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टॉन्सिल (टॉन्सिलाइटिस) क्यों होता है लक्षण, कारण, प्रकार, उपचार, यौगिक चिकित्सा और सुझाव

टॉन्सिल (टॉन्सिलाइटिस) क्यों होता है लक्षण, कारण, प्रकार, उपचार, यौगिक चिकित्सा और सुझाव के बारे में पूरी जानकारी दी गई है। हमारे शरीर के प्रत्येक अंग का अपना एक विशेष महत्व होता है। गले के ऊपरी भाग में जिह्वा मूल के दोनों ओर दो छोटी-छोटी गोल ग्रन्थियाँ होती हैं, ये लसिका ग्रन्थियाँ अर्थात् लिम्फ ग्लैण्ड होती हैं। इन्हीं को हम टॉन्सिल (Tonsil) भी कहते हैं। ये शरीर की रोग-प्रतिरोधक प्रणाली के महत्वपूर्ण हिस्से हैं।

टॉन्सिल (टॉन्सिलाइटिस) क्यों होता है

टॉन्सिल (टॉन्सिलाइटिस) क्यों होता है

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टॉन्सिल (टॉन्सिलाइटिस) क्यों होता है

मुँह एवं नाक के रास्ते से प्रविष्ट होने वाले कीटाणुओं को रोकने के लिए दो चौकीदारों का काम करती हैं। फिल्टर का काम करके हमारे शरीर को रोगों से बचाती हैं। दूषित वायु एवं दूषित रस को मस्तिष्क में जाने से रोकती है। अत: यकृत (Liver) प्लीहा (Spleen), गुर्दे (किडनी) एवं फेफड़े (Lungs) के अपूर्ण कार्य ये ही पूरा करती है।

टॉन्सिल का कारण

  1. खट्टी-मीठी चीजें जैसे टॉफी, च्युइंगम, इमली आदि चीजों का अत्यधिक सेवन यह रोग उत्पन्न करता है।
  2. अति गर्म या अति ठंडी चीजों का खाना या पीना, मैदे की तली भुनी चीजें खाना, बिना भूख के खाना या पुराना कब्ज रहने के कारण भी यह रोग होता है।
  3. वर्षा में भीग जाने पर, ठंड लगने पर यह रोग हो जाता है।
  4. कोई भी ऐसी बीमारी जिसमें प्रतिरोधक प्रणाली प्रभावित हो, उसमें भी टांसिलाइटिस हो सकती है। जैसे-किसी भी कारण से फैला हुआ इन्फ्लेमेशन या वाइरल बुखार आदि।
  5. एक्यूट रोग में हार्पिस, सिंप्लेक्स, वायरस स्ट्रैप्टोकोकस, पायोजिनस, एप्सटीनबार वायरस, सायटोमेंगलो वायरस, एडीनो वायरस तथा भिजेल्स वायरस मुख्य भूमिका निभाते हैं।

टॉन्सिल के लक्षण (Tonsil Ke Lakshan)

  • हल्की ठण्ड देकर बुखार आना जो अक्सर तेजी से बढ़ सकता है । बच्चों में तो 105° तक चला जाता है।
  • गले में सूजन एवं दर्द, कब्ज होना, पेशाब का गाढ़ा एवं पीला होना, सिर व पीठ में दर्द सारे शरीर में दर्द होता है।
  • जीभ का मैली होना तथा साँस में बदबू आना, गले का दर्द कान तक फैल जाता है । भोजन करते समय दर्द बढ़ जाता है, गले की आवाज बैठ जाती है दोनों टांसिल (ग्रैवेयिक ग्रन्थि) सूजकर फैल जाती है।
  • कभी-कभी समान लक्षण के कारण टांसिलाइटिस, स्कारलेट फीवर तथा डिप्थीरिया तीनों में अन्तर कर पाना असम्भव हो जाता है। इस विषय में समझ लेना आवश्यक है।

टांसिलाइटिस

इस रोग में सूजन एवं लाली दोनों टांसिल तक ही सीमित रहती हैं एवं तालु बिल्कुल अप्रभावित रहता है। टांसिल एक प्रकार के लसलसा पीले रंग का श्लेष्मा से ढंक जाता है जिसे हटाया जा सकता है। इस रोग का आक्रमण अचानक ही होता है तथा इसके साथ एडिनोयडस भी हो सकता है, साँस लेने में कठिनाई हो सकती है तथा जुकाम, खाँसी, बुखार आदि लक्षण स्पष्ट रूप से प्रकट हो जाते हैं ।

डिप्थीरिया

इस रोग में टांसिल, गल शुण्डिका तथा कोमल तालू पर भूरे रंग के बड़े-बड़े चकते होते हैं जिनके चारों ओर लाल कण पाये जाते हैं जिनको आसानी से दूर नहीं किया जा सकता। खून बहने की सम्भावना रहती है। कलीब्जलोफलर कीटाणु के कारण एक विशेष प्रकार की गन्ध मुँह से निकलने लगती है। इस रोग का आक्रमण धीरे-धीरे होता है। टॉन्सिल बढ़ जाते हैं। तापमान कम ही बढ़ता है तथा दर्द भी तीव्र नहीं होता।

स्कारलेट फीवर

इसमें गले तथा तालु दोनों में चमकती-सी लाली आ जाती है। टॉसिल सूजन व कफ से ढंक जाते हैं। बुखार तीव्र होने पर उल्टी आने लगती है पर, तालु पर कोई प्रभाव नहीं होता। टांसिलाइटिस एवं यह स्कारलेट फीवर एक साथ हो सकते हैं।

टॉन्सिल (टांसिलाइटिस) के प्रकार

1. तीव्र- एक्यूट टांसिलाइटिस

दोनों टांसिल के पूरे भाग में सूजन आ जाती है तथा उनका रंग लाल सुर्ख हो जाता है। सूजन आने पर कई गड्ढे से हो जाते हैं जिनमें फाइब्रीन ल्यूकोसाइटस तथा जीवाणु भरे होते हैं। यह एक पीली परत से ढंके होते हैं जिसे हटाने में कोई कठिनाई नहीं होती । इसे तीव्र फौलीक्यूलर टांसिलाइटिस कहते हैं।

2. जीर्ण-क्रोनिक टांसिलाइटिस

जब तीव्र टांसिलाइटिस को दबाइयों के द्वारा दबाने का प्रयास किया जाता है तो जीर्ण टांसिलाइटिस हो जाता है। (क्रानिक टांसिलाइटिस) इसमें जीर्ण टांक्सिमिया के कारण गठिया, रयूमेटिक हार्ट, नेफ्राइटिस न्यूराइटिस हो जाते हैं और रोग प्रतिरोधक क्षमता में कमी आ जाती है।

बच्चों में नाक बहना, नाक की झिल्लियों में सूजन, कानों का बहना, बार बार जुकाम होना तथा टांसिल बढ़ जाते हैं। छोटे बच्चों का विकास अवरुद्ध हो जाता है। सोते समय सांस लेने में कठिनाई होने लगती है तथा चौंककर उठ जाते हैं। दाँतों में भी संक्रमण के लक्षण दिखने लगते हैं।

मुँह से साँस लेने वाले बच्चों में यह लक्षण प्रकट होते हैं-शारीरिक विकास अवरुद्ध होना, छाती का विकृत होना, चेहरे के भावों में परिवर्तन होना तथा मानसिक अवस्था में परिवर्तन होना। भावशून्य, निरुत्साहित एवं उदास चेहरा होना इसी के लक्षण हैं। फेफड़ों में संक्रमण आ जाता है। इसके साथ ही मानसिक विकास एवं स्मरण शक्ति में कमी तथा वैचारिक क्षमता का मंद होना जिसके कारण पढ़ाई में पिछड़ापन तथा हीन भावना का प्रवेश होता है।

आधुनिक उपचार

इस रोग में तेज बुखार, दर्द एवं कफ को कम करने के लिए एंटिबायोटिक्स एवं डीकन्जेस्टेंट दवाईयों का प्रयोग किया जाता है। साँस में अत्यधिक रुकावट होने, रोग की अवस्था क्रानिक एवं रिकरेंट होने पर चिकित्सक अन्तिम विकल्प के रूप में टांसिल को ऑपरेशन करके निकाल देते हैं। इससे सिर्फ लक्षण तो कम हो जाते हैं परन्तु रोग की जड़ तो बनी रहती है प्रत्युत ऑपरेशन के बाद प्रतिरोधी प्रणाली की गम्भीर बीमारियों के खतरे बढ़ जाते हैं। इस प्रकार आधुनिक चिकित्सा की विफलता अन्ततोगत्वा यौगिक चिकित्सा अपनाने को बाध्य करती है।

यौगिक चिकित्सा

आसन

  1. सूर्य नमस्कार – इसके अभ्यास से शरीर के एंडोक्राइन ग्लैण्ड्स, रेस्पिरेशन प्रणाली, पाचन प्रणाली पर शक्तिशाली प्रभाव डालता है। सूर्य नमस्कार करते समय सूर्य से मिलने वाली ऊर्जा के कारण रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है जो रोग के निराकरण में सहायक होती है अपनी क्षमतानुसार इसके 2 से 12 चक्रों तक करना चाहिये। पर एक बात खासतौर पर ध्यान में रखनी चाहिये कि बुखार होने पर कोई अभ्यास नहीं करना चाहिये।
  2. सिद्धासन तथा सन्तुलन के आसन जैसे
  3. एकपादासन
  4. गरुड़ासन
  5. बकासन
  6. अर्द्धपद्मपादोत्तानासन
  7. पर्वतासन
  8. मेरुदण्डासन
  9. अश्व संचालन आसन
  10. हंसासन

उक्त आसन प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपना प्रभाव अवश्य डालते हैं परन्तु, सब आसनों का अभ्यास एक साथ करने की कोई आवश्यकता नहीं है इसके लिए रोगी को अपने अनुरूप आसन का चयन किसी कुशल योग चिकित्सक के परामर्श से करना चाहिये।

प्राणायाम

1.उज्जायी प्राणायाम
2.नाड़ीशोधन प्राणायाम
3.शीतली प्राणायाम
4.शीतकारी प्राणायाम

प्राणायाम के अभ्यास से प्राण सर्वप्रथम अवरुद्ध स्थान को खोलते हैं क्योंकि प्राणायाम से सूक्ष्मप्राण को आकर्षित किया जाता है जो प्रवाह को सामान्य करते हैं।

  • षट्क्रिया – टांसिलाइटिस रोग को दूर करने में नेति, कुंजल, लघु शंख प्रक्षालन क्रियायें लाभकारी सिद्ध होती हैं क्योंकि यह रोग के मूल कारण का निवारण करती हैं।
  • शिथिलीकरण – अवचेतन में पड़े रोग के कारणों को योग निद्रा के अभ्यास से दूर किया जाता है क्योंकि योग निद्रा में जो निर्देश दिये जाते हैं, इसमें रोग के मूल कारण को पहले काउंसिलिंग के द्वारा जान लिया जाता है फिर उसी के अनुसार योग निद्रा का अभ्यास कराया जाता है।

ध्यान – इस रोग के समाधान में ध्यान एक सशक्त माध्यम है। यदि ध्यान प्रक्रिया किसी कुशल योग-चिकित्सक की देख-रेख में की जाये तो न केवल इस रोग का वरन् अन्य रोगों को जड़ से उखाड़कर फेंका जा सकता है।

सुझाव

  • सिर एवं गर्दन में ठंडी हवा न लगे उसको अच्छी तरह से ढँककर रखना चाहिये।
  • अत्यधिक सूजन एवं दर्द को दूर करने के लिए थोड़ी बर्फ पीसकर गर्दन पर लगायें फिर इसके बाद गरम पानी की थैली से सिंकाई करनी चाहिये। आधा घण्टे इस क्रम को चलाने पर काफी आराम मिलता है।
  • गरम पानी में थोड़ा-सा नमक मिलाकर गरारे करने से रोग शीघ्रता से दूर होता है। खट्टी चीजें न खायें।
  • इस प्रकार उचित आहार-विहार और योगाभ्यास की निरन्तरता से लाभ अवश्य ही मिलता है।

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अस्वीकरण – यहां पर दी गई जानकारी एक सामान्य जानकारी है। यहां पर दी गई जानकारी से चिकित्सा कि राय बिल्कुल नहीं दी जाती। यदि आपको कोई भी बीमारी या समस्या है तो आपको डॉक्टर या विशेषज्ञ से परामर्श लेना चाहिए। Candefine.com के द्वारा दी गई जानकारी किसी भी जिम्मेदारी का दावा नहीं करता है।

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