनुभव किया कि जब तक भारतीय जागेंगे नहीं- कमर कसकर उठेंगे नहीं, तब तक अंग्रेज भारतीयों का अपमान करते ही रहेंगे, ठोकरे लगाते ही रहेंगे।

फलत: बनर्जी नौकरी से पृथक् किये जाने के पश्चात् चारों ओर घूम-घूमकर भारतीयों को जगाने लगे। जागृति का शंख फूंकने लगे। वे जब तक जीवित रहे, भारतीयों को जगाते रहे। उनके प्राणों में महामंत्र फूंकते रहे। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का जीवन परिचय।

नौकरी से पृथक् करने के पश्चात् बनर्जी को सरकार की ओर से 50 रुपये मासिक पेंशन दी जाती थी। यह रकम इतनी छोटी थी कि जीवन का निर्वाह होना बड़ा कठिन था। अतः बनर्जी ने बैरिस्टरी की परीक्षा पास करके वकालत करने का निश्चय किया।

बैरिस्टरी की परीक्षा पास करने के लिए वे इंग्लैण्ड गये। उन्हें अंग्रेजों की घृणा और उनके जातीय पक्षपात का घिनौना चित्र तब देखने को मिला, जब ब्रिटिश सरकार ने उन्हें बैरिस्टरी का प्रमाण-पत्र देने से इंकार कर दिया। कहा यह गया कि वे नौकरी से पृथक् कर दिये गये हैं, अतः वे बैरिस्टर नहीं बन सकते।

बनर्जी के सामने अंधेरा-ही-अंधेरा था। केवल हिन्दुस्तानी होने के कारण अंग्रेजों ने उनके जीवन निर्वाह के सारे द्वार बन्द कर दिये। पर वे निराश नहीं हुए। उन्होंने एक वर्ष तक इंग्लैण्ड में रहकर यूरोप के देशों के महान् पुरुषों के जीवन चरित्रों का अध्ययन किया। यही नहीं, उन्होंने सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थिति का भी अध्ययन किया।

उन्होंने जब यूरोप के देशों से अपने देश की तुलना की, तो जमीन और आसमान का अन्तर पाया। उनका हृदय दुःख से मथ उठा। उन्होंने निश्चय किया कि अब वे किसी नौकरी में नहीं लगेंगे, बल्कि अपने देशवासियों को जगाने में ही अपने जीवन को मिटा देंगे। बनर्जी भारत लौटकर अपनी साधना में लग गये, भारत के लोकमत को उद्बुद्ध करने लगे।

किन्तु जीवन का निर्वाह कैसे हो- यह प्रश्न तो बनर्जी के सामने बना ही रहा। मनुष्य कितना ही दृढ़प्रतिज्ञ क्यों न हो, रोटी और कपड़े की आवश्यकता तो पड़ती ही है। बनर्जी सदा चिन्तित रहा करते थे। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने उनकी चिन्ता दूर कर दी। उन्होंने उन्हें कलकत्ते के मैट्रोपोलिन की एक शिक्षण संस्था में दो सौ रुपये मासिक पर अंग्रेजी का शिक्षक नियुक्त कर दिया।

कुछ दिनों पश्चात् बनर्जी सिटी कॉलेज में चले गये। वहां अंग्रेजी के प्रोफेसर नियुक्त हो गये। सिटी कॉलेज में उन्हें 300 रुपये मासिक वेतन मिलता था। 1882 ई० में उन्होंने स्वयं एक स्कूल खरीद लिया। उनके प्रयास से वह स्कूल कॉलेज बन गया। जिसका नाम था, रिपन कॉलेज बनर्जी कॉलेज का संचालन तो करते ही थे, कालेन में अंग्रेजी पढ़ाया भी करते थे।

अध्यापन कार्य करते हुए, बनर्जी ने दो मुख्य काम किये- (1) विद्यार्थियों में राजनीतिक चेतना का प्रचार और (2) लोकमत को जागृत करने का प्रयत्न बनर्जी ने कलकत्ते में तो विद्यार्थियों में राजनीतिक चेतना का प्रचार किया ही, कलकत्ते के बाहर भी किया। उन्होंने स्टूडेंट एसोसिएशन की ओर से सारे भारत का दौरा किया और विद्यार्थी सभाओं में भाषण दिये।

उन्होंने बड़े ही ओजस्वी शब्दों में विद्यार्थियों से कहा- “प्रत्येक विद्यार्थी को राजनीतिक आन्दोलन में भाग लेना चाहिए; क्योंकि देश का दायित्व विद्यार्थियों के कंधों पर है।” इसका परिणाम यह हुआ कि बनर्जी विद्यार्थियों में अधिक लोकप्रिय हो गये। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का जीवन परिचय।

कलकत्ता के विद्यार्थी तो उन्हें अपना पथ-प्रदर्शक ही मानने लगे। बनर्जी का मत था कि देश की सारी जनता को एक ही झंडे के नीचे एकत्र होकर समग्र उन्नति के लिए कार्य करना चाहिए। उन्होंने उसके लिए भी सारे देश का भ्रमण किया और बड़ी-बड़ी सभाओं में भाषण दिये।

उन्होंने अपने भाषणों में कहा- “देश की उन्नति के लिए आपस की एकता बहुत जरूरी है। जब तक देशवासी एकता के सूत्र में नहीं बंधेंगे, अंग्रेज मनमानी करते ही रहेंगे।” इन्हीं दिनों बनर्जी ने मेजनी और चैतन्य महाप्रभु पर कई लेख लिखे तथा भाषण भी दिये।

उन लेखों और भाषणों से उनकी लोकप्रियता और भी बढ़ गई। वे कलकत्ते में ही नहीं, सारे देश में एक प्रसिद्ध नेता के रूप में सम्मानित किये जाने लगे। लोकमत को जागृत करने के उद्देश्य से ही बनर्जी ने आनन्दमोहन घोष के साथ मिलकर इंडियन एसोसिएशन की स्थापना की। उनकी यह संस्था मध्य श्रेणी के अंग्रेजी पढ़े-लिखे बंगालियों का प्रतिनिधित्व करती थी।

1885 ई० में कांग्रेस की स्थापना हुई। उसका प्रथम अधिवेशन बम्बई में हुआ था बनर्जी प्रथम अधिवेशन में तो भाग नहीं ले सके थे किन्तु उसके पश्चात् तो वे 1917 ई० तक बराबर कांग्रेस के अधिवेशनों में भाग लेते रहे। 1895 ई० में पूना में और 1902 ई० में अहमदाबाद में वे कांग्रेस के अध्यक्ष भी चुने गये थे। उन्होंने अध्यक्ष पद से जो भाषण दिये थे, वे बड़े ही महत्त्वपूर्ण थे। उन्होंने अपने भाषण में अंग्रेजों की कुटिल नीति की तीव्र आलोचना की थी।

लोकमत को जागृत करने के उद्देश्य से ही बनर्जी महोदय ने बंगाली पत्र के सम्पादन और प्रकाशन का भार अपने कंधों पर लिया था। पहले यह पत्र साप्ताहिक था। उसके पश्चात् दैनिक हो गया था। बनर्जी स्वयं उसके सम्पादक थे। उन्होंने बंगाली पत्र द्वारा जनता को जगाने के लिए जो प्रयास किये, वे बड़े ही महत्त्वपूर्ण थे।

जनता उनके अग्रलेखों और उनकी टिप्पणियों को बड़े प्रेम से पढ़ती थी और प्रेरणा लेती थी। बंगाली पत्र का प्रकाशन और सम्पादन बनर्जी ने 1879 में अपने हाथों में लिया था। एक वर्ष में ही वह अंग्रेजी सरकार के कोप का शिकार बन गया। 1880 ई० में एक लेख के कारण बनर्जी पर अदालत की मानहानि का मुकद्दमा चलाया गया। मुकद्दमे में उन्हें दो मास की सजा दी गई।

इस मुकदमे से सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की ख्याति और भी अधिक बढ़ गई। अंग्रेज सरकार सोचती थी कि बनर्जी दब जायेंगे। किन्तु जब वे दो महीने की सजा काटकर आये, तो वे फिर बड़ी ही निर्भीकता के साथ बंगाली पत्र के द्वारा देश की सेवा में जुट गये।

1883 ई० में बनर्जी बंगाल कौसिल के सदस्य चुने गये। वे अपने प्रभाव और अपनी लोकप्रियता के कारण आठ वर्षों तक लगातार कौंसिल के सदस्य रहे। उन्होंन कौंसिल के सदस्य के रूप में भी भारतीयों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया।

उन दिनों लार्ड कर्जन वाइसराय के पद पर प्रतिष्ठित थे। वे बड़े कूटनीतिज्ञ थे। वे चाहते थे कि विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में पढ़ने वाले भारतीय विद्यार्थियों में राष्ट्रीय भावना का प्रचार न हो, वे अंग्रेजों के भक्त बनें।

उन्होंने इसके लिए एक कानून बनाया बनर्जी ने उस कानून का तीव्र विरोध किया। उन्होंने उनके कानून के उत्तर में रिपन कॉलेज को एक राष्ट्रीय शिक्षण संस्था के रूप में बदल दिया और उसे एक ट्रस्ट के अधीन कर दिया। उनके इस साहस ने उन्हें जनता के हृदय में बिठा दिया।

उन दिनों भारत के दूसरे प्रान्तों की अपेक्षा बंगाल में राजनीतिक जागरण अधिक था। लार्ड कर्जन ने बंगाल के राजनीतिक जागरण को समाप्त करने के लिए एक बहुत बड़ी चाल चली। उन्होंने 1905 ई० में एक कानून बनाकर बंगाल को दो टुकड़ों में बांट दिया। बंगाल के इसी विभाजन को बंग-भंग कहते हैं।

सारे देश में बंग-भंग का विरोध किया गया। बड़ी-बड़ी सभाएं हुई, बड़े-बड़े जुलूस निकाले गये। सैकड़ों बंगाली युवकों को बन्दी बनाकर जेलों में डाल दिया गया। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने बड़े ही साहस के साथ बंगाल के आन्दोलन का नेतृत्व किया।

वे लगातार छः वर्षों तक बंग-भंग के विरुद्ध जूझते रहे। उन्होंने ब्रिटिश सरकार से असहयोग तो किया ही, विलायती वस्तुओं से भी असहयोग किया। स्वदेशी आन्दोलन उसी असहयोग का परिणाम था। आखिर सरकार को विवश होकर बंग-भंग के प्रस्ताव को रद्द कर देना पड़ा।

यहां बंग-भंग के दिनों की एक घटना का उल्लेख कर देना आवश्यक है। बंगाल को दो टुकड़ों में बांटा गया था- पूर्वी बंगाल और पश्चिमी बंगाल उन्हीं दिनों पूर्वी बंगाल के बारीसाल में एक कान्फ्रेंस आयोजित की गई। सरकार के कान खड़े हो गये। उसने आदेश प्रचारित किया- कान्फ्रेंस न बुलाई जाय और कोई आदमी सड़क पर बन्दे मातरम् का नारा न लगाये।

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी सरकारी आदेश की अवमानना करके बारीसाल गये और गिरफ्तार कर लिये गये उन पर मुकदमा चलाया गया। मुकद्दमे में उन्हें चार सौ रुपये जुर्माने की सजा दी गई। उन्होंने जुर्माना अदा कर दिया। इस मुकदमे से सुरेन्द्रनाथ जनता के और भी अधिक निकट पहुंच गये। वे सारे

बंगाल में देवता की तरह समादृत किये जाने लगे। जब सरकार ने बंग-भंग के प्रस्ताव को रद्द कर दिया, तो बनर्जी ने भी अपनी असहयोग नीति वापस ले ली। यही नहीं, वे सरकार से सहयोग भी करने लगे। सरकार ने उन्हें सर की उपाधि से विभूषित किया।

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी इम्पीरियल कौंसिल के सदस्य भी चुने गये। वे कई वर्षों तक इस पद पर रहे। 1921 ई० में वे स्थानीय प्रशासन के मन्त्री भी बनाये गये थे। उन्होंने प्रशासन के मंत्री के रूप में एक महत्त्वपूर्ण कार्य किया था। कलकत्ता कारपोरेशन में पहले नामजद सदस्यों की संख्या चुने हुए सदस्यों से अधिक होती थी। किन्तु बनर्जी के प्रयत्नों से नामजद सदस्यों की संख्या कम हो गई।

गांधी जी ने 1921 ई० में जब असहयोग आन्दोलन का बिगुल बजाया, तो सुरेन्द्रनाथ जी उस आन्दोलन में सम्मिलित नहीं हुए, क्योंकि उनकी नीति असहयोग की नहीं सहयोग की थी। फलस्वरूप 1923 ई० में जब कौंसिल का चुनाव हुआ, तो वे उस चुनाव में हार गये।

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के राजनीतिक जीवन को दो भागों में बांटा जा सकता है। उनके राजनीतिक जीवन का एक भाग तो वह है, जो नौकरी की बर्खास्तगी से लेकर बंग भंग आन्दोलन तक है। और दूसरा भाग वह है, जो बंग-भंग आन्दोलन के बाद से लेकर जीवन के अन्त तक है।

बनर्जी प्रथम भाग में अंग्रेजों की तीव्र आलोचना करते हुए दिखाई पड़ते हैं। बंग भंग आन्दोलनों के दिनों में वे असहयोग की नीति अपनाते हुए दिखाई पड़ते हैं। एक बार उन्हें दो मास का कारागार भी मिला और फिर दूसरी बार उन पर 400 रुपये जुर्माना किया गया। बनर्जी को जो सुख्याति प्राप्त हुई उसका एकमात्र कारण उनके जीवन के प्रथम भाग की सेवाएं थीं। वे अपनी उन सेवाओं के कारण सुप्रसिद्ध नेता तो बन ही गये थे, जनता के हृदय में भी स्थान पा गये थे।

किन्तु जब वे अंग्रेजी सरकार से सहयोग करने लगे, तब वे जनता की आंखों से गिर गये। अंग्रेजी सरकार ने उन्हें सर की उपाधि दी। वे बड़े लाट की कौंसिल के सदस्य हुए और प्रशासन मंत्री भी बनाये गये, पर जनता के मध्य में उनकी ख्याति कम हो गई। इसी का परिणाम था कि जब वे 1923 ई० में चुनाव में खड़े हुए, बंगाली युवक उनकी जय बोलते थे, उन्होंने ही उनका विरोध किया। तो हार गये। जो

किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने कोई भूल की थी। वे जब राजनीतिक जीवन में उतरे, तो उन्होंने अपनी एक नीति निश्चित की थी। उन्होंने निश्चय किया था कि अंग्रेजी सरकार से मिल कर ही राजनीतिक अधिकार प्राप्त करना चाहिए, न कि लड़कर विद्रोह के मार्ग पर चल कर बनर्जी आजीवन अपनी नीति के ही अनुसार कार्य करते रहे। कभी-कभी उनके विचारों में गर्मी अवश्य आई, पर उस गर्मी का अर्थ विद्रोह नहीं था।

1885 ई० में जब कांग्रेस स्थापित हुई, तो उसमें वे ही लोग सम्मिलित हुए, जो नर्म विचारों के थे और सहयोग के मार्ग पर चलते थे। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, दादाभाई • नौरोजी, तैयबजी और फिरोजशाह मेहता आदि नेता नर्म विचारों के ही थे। 1907 ई० में सूरत कांग्रेस में जब नर्म और गर्म विचारों के लोगों में झगड़ा हुआ, तो बनर्जी ने नर्म विचारों के लोगों का साथ दिया था।

सूरत के कांग्रेस के बाद नर्म विचारों के लोगों ने कांग्रेस छोड़ दी। उन्होंने अपनी अलग-अलग कांग्रेस बनाई। 1914 ई० में लखनऊ में दोनों दलों में समझौता हो गया, पर समझौता कुछ ही दिनों तक रह सका। लखनऊ कांग्रेस के बाद कांग्रेस पर गर्म दल वालों का आधिपत्य स्थापित हो गया। नर्म दल का अस्तित्व एक प्रकार से मिट-सा गया।

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी अपने जीवन में छः बार इंग्लैण्ड गये थे। सर्वप्रथम वे आई०सी०एस० की परीक्षा पास करने गये थे। दूसरी बार बैरिस्टरी पढ़ने गये थे। तीसरी बार कांग्रेस प्रतिनिधि बनकर गये थे। और शेष तीन बार सरकारी काम-काज से गये थे। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का जीवन परिचय।

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी को सार्वजनिक कार्यों में बड़ी रुचि थी। वे अपने दुःख-सुख और लाभ-हानि की चिन्ता न करके सदा सार्वजनिक कार्यों में संलग्न रहा करते थे। उनके पुत्र की मृत्यु हो गई थी। जिस दिन उनके पुत्र की मृत्यु हुई, उसी दिन उन्हें एक सभा में भाषण करते हुए देखा गया था।

जिस दिन पत्नी का स्वर्गवास हुआ था, दिन उन्होंने कांग्रेस में एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। उसी सुरेन्द्रनाथ बनर्जी लगभग 50 वर्ष तक भारत के राजनीतिक क्षेत्र में रहे। उनकी सेवाएं बड़ी महत्त्वपूर्ण है। उनकी सेवाओं को युग-युगों तक बड़े गर्व के साथ याद किया जायेगा। इनकी मृत्यु 6 अगस्त, 1925 को हुई थी।

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