तरुण दिलीप सिंह का जीवन परिचय: दिलीप सिंह का जन्म पंजाब के होशियारपुर जिले के धमियांकला नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम लाभसिंह था। वे कृषि कार्य करते थे। साधारण पढ़े लिखे थे। दिलीपसिंह जब कुछ बड़े हुए, तो पढ़ने-लिखने लगे, किन्तु पढ़ाई-लिखाई में उनका मन उतना नहीं लगता था, जितना खेल-कूद में लगता था। वे खेल-कूद में. अग्रणी रहते थे। उनके सभी साथी उनका सम्मान तो करते ही थे, उनका हर आदेश भी मानते थे।
तरुण दिलीप सिंह का जीवन परिचय

Tarun Dilip Singh Biography in Hindi
तरुण दिलीपसिंह महान देशप्रेमी थे, महान साहसी थे। उन्होंने अल्प अवस्था में ही देश की वेदिका पर अपने प्राणों की बलि देकर अपने को धन्य बना दिया। जिस प्रकार चन्दन पिसकर सौरभ उत्पन्न करता है और जिस प्रकार मेंहदी पिसकर रंगत पैदा करती है, उसी प्रकार देशभक्त और स्वतंत्रता-प्रेमी मर-मिटकर सौरभ तथा रंगत पैदा करते हैं।
दिलीपसिंह देखने में बड़े सुन्दर थे, सूरत-शकल से बड़े भोलेभाले थे। वे देश की स्वतंत्रता के लिए क्रान्तिकारी कार्य करने के कारण 15-16 वर्ष की अवस्था में ही बन्दी बना लिये गये थे। उन पर राजद्रोह का अभियोग चलाया गया था। जज अंग्रेज था।
जब जज ने बयान और गवाहियां सुनने के पश्चात् दिलीपसिंह के मुखमंडल की सुन्दरता और उनकी अल्प अवस्था पर ध्यान दिया, तो वह असमंजस में पड़ गया। कानून के अनुसार उन्हें फांसी का दंड मिलना चाहिए था, किन्तु जज का मानव हृदय उन्हें फांसी का दण्ड देने से हिचक रहा था।
दिलीपसिंह जज के मनोभाव को समझ गये। उन्होंने निर्भीकतापूर्वक जज से कहा, “महोदय, आप मुझे सजा देने से क्यों हिचक रहे हैं? यदि आप मेरी अवस्था पर विचार करके मुझे छोड़ देंगे, तो मैं पुनः वही कार्य करूंगा, जिनके कारण मुझे बन्दी बनाया गया है और मुझ पर मुकद्दमा चलाया गया है।
मुझे बड़े भाग्य से मानव शरीर प्राप्त हुआ है। मैं इस शरीर को मातृभूमि की सेवा की वेदी पर अर्पित करके अपने जीवन को सार्थक करना चाहता हूं। अभी तो यह शरीर पवित्र और निष्कलंक है, कौन जाने, आगे यह पवित्र रहे या न रहे? अतः आप मुझे वही सजा दें, जो आपका कानून कहता है।
दिलीपसिंह की वीरता-भरी वाणी सुनकर जज भी आश्चर्य की लहरों मे गया। उसने अपने जीवन में बहुत से मनुष्य देखे थे, पर मृत्यु का आलिंगन करने वाला मनुष्य आज उसने प्रथम बार देखा था।
दिलीपसिंह की अवस्था 14-15 वर्ष की हो चुकी थी। वे शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। उन्हीं दिनों सिक्खों के पवित्र तीर्थस्थान ननकाना साहब में गोरों के द्वारा सिक्खों पर अत्याचार किये थे। दिलीपसिंह के कानों में जब अत्याचारों की कहानियां पड़ीं, तो उनका मन अशान्त हो उठा।
उन्होंने उस छोटी अवस्था में ही मन ही मन प्रतिज्ञा की कि जिन गोरों ने उनके देश और धर्म पर आघात किया है, उन्हें मिट्टी में मिलाकर रहेंगे। दिलीपसिंह पढ़ना-लिखना छोड़कर अकाली आन्दोलन में सम्मिलित गये। उनका मार्ग हिंसा का मार्ग था।
वे अकाली आन्दोलन में सम्मिलित होकर उन गोरों से बदला लेने का प्रयत्न करने लगे, जिन्होंने ननकाना साहब की पवित्रता को नष्ट किया था। दिलीपसिंह ने बड़े साहस के साथ गोरों से बदला लिया। कहा जाता है कि उन्होंने कई अंग्रेजों के घरों पर डाके डाले थे। यह भी कहा जाता है कि कई गोरों की हत्या करके अपने प्रतिशोध की आग बुझाई थी।
फलस्वरूप अंग्रेजी सरकार दिलीपसिंह की खोज करने लगी। उन दिनों पंजाब में क्रान्तिकारी आन्दोलन बड़े जोरों पर था। दिलीपसिंह क्रान्तिकारियों के दल में सम्मिलित हो गये। अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विद्रोह की आग जलाने लगे। यह नहीं समझना चाहिए कि दिलीपसिंह केवल सिख धर्म की रक्षा के लिए गोरों से लड़ रहे थे।
नहीं, वे भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे थे। उन्होंने अपने बयान में कहा था, “जब तक अंग्रेज भारत में रहेंगे, ननकाना साहब के समान घटनाएं घटती ही रहेंगी। अतः सारे भारतीयों को आपस में मिलकर अंग्रेजों को भारत से निकालना चाहिए।”
अंग्रेजी सरकार के जासूस दिलीपसिंह के पीछे पड़े रहते थे, किन्तु वे उनके जाल में फंसते नहीं थे। कहा जाता है कि अंग्रेज सरकार ने उन्हें बन्दी बनाने के लिए सारे पंजाब में जाल बिछा रखा था। 1923 ई० की 12 अक्तूबर की संध्या के बाद का समय था।
दिलीपसिंह कन्दी में सन्तासिंह के साथ बैठकर वार्तालाप कर रहे थे। सहसा पुलिस ने पहुंचकर उन्हें चारों ओर से घेर लिया। वे गिरफ्तार कर लिये गये। उनके हाथों में हथकड़ी और पैरों में बेड़ी डाल दी गईं। पुलिस को डर था, यदि दिलीपसिंह भाग गये, तो वे फिर हाथ नहीं आयेंगे।
दिलीपसिंह को बन्दी बनाकर मुलतान के कारागार में बन्द कर दिया गया। अंग्रेज सरकार उनसे क्रान्तिकारियों का भेद जानना चाहती थी अतः वह उन्हें अपने साथ मिलाने लगी। उसने दिलीपसिंह को बड़े-बड़े प्रलोभन दिये, किन्तु वे विचलित नहीं हुए। जब प्रलोभनों से कुछ फल नहीं निकला, तो उन पर बड़े-बड़े अत्याचार किये गये। किन्तु वे अत्याचार भी व्यर्थ सिद्ध हुए। दिलीपसिंह हिमालय की तरह दृढ़ बने रहे।
आखिर सरकार ने विवश होकर उन पर मुकदमा चलाया। उन पर हत्या, डकैती, लूट और विद्रोह आदि के कई अपराध लगाये गये। उनके अपराधों को प्रमाणित करने के लिए बड़ी-बड़ी गवाहियां एकत्र की गई थीं।
फिर भी जज उन्हें मृत्यु की सजा नहीं देना चाहता था क्योंकि उसे विश्वास नहीं होता था कि एक 17 वर्ष का किशोर बालक इन सभी कामों को कर सकेगा। किन्तु जब दिलीपसिंह ने स्वयं सारे अपराध स्वीकार कर लिये, तो जज ने उन्हें मृत्यु की सजा दी।
दिलीपसिंह को फांसी दे दी गई। वे शरीर छोड़कर स्वर्ग चले गये। ऐसे लोग शरीर छोड़ने के पश्चात् भी मरा नहीं करते, सदा जीवित रहते हैं। दिलीपसिंह आज भी जीवित हैं और युग-युगों तक जीवित रहेंगे।
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