स्वामी रामतीर्थ का जीवन परिचय: स्वामी रामतीर्थ (Swami Ramtirth Biography in Hindi) का जन्म संवत् 1526 गुजरावाला जिले के मुरारीवाला गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम गोस्वामी हीरानन्द था। जब परमात्मा को सच्ची साधना की शिक्षा देनी होती है तब वह ऐसे साधकों को जन्म देता है जिनका हृदय छल-कपट से रहित होता है। साधना ही उनके जीवन का लक्ष्य होता है। ऐसे ही सच्चे साधक स्वामी रामतीर्थ हुए हैं।
स्वामी रामतीर्थ का जीवन परिचय

Swami Ramtirth Biography in Hindi
जन्म | 2 अक्टूबर, 1873 |
जन्म स्थान | गुजरावाला जिले के मुरारीवाला गाँव |
पिता का नाम | गोस्वामी हीरानन्द |
मृत्यु | 1906 |
स्वामी रामतीर्थ का जन्म गुजरावाला जिले के मुरारीवाला गाँव में 2 अक्टूबर, 1873 को हुआ था। आपके पिता का नाम गोस्वामी हीरानन्द था। इनके बाबा अच्छे ज्योतिषी थे। पोते की कुंडली को देखकर उन्होंने कहा कि यह बालक महान् विद्वान और धार्मिक नेता होगा।
आपने सन् 1888 में मैट्रिक, सन् 1892 में बी. ए. और 1895 में एम. ए. कर लिया। एम. में आपको 60 रुपये छात्रवृत्ति मिली थी। विद्या अध्ययन करने के बाद नौकरी करने विचार किया। अनेक स्थानों पर प्रयत्न करने पर भी आपको नौकरी नहीं मिली।
किन्तु बिना प्रयत्न के स्यालकोट में सेकिण्ड हैडमास्टर नियुक्त कर दिये गये। फिर फोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज लाहौर में वरिष्ठ प्रोफेसर पद पर आपकी नियुक्ति हो गई।
आप अच्छे वक्ता थे, चार-चार घंटे तक आप व्याख्यान देते रहते थे। आपके व्याख्यानों को सुनकर श्रोता मन्त्रमुग्ध हो जाते थे। व्याख्यान देते-देते आपकी भक्ति भावना बढ़ने लगी। वह कृष्ण के सम्बन्ध में जब कोई व्याख्यान सुनाते तो भावों में डूबकर कहने लगते,
“यदि तू मेरे हृदय में है तो बचकर कहाँ जायेगा। मैं तुझे खोज निकालूँगा।” इस प्रकार सच्चे हृदय से निकले हुए उनके व्याख्यान को सुनकर आर्यसमाजी नारायण स्वामी सनातनधर्मी बन गये।
स्वामी शंकराचार्य के अद्वैतवाद का उन पर प्रभाव पड़ा। अब उन्हें एक ईश्वर ही सब जगह दिखाई देने लगा। स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यानों को सुनकर उनकी भक्ति भावना और बढ़ गई, भक्ति में लीन रहते हुए भी आप पढ़ाई का काम मेहनत से करते थे। अतः आपका परीक्षा परिणाम बहुत अच्छा रहता था।
कार्य
मिशन कॉलेज छोड़ने के पश्चात् आप ओरियन्टल कॉलेज में रीडर पद पर नियुक्त हो गये। अन्त में आपने नौकरी छोड़कर संन्यास ले लिया। आपने अपना नाम रामतीर्थ रख लिया। देश में घूम-घूमकर भाषण दिये। आपने जापान का भी भ्रमण किया। आपने जापानियों के विषय में कहा था,
“यहाँ के लोग कितने हँसमुख, कितने प्रसन्न और कितने परिश्रमी हैं।” जापान में आपने अनेक व्याख्यान दिये। जापानी व्याख्यानों से बहुत प्रभावित हुए। अमरीका से हांगकांग होते हुए आप बर्मा गये। बर्मा से श्रीलंका गये फिर आप अफ्रीका पहुँचे। अफ्रीका अमेरिका पहुँचे। यहाँ राष्ट्रपति से मिले। उनको आपने अपनी पुस्तक ‘हरमेटिक ब्रादर’ भेंट की।
अमरीकियों देशप्रेम आपके हृदय भारत को स्वतन्त्र कराने की इच्छा उत्पन्न हुई। उन्होंने देशवासियों से कहा, “सैकड़ों युवकों के बलिदान से ही देश स्वतन्त्र होगा।” स्वामीजी जीवन भर समाज सेवा करते रहे। धर्म के प्रचार में लगातार लगे रहे। अध्यात्म की शिक्षा देते रहे। छात्रों को राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा देते रहे।
उपसंहार
इस प्रकार के कार्य करते हुए स्वामीजी तेतीस वर्ष की छोटी आयु में गंगा की गोद में समाकर दीपावली के दिन ब्रह्मलीन हो गये।
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