वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय का जीवन परिचय? वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय पर निबंध?

वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय का जीवन परिचय: वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय का जन्म जन्म 31 अक्तूबर 1880 में हुआ था। इनकी मृत्यु 2 सितम्बर 1937 को हुई थी। वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय स्वतंत्रता के अमर साधक थे। वे भारत की स्वतंत्रता के लिए ही धरती पर आये थे और स्वतंत्रता की प्राप्ति के प्रयास में ही सदा के लिए धरती से चले गये। उनके जीवन का एक ही महाव्रत था

वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय का जीवन परिचय

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Virendranath Chattopadhyaya Ka Jeevan Parichay

Virendranath Chattopadhyaya Biography in Hindi

पूरा नामवीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय
जन्म31 अक्तूबर 1880
मृत्यु2 सितम्बर 1937
वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय का जीवन परिचय

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इनका जन्म एक ऐसे वंश में हुआ था, जो बड़ा सौभाग्यशाली और पवित्र था। सुप्रसिद्ध देशभक्त और महान कवयित्री सरोजिनी नायडू और सुप्रसिद्ध चित्रकार मृणालिनी साराभाई ने उसी वंश में जन्म लिया था।

सरोजिनी नायडू और मृणालिनी साराभाई उनकी बहनें थीं। उनके पिता का नाम अघोरनाथ था। अघोरनाथ बंगाल के निवासी थे। उनका घर एक गांव में था, जिसे पद्मा नदी ने अपने गर्भ में समेट लिया है। उनकी उच्च शिक्षा जर्मनी में हुई थी।

उन्होंने ज्यूरिख विश्वविद्यालय से जर्मन भाषा में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की अघोरनाथ जी उच्च शिक्षा प्राप्त करके हैदराबाद चले आये थे। वे हैदराबाद के उस्मानिया कालेज में प्राध्यापक के पद पर नियुक्त हुए, भाषा विभाग के अध्यक्ष पद पर प्रतिष्ठित हुए। उनके विचार बड़े ऊंचे थे। उन्हें दर्शन से बड़ा प्रेम था। लोग उनका आदर ऋषि के सदृश करते थे।

अघोरनाथ की तीन संतानें थीं- सरोजिनी नायडू, मृणालिनी साराभाई और वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय सरोजिनी नायडू महान देशभक्त और उच्च कोटि की कवयित्री थीं। उनका विवाह नायडू से हुआ था। इसलिए वे सरोजिनी नायडू कही जाती थीं। मृणालिनी ने चित्रकला में सुख्याति प्राप्ति की थी। उनका विवाह साराभाई के साथ हुआ था। यही कारण है, वे मृणालिनी साराभाई कही जाती थीं।

वीरेन्द्रनाथ की बी०ए० तक की शिक्षा हैदराबाद में ही हुई थी। उनके पिता अघोरनाथ जी शिक्षा के बड़े प्रेमी थे। उन्होंने अपनी दोनों पुत्रियों को भी ऊंची शिक्षा दिलाई थी। वीरेन्द्रनाथ जब बी०ए० की परीक्षा पास कर चुके, तो वे ऊंची शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैण्ड गये।

वे इंग्लैण्ड में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में नाम लिखा कर पढ़ने लगे। किन्तु वे अधिक दिनों तक ऑक्सफोर्ड में नहीं रहे। वे आई०सी०एस० अफसर बनना चाहते थे। अतः आई०सी०एस० परीक्षा के लिए तैयारी करने लगे। किन्तु उनके भाग्य में अफसरी नहीं लिखी थी। लिखा था, देश की स्वतंत्रता के लिए कांटों की राह पर चलना।

फलतः वे परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो गये। उसके पश्चात् वे बैरिस्टरी की परीक्षा के लिए तैयारी करने लगे। जिन दिनों वीरेन्द्रनाथ बैरिस्टरी की परीक्षा की तैयारी में संलग्न थे, उन्हीं दिनों वे श्यामजी कृष्ण वर्मा के संपर्क में पहुंचे। उन दिनों श्यामजी कृष्ण वर्मा इंडिया हाउस का संचालन करते थे।

इंडिया हाउस में प्राय: क्रान्तिकारियों का जमघट लगा रहता था। वीरेन्द्रनाथ भी इंडिया हाउस में आने-जाने लगे। कहना ही होगा कि वे भी क्रान्तिकारियों के दल में सम्मिलित होकर काम करने लगे। वे कई भाषाएं जानते थे- बंगाली, अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू, अरबी और फारसी आदि।

इंडिया हाउस में वे प्रायः भिन्न भाषाओं में स्वतंत्रता सम्बन्धी साहित्य तैयार किया करते थे। वीरेन्द्रनाथ जी के उस समय के जीवन के सम्बन्ध में स्वर्गीय नेहरू जी ने इस प्रकार लिखा है- ” भारत के सुप्रसिद्ध परिवार में उत्पन्न वीरेन्द्रनाथ अपने कुटुम्बियों से बिल्कुल पृथक् थे। प्रायः लोग उन्हें चट्टो के नाम से संबोधित किया करते थे।

वे बड़े हंसमुख और सुयोग्य व्यक्ति थे। गरीबी ने उन्हें जकड़ रखा था। उनके कपड़े मैले और फटे रहते थे। बड़ी कठिनाई से उन्हें रोटियां मिलती थीं। किन्तु फिर भी वे सदा हंसते रहते थे, विनोद किया करते थे।

“जिन दिनों मैं हैरो कालेज में पढ़ता था, उसके पहले ही वे ऑक्सफोर्ड पहुंच चुके थे। उनका परिवार से नाता टूट चुका था। वे भारत लौटना चाहते थे, किन्तु लौट नहीं पाते थे। उन्हें भारत की याद बहुत आती थी। यदि वे भारत लौटते तो बिना किसी संशय के कहा जा सकता है कि उन्हें भारत में बहुत कम लोगों का प्यार मिलता। उनका हाल वही होता, जो कटी पतंग का होता है।

“वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय बराबर घूमते रहते थे। उनका हरएक भारतीय के साथ आत्मिक सम्बन्ध था। वे जब किसी भारतीय को देखते थे तो उससे बड़े प्रेम से मिलते और बातचीत करते थे। इस रूप में उन्हें आत्मा के तपेदिक का रोगी कहा जा सकता है। मैं यूरोप में रहने वाले कई भारतीय क्रान्तिकारियों से मिला था, पर मुझे जितना प्रभावित वीरेन्द्रनाथ और एम०एन० राय ने किया, उतना और किसी ने नहीं किया।”

चट्टोपाध्याय इंडिया हाउस में क्रान्ति सम्बन्धी पुस्तिकाएं और नोटिसें तो तैयार करते ही थे, क्रान्तिकारियों को हथियार आदि चलाना भी सिखाया करते थे। उन्होंने हैदराबाद में ही बन्दूकों और पिस्तौलों का चलाना अच्छी तरह सीख लिया था।

क्रान्ति सम्बन्धी अपने कार्यों के कारण मनी अंग्रेजी सरकार की आंखों में गड़ने लगे। ऐसा लगने लगा कि यदि वे लंदन में रहेंगे, तो बन्दी बना लिये जायेंगे। अतः वे लन्दन से पेरिस चले गये। कुछ दिनों पश्चात् विनायक दामोदर सावरकर को गिरफ्तार करके भारत भेज दिया गया।

श्यामजी कृष्ण वर्मा और सावरकर के चले जाने पर चट्टोपाध्याय जी ही इंडिया हाउस में कामकान की देख-रेख करने लगे। जब तक इंडिया हाउस बन्द नहीं कर दिया, वे इंडिया हाउस में ही रहते थे और उसके काम काज की देख-रेख करते थे।

इंडिया हाउस में काम करते हुए चट्टोपाध्याय ने यह सोचा कि जिन देशों में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विद्रोह हो रहा है, उन देशों के नेताओं से मिलना चाहिए। उन दिनों मिस्र में विद्रोह की आग जल रही थी। चट्टोपाध्याय मिस्र जाना चाहते थे। 1906 ई० में मिस्र की क्रान्ति के नेता कमाल पाशा लंदन आये। चट्टोपाध्याय ने कमाल पाशा से भेंट की। उनसे भारत की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में विचार-विमर्श किया।

1907 ई० में जर्मनी में समाजवादी सम्मेलन हुआ। वीरेन्द्रनाथ ने उस सम्मेलन में भाग लिया। सम्मेलन में ही उनकी भेंट मादाम कामा और पोलैण्ड के क्रान्तिकारी नेताओं से हुई। सम्मेलन के समाप्त होने पर वे पोलैण्ड गये। वहां से वारसा गये। उन्होंने वारसा में भी भारत की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में विचार किया पोलैण्ड के बड़े-बड़े क्रान्तिकारी नेताओं से भी वे मिले थे।

कुछ दिनों तक चट्टोपाध्याय वारसा में रहकर, उसके बाद आयरलैण्ड चले गये। उन्होंने आयरलैण्ड के क्रान्तिकारी नेताओं से भेंट की और उनसे भी भारत की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में विचार-विमर्श किया।

चट्टोपाध्याय 1906 ई० में ही लंदन से पेरिस चले गये थे। 1906 ई० में मदनलाल धींगरा ने कर्जन वायली नामक अंग्रेज अधिकारी की हत्या कर दी। उस हत्या को लेकर जब बहुत बड़ा हंगामा खड़ा हुआ, तो सावरकर और चट्टोपाध्याय दोनों पेरिस चले गये। सावरकर तो कुछ दिनों बाद लंदन लौट गये, पर विक्टोरिया स्टेशन पर बन्दी बनाकर भारत भेज दिये गये।

वे पेरिस में रहते हुए भी लंदन जाया करते थे और इंडिया हाउस के कार्यों का संचालन किया करते थे। कुछ दिनों बाद चट्टोपाध्याय पुनः लंदन में जाकर रहने लगे। वे इंडिया हाउस में रहकर क्रांति सम्बन्धी कार्यों का प्रचार किया करते थे। वे भारतीय क्रांतिकारियों के पास हथियार आदि भेजने की व्यवस्था भी किया करते थे। ‘सोशियोलाजिस्ट’ के सम्पादन और प्रकाशन का भार भी उन्हीं के ऊपर था।

कुछ दिनों पश्चात् ‘ सोशियोलाजिस्ट’ का प्रकाशन बन्द हो गया। ‘सोशियोलाजिस्ट’ का प्रकाशन बन्द होने पर चट्टोपाध्याय ‘वन्देमातरम्’ और ‘तलवार’ में लेख आदि लिखने लगे। इन दोनों पत्रों का प्रकाशन मादाम कामा जी के द्वारा होता था। ‘बन्देमातरम्’ पेरिस से और ‘तलवार’ बर्लिन से निकलता था।

चट्टोपाध्याय जी को जब इस बात का पता चला कि जर्मनी और फ्रांस में युद्ध होने वाला है और उस युद्ध में अंग्रेज फ्रांस का साथ देंगे, तो वे जर्मनी चले गये। उन्होंने जर्मनी जाकर जर्मन भाषा का अध्ययन किया। उन्होंने भारतीय भाषाओं को सीखने के लिए छोटी-छोटी पुस्तिकाएं भी तैयार कीं। वे चाहते थे कि हिन्दी, उर्दू और दूसरी भारतीय भाषाओं का जर्मनी में प्रचार हो, वे भाषा के द्वारा भारत की स्वतंत्रता के प्रति जर्मनों के हृदय में सहानुभूति पैदा करना चाहते थे।

उन दिनों लाला हरदयाल और पिल्ले आदि क्रांतिकारी नेता बर्लिन में ही रहते थे। उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए इंडियन नेशनल पार्टी की स्थापना की थी। चट्टोपाध्याय उस पार्टी के भी सदस्य थे। उन्होंने भारत में ब्रिटिश रूल के सम्बन्ध में दो महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ भी लिखे थे।

1917 ई० में रूस में जनक्रांति हुई। चट्टोपाध्याय उस क्रान्ति से अधिक प्रभावित हुए। उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए रूसी नेताओं से संपर्क स्थापित किया। उन्होंने इस सम्बन्ध में ट्राटस्की को कई पत्र लिखे थे।

1920 ई० में स्टाकहोम में एक राजनीतिक सम्मेलन हुआ। उस सम्मेलन में भारतीय क्रांतिकारियों के अतिरिक्त रूस के कई क्रान्तिकारी भी सम्मिलित हुए थे। चट्टोपाध्याय ने भी उसमें भाग लिया था। सम्मेलन में भारत की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में विचार तो हुआ ही था, एक प्रस्ताव भी पास किया गया था।

1920 ई० में ही चट्टोपाध्याय रूस गये। उन्होंने रूस में रहकर लेनिन के पास एक निबन्ध भेजा था। उस निबन्ध में उन्होंने लिखा था, “ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विनाश के लिए कम्युनिस्टों का एक स्वतंत्र संघ स्थापित होना चाहिए।” लेनिन ने उनके उस निबन्ध के उत्तर में लिखा था, “मैं आपके विचारों से सहमत हूं। मेरी और आपकी भेंट कब होगी यह आपको मेरे सचिव से ज्ञात हो सकता है। ” उन दिनों एम०एन० राय ताशकंद में थे। वे ताशकंद से काबुल जाना चाहते थे।

चट्टोपाध्याय को किसी सूत्र से पता चला कि एम०एन० राय की काबुल में हत्या कर दी जायेगी। अतः उन्होंने ताशकंद जाकर एम०एन० राय को काबुल जाने से रोक दिया। चट्टोपाध्याय कई महीने तक रूस में रहे। जब उनकी भेंट लेनिन से नहीं हो सकी पुनः बर्लिन चले गये। बर्लिन में उन्होंने साम्राज्यवाद विरोधी संघ की स्थापना की। तो वे वे स्वयं उस संघ के मंत्री थे। 1926 ई० में ब्रुसेल्स सम्मेलन साम्राज्यवाद विरोधी हुआ।

उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में श्री जवाहरलाल नेहरू ने भी भाग लिया था। ब्रुसेल्स सम्मेलन के पश्चात् चट्टोपाध्याय मास्को चले गये। मास्को में ही उर्दू का अध्यापन करने लगे। वे विवाह करके वहीं बस गये। 1927 ई० में उनका स्वास्थ्य खराब हो गया। वे बीमार पड़ गये।

उनकी आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं थी। उन्होंने सहायता के लिए भारत के अपने कई मित्रों को पत्र लिखे, किन्तु किसी ने भी उनकी उचित सहायता नहीं की। फलतः चिन्ता और बीमारी के कारण उनका स्वर्गवास हो गया। इनकी मृत्यु 2 सितम्बर 1937 को हुई थी।