स्वामी विवेकानन्द का जीवन परिचय: स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 फरवरी, 1863 को महानगर कलकता में हुआ था। उनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त था एवं उनकी माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। हमारे देश में समय-समय (Swami Vivekananda Biography in Hindi) पर परिस्थितियों के अनुसार सन्त महापुरुषों ने जन्म लिया और अपने देश की दुःखद परिस्थितियों का विनाश करते हुए पूरे विश्व को सुखद सन्देश दिया।
इससे हमारे देश की धरती गौरवान्वित और महिमाशालिनी हो उठी है। इससे समस्त विश्व में इसे सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ। देश को प्रतिष्ठा के शिखर पर पहुँचाने वाले महापुरुषों में स्वामी विवेकानन्द का नाम सम्पूर्ण मानव जाति के सन्देशवाहकों में से एक है।
स्वामी विवेकानन्द का जीवन परिचय

Swami Vivekananda Biography in Hindi
जन्म | 12 फरवरी, 1863 |
जन्म स्थान | कलकता |
पिता का नाम | विश्वनाथ दत्त |
माता का नाम | भुवनेश्वरी देवी |
मृत्यु | 18 जुलाई, 1902 |
जन्म और शिक्षा
स्वामी विवेकानन्दजी का जन्म 12 फरवरी, 1863 को महानगर कलकता में हुआ था। स्वामी विवेकानन्दजी के बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ में था। आप अपने बचपन के दिनों में अत्यन्त नटखट स्वभाव के थे। उनके पिताश्री का नाम विश्वनाथ दत्त तथा माताश्री का नाम भुवनेश्वरी देवी था।
बालक नरेन्द्रनाथ को पाँच वर्ष की आयु में अध्ययन के लिए मेट्रोपॉलिटन इन्स्टीट्यूट भेजा गया, लेकिन पढ़ने में रुचि न होने के कारण बालक नरेन्द्रनाथ पूरा समय खेल-कूद में बिता देते थे। सन् 1879 में नरेन्द्रनाथ को जनरल असेम्बली कॉलेज में प्रवेश दिलाया गया।
स्वामीजी पन अपने पिता के पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति प्रधान विचारों का तो प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन माता के भारतीय धार्मिक आचार-विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा। यही कारण था कि स्वामीजी अपने जीवन के आरम्भिक दिनों में धार्मिक प्रवृत्ति में ढलते गये और धर्म के प्रति आश्वस्त हो गये।
ईश्वर ज्ञान की जिज्ञासा में आप बार-बार चिन्तामग्न होते हुए भी इससे तनिक भी विरत नहीं हुए, बल्कि लगे ही रहे। इस जिज्ञासा को शान्त करने के लिए आपने तत्कालीन संत-महात्मा रामकृष्ण परमहंसजी की ज्ञानछाया ग्रहण की।
परमहंसजी ने स्वामीजी की योग्यता की जाँच शीघ्र ही कर ली और उनसे कहा-“तू कोई साधारण मनुष्य नहीं है। ईश्वर ने तुझे सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण के लिए ही भेजा है।” नरेन्द्रनाथ स्वामी रामकृष्ण परमहंस के उत्साह बढ़ाने वाले शब्दों को सुनकर उनके शिष्य बन गये।
संन्यास
पिता की मृत्यु के बाद घर-गृहस्थी की जिम्मेदारियों को उठाने के बजाय नरेन्द्रनाथ ने संन्यास पथ पर चलने का निश्चय किया, लेकिन रामकृष्ण परमहंस के इस आदेश का पालन करने में ही अपना कर्तव्य उचित समझा कि-‘नरेन्द्र! तू स्वार्थी मनुष्यों की तरह केवल अपनी मुक्ति की इच्छा कर रहा है।
संसार में लाखों मनुष्य दुःखी हैं। उनका दुःख दूर करने तू नहीं जायेगा तो कौन जायेगा।” फिर इसके बाद तो नरेन्द्रनाथ ने स्वामीजी से दीक्षित होकर यह उपदेश प्राप्त किया कि “संन्यास का वास्तविक उद्देश्य मुक्त होकर सेवा करना है।
अपने ही मोक्ष की चिन्ता करने वाला संन्यासी स्वार्थी होता है। साधारण संन्यासियों की तरह एकान्त में अपना अमूल्य जीवन नष्ट न करना। भगवान् के दर्शन करने हों तो मनुष्य मात्र की सेवा करना।” सन् 1881 में नरेन्द्रनाथ संन्यास ग्रहण करके स्वामी विवेकानन्द बन गये।
शिकागो सम्मेलन
स्वामीजी 31 मई, 1883 में अमेरिका के शिकागो शहर में धर्मसभा सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व करने पहुँचे। वहाँ अपनी अद्भुत विवेक क्षमता से सबको चकित कर दिया। 11 सितम्बर, 1883 को जब सम्मेलन आरम्भ हुआ और जब सभी धर्माचार्यों और धर्माध्यक्षों के सामने स्वामीजी ने ‘भाइयो और बहिनो’ कहकर अपनी बात आरम्भ की तो वहाँ का समस्त वातावरण तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा।
तत्पश्चात् स्वामीजी ने कहना प्रारम्भ किया- “संसार में एक ही धर्म है और उसका नाम है मानव धर्म। इसके प्रतिनिधि समय-समय पर राम, कृष्ण, क्राइस्ट, रहीम आदि होते रहे हैं। जब ये ईश्वरीय दूत मानव धर्म के सन्देशवाहक बनकर विश्व में अवतरित हुए थे तो आज संसार भिन्न-भिन्न धर्मों में क्यों विभक्त है?
धर्म का उद्गम तो प्राणी मात्र की शान्ति के लिए हुआ है, परन्तु आज चारों ओर अशान्ति के बादल मँडराते दिखाई पड़ते हैं और ये दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे हैं। अतः विश्वशान्ति के लिए सभी लोगों को मिलकर मानव धर्म की स्थापना और उसे दृढ़ करने का प्रयत्न करना चाहिए।” इस भाषण से वह धर्मसभा ही प्रभावित नहीं हुई, अपितु पूरा पश्चिमी विश्व अत्यन्त प्रभावित होकर स्वामीजी के धर्मोपदेश का अनुयायी बन गया।
उपसंहार
लगातार कई वर्षों तक विदेशों में भारतीय हिन्दू धर्म का प्रचार करने के बाद भारत आकर स्वामीजी ने कलकत्ता में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। इसके बाद कई बार हिन्दू धर्म के प्रचार के लिए आप विदेशों में गये और भारत में भी इस कार्य को बढ़ाते रहे। अस्वस्थ होने के कारण स्वामीजी 18 जुलाई, 1902 को रात के 9 बजे चिरनिद्रा देवी की गोद में चले गये।
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